प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दस साल के कार्यकाल में भाजपा के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने उन पर सबसे तीखा प्रहार किया है। यह प्रहार कुछ वैसा ही है जैसा प्रहार 2002 में गोधरा कांड के बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में काम करने वाले नरेंद्र मोदी को `राजधर्म’ की याद दिलाई थी। मोदी को सत्ता से तब भी नहीं हटाया जा सका था और इस बार भी वे सत्ता पर काबिज ही हो गए हैं और अगर सब कुछ ठीक ठाक चला तो वे अगले पांच साल खींच भी सकते हैं।
लेकिन संघ परिवार के भीतर मची इस खींचतान का परिणाम यह है कि लोकतंत्र की जो बहस उसके बाहर उठी थी वह और भी तीव्र हुई है। हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि मोहन भागवत ने नरेंद्र मोदी की कठोर आलोचना संघ की छवि को बचाने और मोदी के लिए सेफ्टी वाल्व के रूप में काम करने के लिए की है। इरादों और साजिशों की इन बहसों की `क्रोनोलॉजी’ और उसके सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष पर विचार करना ही होगा। उससे पहले यह बता देना जरूरी है कि आखिर मोहन भागवत ने कहा क्या है। क्योंकि संघ परिवारियों से भरे हुए गोदी मीडिया ने या तो उनके बयान को सुदूर उत्तर पूर्व यानी मणिपुर की ओर फेंक दिया है या फिर उसे ब्लैकआउट कर दिया है।
मोहन भागवत ने लगभग वही बातें कही हैं जो विपक्ष के नेता और विशेषकर राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे और अखिलेश यादव जैसे राजनेता कई सालों से कह रहे हैं। नागपुर में आयोजित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ताओं के विकास वर्ग के समापन समारोह में सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा, `` जो वास्तविक सेवक है, जिसको वास्तविक सेवा कहा जा सकता है वह मर्यादा से चलती है। उस मर्यादा का पालन करके जो चलता है वो कर्म करता है, लेकिन कर्मों में लिप्त नहीं होता, उसमें अहंकार नहीं आता कि ये मैंने किया है और वही सेवक कहलाने का अधिकारी है।’’
चुनावों को लेकर उनकी बात भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। उनका कहना था, ``जिस तरह की बातें कही गईं, जिस तरह से दोनों पक्षों ने एक दूसरे पर आरोप लगाए जिस तरह से किसी को यह परवाह नहीं थी कि जो कुछ किया जा रहा है उसके कारण सामाजिक विभाजन पैदा हो रहा है और बिना किसी कारण संघ को इसमें घसीटा गया, झूठ फैलाया गया।’’ उनका कहना था कि चुनावों को युद्ध की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। वह एक प्रतिस्पर्धा है और इसमें जो दूसरा पक्ष है वह विरोधी पक्ष नहीं बल्कि प्रतिपक्ष है। संसद में दोनों पक्षों को सुना जाना चाहिए।
मणिपुर की हिंसा के बारे में भी दिया गया उनका बयान इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि राहुल गांधी ने मणिपुर से ही अपनी दूसरी लंबी यात्रा यानी `न्याय यात्रा’ शुरू की थी और जातीय हिंसा व नारी सम्मान का सवाल जोरशोर से उठाया था। मोहन भागवत ने कहा, `` पिछले एक साल से मणिपुर शांति का इंतजार कर रहा है। पिछले एक दशक से यह शांतिपूर्ण था। ऐसा लग रहा था कि बंदूक की संस्कृति खत्म हो गई है। लेकिन ये फिर शुरू हो गया। इसलिए अभी भी जल रहा है। इस पर कौन ध्यान देगा इसे प्राथमिकता के आधार पर निपटाया जाना चाहिए।’’
अब सवाल यह है कि हमें कौन सा लोकतंत्र चाहिए। मोदी वाला लोकतंत्र जिसमें हिंदू मुस्लिम विभाजन, मंगलसूत्र, मुजरा और घुसपैठियों की बात हो। या फिर भागवत वाला लोकतंत्र जिसमें अहंकार मिटाने और सेवा करने के साथ मणिपुर में बंदूक संस्कृति को खत्म करने की बात हो?
जाहिर सी बात है कि ऊपरी तौर पर देखने पर यही लगता है कि मोहन भागवत उसी तरह से समावेशी लोकतंत्र की बात कर रहे हैं जिसकी बात `इंडिया’ कर रहा है। या जिसकी बात गांधी, नेहरू, डॉ. आंबेडकर, जेपी और डॉ. लोहिया कर रहे थे। लेकिन वैसा है नहीं।
मोदी और भागवत के लोकतंत्र में अंतर
मोदी और भागवत के लोकतंत्र में एक अंतर और वह बहुत गहरा है। मोदी जहां इस देश में `कॉरपोरेट लोकतंत्र’ कायम करना चाहते हैं वहीं मोहन भागवत `हिंदू लोकतंत्र’ बनाना चाहते है। इन दोनों में अंतर होते हुए भी एक प्रकार का समझौता है और दोनों एक दूसरे का हाथ प्रेमी युगल की तरह से पकड़ कर चल रहे हैं। जिस तरह से प्रेमी युगलों में कभी कभी झगड़ा होता है वैसा ही झगड़ा इस दौरान उनका दिखाई पड़ रहा है। लेकिन जो लोग यह सोच रहे हैं कि `सइयां जी से उनका ब्रेक अप’ हो गया वे गलतफहमी में हैं।
मोदी के कॉरपोरेट लोकतंत्र की खासियत यह है कि उसमें मोदी या देश का प्रधानमंत्री कॉरपोरेट कंपनी के सीईओ की तरह से काम करता है और दिन में दस बार कपड़े बदलता है, नए नए विमान से चलता है और खूब विदेश यात्राएं करता है। वह कॉरपोरेट के विस्तार के लिए हर सार्वजनिक उपक्रम को बेचने को तैयार रहता है और किसानों, मजदूरों और आदिवासियों के संसाधनों को छीन कर पूंजीपतियों के हवाले करना चाहता है। उसके बाद जो कुछ बचेगा उसे दान और गारंटी व कृपा के रूप में लोगों में मुफ्त राशन और सम्मान निधि के नाम पर बांटना जानता है।
दूसरी ओर `हिंदू लोकतंत्र’ की खासियत यह है कि वह भारत को हिंदुओं का देश मानता है और कहता है कि यहां लोकतंत्र इसलिए कायम है कि हिंदू बहुसंख्यक हैं। हिंदू उदार हैं। लेकिन दूसरी ओर हिंदुओं को आक्रामक और कट्टर बनाने के लिए सारे उपाय करता है। वह धार्मिक प्रतीकों को राजनीति के औजार के तौर पर गढ़ता है और मानता है कि सरकार का कर्तव्य है कि हिंदू प्रतीकों और हितों को राष्ट्रीय बताकर उसे राष्ट्रवाद के आख्यान का हिस्सा बनाए। लेकिन इसी के साथ वह हिंदुओं के भीतर न तो समता का कोई आंदोलन चलाने का हिमायती है और न ही जाति-व्यवस्था तोड़ने के सिद्धांत को मानता है क्योंकि उसके अनुसार जातियां हिंदू समाज के अंग प्रत्यंग की तरह हैं और उनको तोड़ने का मतलब हिंदू समाज को तोड़ना है। हिंदुत्व के आख्यान में चातुर्वर्ण की आलोचना नहीं है बल्कि उसका स्वीकार्य है। वह गांधी और आंबेडकर के फोटू पर माला चढ़ाते हुए, उन्हें प्रातःस्मरणीय बनाते हुए भी न तो `हिंद स्वराज’ के प्रति आदर रखता है और न ही `जाति के समूल नाश’ के प्रति।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने ढंग से सोशल इंजीनियरिंग करता है और सोचता है कि विभिन्न सामाजिक समूहों के स्वाभिमान की बातें करके और उनकी राजनीतिक भागीदारी बढ़ाकर वह सामाजिक विभेद को ढक देगा। उसने एक हद तक यह काम किया भी है और बड़ी संख्या में अन्य पिछड़ी जातियों का उसके प्रति बढ़ा झुकाव इसका प्रमाण है। लेकिन 2024 के चुनाव ने यह उजागर कर दिया कि संघ संवैधानिक मूल्यों का हिमायती नहीं है और सामाजिक बराबरी में यकीन नहीं करता। दलितों -पिछड़ों ने कई स्थानों और विशेषकर उत्तर प्रदेश में न सिर्फ मोदी और भाजपा की बढ़ती तानाशाही के खिलाफ विद्रोह किया है बल्कि उस सामाजिक सांस्कृतिक आख्यान के विरुद्ध विद्रोह किया है जो रामराज्य के बहाने वर्ण व्यवस्था को मजबूत करने के लिए चलाया जा रहा है। इसीलिए अयोध्या में ऐसा कहने वाले तमाम लोग दिखाई और सुनाई पड़ते हैं कि चातुर्वर्ण में बुरा क्या है जिसे आंबेडकर तोड़ना चाहते थे।
इसलिए यहां यह कहना लाजिमी है कि हमें न तो मोदी का कॉरपोरेट लोकतंत्र चाहिए न तो भागवत का हिंदू लोकतंत्र।
यहां फिल्म `जॉली एलएलबी-2’ का अक्षय कुमार का वह डायलॉग याद आता है कि जिस किसी ने कहा है कि `प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज है (एवरीथिंग इज फेयर इन लव एंड वार) वह दुनिया का सबसे जाहिल व्यक्ति रहा होगा। हमें न तो आतंकवादी इकबाल कादरी चाहिए और न ही पुलिस अधिकारी सूरज देव सिंह चाहिए। हमें दोनों नहीं चाहिए।’
सवाल उठता है कि हमें चाहिए क्या? हमें जो चाहिए क्या वह देने के लिए इंडिया (गठबंधन) तैयार है? क्या उसने लोकसभा चुनाव में गठबंधन बनाकर आंशिक सफलता अर्जित करके अपना संतोष पा लिया है और सत्ता न मिलने पर बिखरने को तैयार है या फिर वह लोकतंत्र और संविधान की लड़ाई को लंबे समय तक लड़ने के लिए तैयार है?
अगर राहुल गांधी के बयान को देखें तो एक उम्मीद तो बनती है। वे कहते हैं, ``इंडिया ने देश को नया विजन दिया है। मेरे दिमाग में हिंदुस्तान की जनता थी। जो अपने संविधान के लिए खड़े होकर लड़ जाएगी। मुझे भरोसा था और यह सच साबित हुआ। बब्बर शेर कार्यकर्ताओं को मैं दिल से धन्यवाद देता हूं। आप ने संविधान को बचाने के लिए पहला और सबसे बड़ा कदम लिया है। कमजोर लोगों ने संविधान बचाया। इंडिया ने जो लड़ाई शुरू की वह समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ जारी रहना चाहिए।’’
इंडिया के सहयोगी दलों ने अपने घोषणा पत्रों में जो बात कही है वह वास्तविक लोकतंत्र की दिशा में उठाया गया कदम है। लेकिन वह अगर गांधी, आंबेडकर और लोहिया के दृष्टिकोण से भटकेगा तो फिर वहीं चला जाएगा जहां मोदी और भागवत उसे ले जाना चाहते हैं।
उसके सामने सावरकर, गोलवलकर और हेडगेवार की दिशा में जाने का खतरा है। क्योंकि उस दिशा में ले जाने वाले चारों ओर घूम रहे हैं। इसीलिए यह जानना ज़रूरी है कि गांधी, लोहिया और आंबेडकर क्या कहते थे। डॉ. आंबेडकर बहुत साफ़ तरीक़े से जानते थे कि इस समाज में लोकतंत्र नहीं है। वह महज एक व्यक्ति और एक वोट से कायम नहीं हो सकता। वह तभी हो सकता है जब समाज और विशेषकर हिंदू समाज जाति व्यवस्था के भीतर जमा श्रेष्ठता भाव छोड़े। लेकिन सिर्फ सामाजिक बराबरी ही काफी नहीं है। बराबरी आर्थिक स्तर पर भी होनी चाहिए और वह उनके दस्तावेज `स्टेट एंड माइनारिटीज’ में संकलित है। उसी को उन्होंने संविधान के नीति निदेशक तत्वों में डालने की कोशिश की है। बराबरी की इसी अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए लोहिया लोगों की आय में अधिकतम एक और दस का अंतर चाहते थे। आज तो एक और एक करोड़ का अंतर हो चुका है। सामाजिक, आर्थिक बराबरी की यह अवधारणा संविधान के तीसरे और चौथे अध्याय में संकलित है। लेकिन वह तब तक फलीभूत नहीं हो सकती जब तक गेल आम्वेट के शब्दों में `नव लोकतांत्रिक या जनवादी क्रांति’ न हो। यह क्रांति जाति व्यवस्था के विरुद्ध जरूरी है। इसे डॉ. आंबेडकर ने `जाति के समूल नाश’ में दर्ज किया है तो डॉ. लोहिया ने जाति तोड़ो में। इसे ही गांधी ने एक वर्ण में विश्वास के साथ संस्तुति दी थी।
लेकिन इन सबसे ऊपर है बंधुत्व। डॉ. आंबेडकर ने इसे स्वतंत्रता और समता से भी बड़ा मूल्य बताया है और बाकी दोनों को इसी पर निर्भर कहा है। यह मूल्य बौद्ध और इस्लाम धर्म में हिंदू धर्म से ज्यादा है। इसीलिए आंबेडकर ने बौद्ध धर्म अपनाया तो गांधी दूसरे धर्मों के अच्छे तत्वों को समाहित करने की बात करते थे।
सवाल उठता है कि क्या `इंडिया’ उन मूल्यों को अपने में समाहित करने और उनके लिए संघर्ष करने को तैयार है? या वह इस लड़ाई को महज ज्यादा सीटें हासिल करने और सरकार बनाने तक सीमित करना चाहता है? अगर पार्टियां चूकती हैं तो क्या जनता तैयार है? क्या नागरिक समाज इतने लंबे संघर्ष के लिए तैयार है?
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