भारत की संसद ने दो दिन तक देश के संविधान पर चर्चा की। विपक्षी नेताओं ने कहा कि हमारे संविधान में समाज के कमज़ोर वर्गों और धार्मिक अल्पसंख्यकों की भलाई के लिए अनेक प्रावधान हैं मगर उसके बावजूद ये वर्ग परेशान हैं। मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है।
इसके विपरीत, सत्ताधारी बीजेपी नेताओं ने संसद के अन्दर और संसद के बाहर भी कहा कि संवैधानिक मूल्यों पर हमले नेहरु (नफरत फैलाने वाले भाषण पर रोक लगाने के लिए संवैधानिक संशोधन) ने शुरू किये और यह सिलसिला इंदिरा गाँधी (आपातकाल) से होते हुए राजीव गाँधी (शाहबनो) और राहुल गाँधी (विधेयक को फाड़ना) तक चला। उन्होंने कहा कि सभी सामाजिक बुराइयों की जड़ में नेहरु-गाँधी परिवार है और उसी ने संविधान को नुकसान पहुँचाया है।
बीजेपी नेता और हिन्दू राष्ट्रवादी चिन्तक लम्बे समय से कहते आए हैं कि भारत का संविधान पश्चिमी मूल्यों पर आधारित है, उसे औपनिवेशिक ताक़तों ने हमारे समाज पर लादा है और वह भारतीय सभ्यता और संस्कृति से मेल नहीं खाता। उनका यह तर्क भी है कि कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों का तुष्टिकरण करने और उनका वोट बैंक बनाने के लिए संविधान का दुरुपयोग किया।
जैसा कि हम सब जानते हैं, संविधान उन मूल्यों का प्रतिनिधि है जो स्वाधीनता संग्राम के दौरान उपजे। संविधान तैयार करते समय हमारी सभ्यता की लम्बी परंपरा का ख्याल भी रखा गया। जिन लोगों ने स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लिया और जो उसकी पीछे की विचारधारा में आस्था रखते थे, भारतीय सभ्यता की उनकी समझ, उन लोगों से बहुत भिन्न थी जो औपनिवेशिकता-विरोधी आन्दोलन से दूर बने रहे और ब्रिटिश शासकों के आगे नतमस्तक रहे। जहाँ आज़ादी का आन्दोलन भारत को समृद्ध विविधताओं वाला एक बहुवादी देश मानता था वहीं स्वाधीनता आन्दोलन से दूर रहने वाले उसे हिन्दू सभ्यता मानता था। ऐसे लोगों को बहुवाद पसंद नहीं है और वे मानते हैं कि बहुवाद को शिक्षित, आधुनिक नेताओं ने देश पर थोपा है।
संघ परिवार और उसके चिंतक जहाँ भारत को विशुद्ध ब्राह्मणवादी हिन्दू देश मानते हैं वहीं गाँधी, नेहरु इत्यादि इसे सभी भारतीयों का देश मानते थे।
भारत की संविधान सभा मोटे तौर पर उस धारा का प्रतिनिधित्व करती थी, जो राष्ट्रीय धारा थी, जो वह धारा थी जिसने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया था। इसके विपरीत, भारत को ब्राह्मणवादी हिन्दू राष्ट्र मानने वाला आरएसएस हाशिये की धारा थी। दोनों धाराओं का यह अंतर, भारत के संविधान का मसविदा तैयार होने के समय से ही परिलक्षित होने लगा था।
आंबेडकर और नेहरु का यह स्पष्ट मत था कि देश की सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि संविधान के मूल ढांचे से कोई छेड़छाड़ न की जाए और उसे पूरी तरह से लागू किया जाए। मगर 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संविधान की समीक्षा के लिए वेंकटचलैया आयोग का गठन किया। उस समय राष्ट्रपति डॉ. के. आर. नारायणन ने बहुत सामयिक टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि, “संविधान के कारण हम नाकाम नहीं हुए हैं, बल्कि हमने संविधान को नाकाम किया है।” यह बात मोदी सरकार के कार्यकाल के सन्दर्भ में एकदम सही है। इस दौर में संविधान में कोई बदलाव नहीं किये गए मगर संघ परिवार के कई सदस्यों ने ऐसा करने की इच्छा और ज़रुरत बताई और उन्हें शीर्ष नेतृत्व द्वारा फटकारा नहीं गया। “अब की बार चार सौ पार” का नारा इसी इच्छा का प्रतीक था। भाजपा चाहती थी कि उसे लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटें हासिल हों ताकि वह संविधान को बदल सके।
देश में नफ़रत फैलाने वाले भाषण देने और बातें कहने वालों की संख्या में तेजी से इज़ाफा हुआ है। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण हैं इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शेखर कुमार यादव, जिन्होंने विश्व हिन्दू परिषद् के एक कार्यक्रम में कहा कि “भारत बहुसंख्यकों की मर्जी के अनुसार चलेगा।”
जस्टिस यादव ने “समान नागरिक संहिता: एक संवैधानिक आवश्यकता” विषय पर कहा, “केवल वही स्वीकार किया जाएगा जो बहुसंख्यकों की भलाई और प्रसन्नता के लिए फायदेमंद हो।”
इससे भी ज्यादा बुरी बात यह है कि उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यादव के कथन का समर्थन किया। यह अच्छा है कि सुप्रीम कोर्ट ने यादव के सांप्रदायिक और नफरत फैलाने वाले भाषण का संज्ञान लिया है। मगर आदित्यनाथ के यादव को समर्थन का कौन संज्ञान लेगा?
वर्तमान स्थितियों पर एक सटीक टिप्पणी में जस्टिस अस्पि चिनॉय ने कहा, “भाजपा केंद्र में सरकार में है और उसके पास संसद में पूर्ण बहुमत है। मगर उसे भारत और उसके संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को कानूनी तौर पर बदलने की कोई ज़रुरत महसूस नहीं हो रही है। राज्य और उसके विविध तंत्र उसके नियंत्रण में हैं और वह कानूनी तौर पर भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बदले बिना, उसके धर्मनिरपेक्ष संविधान को कमज़ोर करने और हिंदुत्व पर आधारित राजकाज कायम करने में कामयाब रही है।”
भाजपा के पूर्ववर्ती जनसंघ के सांप्रदायिक चरित्र का खुलासा उस समय ही हो गया था जब संविधान का मसविदा जारी किया गया था। इसके कुछ दिन बाद, आरएसएस के गैर-आधिकारिक मुखपत्र ऑर्गेनाइजर ने 30 नवम्बर 1949 के अपने अंक में लिखा, “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे बुरी बात यह है कि उसमें कुछ भी भारतीय नहीं है… भारत के प्राचीन संवैधानिक कानूनों, नामकरणों और भाषा का इसमें नामोनिशां तक नहीं है।” मतलब यह कि भारत के संविधान के निर्माताओं ने ‘मनुस्मृति’ को नज़रअंदाज़ किया!
लोकसभा में बहस में भाग लेते हुए, हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति के पितामह वी.डी. सावरकर को उद्धृत करते हुए विपक्ष के नेता राहुल गाँधी ने कहा, “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे बुरी बात यह है कि उसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। हमारे हिन्दू राष्ट्र में वेदों के बाद मनुस्मृति सबसे पूजनीय ग्रन्थ है, जो प्राचीन काल से हमारी संस्कृति, रीति-रिवाजों, विचारों और आचरण का आधार रही है। सावरकर का कहना था कि मनुमृति की हमारे देश का कानून है।”
अगर हम संविधान की मसविदा समिति के मुखिया डॉ. आंबेडकर और आरएसएस के एक सरसंघचालक के. सुदर्शन की तुलना करें तो पूरी बात समझ में आ जाएगी। आंबेडकर ने मनुस्मृति का दहन किया था और आरएसएस के मुखिया ने भारत के संविधान को पश्चिमी मूल्यों से प्रेरित बताते हुए कहा था कि हमें मनुस्मृति पर आधारित भारत का संविधान बनाना है।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी अवार्ड से सम्मानित हैं)
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