दुर्लभ खनिज के मामले में न केवल भारत बल्कि बाक़ी दुनिया चीन की मोहताज़ है जिसे ख़त्म करने में भारत ऑस्ट्रेलिया समझौता सहायक हो सकता है। इस इरादे से ही भारत और ऑस्ट्रेलिया ने चार जून को एक अहम समझौता किया है। भारत और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों- नरेन्द्र मोदी और स्कॉट मारीसन के बीच पहली ऑनलाइन वर्चुअल शिखर बैठक में दूरगामी महत्व का यह समझौता किया गया है जिसे यदि समुचित तरीक़े से लागू किया गया तो न केवल भारत बल्कि बाक़ी दुनिया चीन पर दुर्लभ खनिज के लिये अपनी निर्भरता समाप्त कर सकती है। दुर्लभ खनिज का चीन सबसे बड़ा उत्पादक और साथ ही सप्लायर भी। और चीन चाहे तो इनकी सप्लाई रोककर किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ तोड़ सकता है।
दुर्लभ खनिज आधुनिक दुनिया के उच्च तकनीक उद्योग की रीढ़ माना जाता है और जो देश इसकी सप्लाई पर नियंत्रण स्थापित करेगा वह बाक़ी दुनिया पर दादागीरी करने में सक्षम होगा। भले ही कोरोना महामारी की वजह से भारत और विकसित देशों में ज़रूरी औद्योगिक माल के लिये चीन से स्वतंत्र होने की गुहार लगाई जा रही है लेकिन इसमें कामयाबी मिलेगी, संदेह है। यह केवल एक नारा ही बन कर रहेगा क्योंकि चीन से दूरी बनाने में भारत और अन्य विकसित देशों को बड़ा औद्योगिक आधार खड़ा करना होगा और इसमें काफ़ी वक़्त लगेगा।
चुम्बकीय और इलेक्ट्रो-रसायन गुणों से भरपूर दुर्लभ खनिज का इस्तेमाल कई उपभोक्ता सामान, सेलफ़ोन, लैपटॉप, स्मार्ट टीवी, विमानों के इंजन, लेजर, राडार, सोनार जैसे अंतरिक्ष और रक्षा साज सामान के उत्पादन में किया जाता है। सामरिक महत्व के दुर्लभ खनिज पृथ्वी पर पाए जाने वाले 17 तत्वों के रूप में जाने जाते हैं जिनका खनन काफ़ी जटिल होता है।
चीन अपनी ज़रूरतें पूरी करने के बाद निर्यात के लायक इतना ही उत्पादन करता है कि विश्व बाज़ार में इनकी कमी बनी रहे और इस वजह से इनकी अधिक क़ीमत वसूली जा सके।
भारतीय नेताओं ने यदि दूरदर्शिता दिखाई होती तो भारत भी दुर्लभ खनिज के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बन सकता था लेकिन अब इसके स्वदेशी उत्पादन के लिये योजनाएँ बनाना ऐसा लगता है कि प्यास लगने पर कुआँ खोदने चले हैं। वास्तव में क़रीब एक दशक पहले ही जापान ने भारत के साथ दुर्लभ खनिज के साझा उत्पादन की योजना बनाने पर विचार किया था लेकिन ये कागजों तक ही सीमित रह गए। दुर्लभ खनिज के उत्पादन के लिये विशाखापट्टनम में भारत और जापान ने एक संयुक्त उद्यम की स्थापना की है।
अब चीन के भारत और बाक़ी दुनिया के साथ चल रहे तनाव की पृष्ठभूमि में भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच इस क्षेत्र में सहयोग का साझा घोषणापत्र केवल संयुक्त बयानों तक ही सीमित नहीं रह जाना चाहिये। ऑस्ट्रेलिया में दुर्लभ खनिज का बड़ा भंडार है और भारत के पास सस्ता श्रम है जिसके तालमेल से इस्तेमाल कर भारत और ऑस्ट्रेलिया दुनिया के लिये चीन का विकल्प बन सकते हैं। दुर्लभ खनिज के उत्पादन के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिये एक संतुलित खनिज नीति देश के सामने भारत सरकार को पेश करने की भी ज़रूरत है।
दुर्लभ खनिज के दम पर चीन की धौंस!
यह इसलिये भी ज़रूरी हो गया है कि चीन अपने दुर्लभ खनिज के बड़े सप्लायर होने की बदौलत अक्सर उन देशों को आँखें दिखाता है जो चीन के साथ किसी तरह की छेड़खानी करते हैं। मसलन, एक दशक पहले जापान और चीन के बीच जब कुछ द्वीपों को लेकर तनाव बढ़ा तो चीन ने जापान को दुर्लभ खनिज की सप्लाई रोकने की चेतावनी दी। ऐसा होता तो जापान का सारा इलेक्ट्रॉनिक उद्योग ठप हो जाता। इसी तरह पिछले साल भी चीन और अमेरिका के बीच चल रहे व्यापारिक तनाव के बीच चीन ने अमेरिका को धमकी दी थी कि उसे दुर्लभ खनिज की सप्लाई रोक देगा। ऐसा हुआ तो अमेरिका का खरबों डॉलर का वैमानिकी, रक्षा और अंतरिक्ष उद्योग तबाही के कगार पर चला जाएगा।
एक अनुमान के मुताबिक़ चीन में सालाना 1,33,000 टन दुर्लभ खनिज का उत्पादन होता है जबकि भारत में केवल क़रीब तीन हज़ार टन सालाना।
दुर्लभ खनिज के उत्पादन के मामले में आज चीन दुनिया का 90 प्रतिशत हिस्सा रखता है। 1993 में वह दुनिया का केवल 38 प्रतिशत ही उत्पादन करता था। भारत की दुर्लभ खनिज की अधिकांश ज़रूरतें चीन से पूरी होती हैं। साफ़ है कि चीन जब चाहे भारत की बाँहें मरोड़ सकता है।
चीन से होड़ में आगे निकलना है और आर्थिक व औद्योगिक आत्मनिर्भरता हासिल करनी है तो दुर्लभ खनिज के मामले में भारत को आत्मनिर्भर बनना होगा। चीनी सामानों का बहिष्कार करना है तो पहले इसके लिये विकल्प ढूँढना होगा। ऑस्ट्रेलिया के साथ ताज़ा खनन और दुर्लभ खनिज समझौता यह विकल्प प्रदान करता है लेकिन इसकी कामयाबी के लिये भारत सरकार को अपने उद्योगों के लिये समुचित रोडमैप प्रदान करना होगा।
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