दुनिया के सात अमीर देशों के संगठन जी-7 की शिखर बैठक में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने भारत सहित ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और रूस को न केवल निमंत्रण दिया है बल्कि दुनिया के इस सबसे विशिष्ट क्लब में शामिल कर इसे जी-11 या जी-12 करने की सम्भावना भी ज़ाहिर की है। अमेरिका चाहता है कि 2014 में इस संगठन से निकाले गए रूस को इसमें वापस लिया जाए जबकि चीन को इससे बाहर रखने का ही फ़ैसला किया गया है।
हालाँकि ऐसा पहली बार नहीं है कि जी-7 में भारत को भाग लेने का निमंत्रण मिला हो। सबसे पहले 2003 में फ्रांस में जी-8 शिखर बैठक के आयोजन के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को निमंत्रण मिला था और इसके बाद पिछले साल फ्रांस ने ही अपने यहाँ आयोजित जी-7 शिखर बैठक में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा कुछ और विकासशील देशों के नेताओं को आमंत्रित किया था। 2003 में जी-7 जी-8 के नाम से जाना जाता था क्योंकि तब अमेरिका, इटली, जापान, कनाडा, जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन के अलावा रूस भी इसका सदस्य था। 2014 में जी-7 के बाक़ी सदस्यों ने रूस को उक्रेन के क्राइमिया इलाक़े पर क़ब्ज़ा करने के विरोध में निष्कासित कर दिया था।
भारत को जी-7 शिखर बैठक में आमंत्रित करना विशेष सम्मान की बात है लेकिन हमें यह भी जानना होगा कि जी-7 की शिखर बैठक में बांग्लादेश और ऐसे ही कई अन्य अफ्रीकी देशों को निमंत्रण मिलता रहा है। हर साल जून में आयोजित होने वाली जी-7 शिखर बैठक में मेजबान देश अपनी प्राथमिकता के अनुरूप एशिया और अफ्रीका के चार–पाँच विकासशील देशों को आमंत्रित करते हैं। ठीक वैसे ही जैसे पाँच देशों के संगठन ब्रिक्स (रूस, भारत, ब्राजील, चीन और दक्षिण अफ्रीका) के सदस्य देश अपने यहाँ शिखर बैठक की मेजबानी के दौरान अपने पड़ोसी देशों को आमंत्रित करते रहे हैं। भारत ने एक बार ब्रिक्स शिखर बैठक के दौरान बिम्सटेक के सदस्य देशों को आमंत्रित किया था। उसी तरह ब्राज़ील ने भी ब्रिक्स शिखर बैठक के दौरान लैटिन अमेरिकी देशों को आमंत्रित किया।
जी-7 की शिखर बैठक में पर्यवेक्षक या विशिष्ट अतिथि के तौर पर आमंत्रित होना और इसके सदस्य के तौर पर आमंत्रित होने में फर्क है। अतिथि के तौर पर आमंत्रित होने से भारत को जी-7 के फ़ैसलों में भागीदार होने का मौक़ा नहीं मिल सकता जबकि सदस्य देश के तौर पर भारत विश्व राजनीतिक और आर्थिक मामलों में एक अहम खिलाड़ी बन कर उभरेगा।
अमेरिका चाहता है कि जी-7 का औपचारिक तौर पर विस्तार हो जाए और इसमें भारत सहित ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और रूस को शामिल किया जाए। लेकिन जी-7 के बाक़ी सदस्य देशों की इस बारे में राय नहीं मिली है।
इस प्रस्ताव को आम राय यानी बाक़ी छह सदस्य देशों की सहमति से ही पारित किया जा सकता है। इस प्रस्ताव का इटली और कनाडा की ओर से विरोध हो सकता है इसलिये नहीं कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति ट्रम्प इस प्रस्ताव को पारित करवा पाएँगे। फ़िलहाल कोरोना महामारी की वजह से जी-7 शिखर बैठक का वीडियो के ज़रिये जून में आयोजन करना टाल दिया गया है और अब इसे आगामी सितम्बर में सभी रष्ट्रप्रमुखों की मौजूदगी में ही करने का प्रस्ताव राष्ट्रपति ट्रम्प ने किया है।
भारत की ओर से पुष्टि नहीं की गई है कि सितम्बर में प्रस्तावित शिखर बैठक में राष्ट्रपति ट्रम्प का निमंत्रण स्वीकार किया गया है या नहीं, लेकिन राजनयिक सूत्रों का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिये दुनिया के सात विशिष्ट देशों की इस बैठक में भाग लेना विशेष अवसर प्रदान करेगा। लेकिन सितम्बर तक भारत और विश्व भर में कोरोना की वजह से हालात कैसे बनते हैं कहना मुश्किल होगा। यदि भारत में हालात और बिगड़ते हैं तो प्रधानमंत्री मोदी के लिये वाशिंगटन जाना मुश्किल होगा।
जी-7 गुट का गठन वैसे तो आम तौर पर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक माहौल के अनुरूप आपसी समन्वय से नीतियों के प्रतिपादन के लिये किया गया था लेकिन हाल के सालों में जी-7 की राजनीतिक अहमियत काफ़ी बढ़ गई है। जी-7 के सदस्य देश विश्व राजनीतिक माहौल पर चर्चा करते हैं और इनसे निबटने के लिये ज़रूरी क़दम उठाते हैं। मसलन, 2014 में जी-8 से रूस को इसलिए निकाला गया कि उसने उक्रेन के क्राइमिया इलाक़े पर सेना भेज कर क़ब्ज़ा कर लिया था।
जी-7 के सदस्य देशों की पहली शिखर बैठक 1975 में 1973 के तेल संकट से पैदा आर्थिक हालात पर चर्चा करने और इनसे निबटने के लिये एकजुट नीति तय करने का फ़ैसला करने के इरादे से ही बुलाई गई थी। तब से शीतयुद्ध के माहौल की वजह से जी-7 को रूस विरोधी खेमा ही माना जाने लगा था। लेकिन पहली बार 1997 में रूस को इस विशिष्ट क्लब का सदस्य इसकी आर्थिक और राजनीतिक हैसियत की वजह से बनाकर इसे जी-8 का स्वरूप दिया गया था।
अब रूस को फिर से जी-7 से जोड़ने का प्रस्ताव यदि मान लिया जाता है तो यह विश्व राजनीतिक समीकरण में बदलाव लाएगा। रूस यदि जी-7 से फिर जुड़ता है तो इसे रूस को चीन से विमुख करने की रणनीति के तौर पर देखा जाएगा।
रूस और चीन की साँठगाँठ ख़ासकर अमेरिका और इसके साथी देशों को खटक रही है। चीन के ख़िलाफ़ किसी भी प्रस्ताव या मुहिम का रूस तीव्र विरोध करता है और अंतरराष्ट्रीय नियमों के पालन न करने के चीन के ख़िलाफ़ लगाए गए आरोपों पर रूस मौन ही रहता है। रूस ने ऐसा रुख़ इसलिये अपनाया है कि अमेरिका उस पर कई तरह के प्रतिबंध लगाकर उसे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी से बाहर करने के क़दम उठा रहा है जिससे रूस को रक्षा और आर्थिक मोर्चे पर विशेष परेशानी हो रही है।
लेकिन चूँकि अब कोरोना महामारी की मार से तबाह अमेरिका और यूरोपीय देशों ने चीन से ख़ासी नाराज़गी ज़ाहिर की है और रूस भी कोरोना महामारी की चपेट में आ चुका है इसलिये उसे अमेरिका और पश्चिमी देश अपने खेमे में लाकर चीन पर राजनयिक दबाव बढ़ा सकते हैं। भारत के लिये भी यह अनुकूल क़दम होगा क्योंकि भारत और रूस के बीच पारम्परिक तौर पर सामरिक साझेदारी का रिश्ता रहा है जिससे विश्व रंगमंच पर भारत को ताक़त मिलेगी। विस्तारित जी-7 संगठन में भारत को सदस्यता मिलने से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का भारत का दावा मज़बूत होगा। चूँकि चीन को इस गुट में शामिल नहीं किया जाएगा इसलिये चीन के मुक़ाबले सामरिक संतुलन भारत के पक्ष में झुकेगा। जी-7 के विस्तारित स्वरूप में सदस्य के तौर पर भारत का शामिल होना विश्व रंगमंच पर भारत की अहमियत बढ़ाएगा।
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