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प्रतीकात्मक तस्वीर।

धार्मिक अल्पसंख्यकों की माली हालत में सुधार कैसे संभव?

जो लोग न्याय और बराबरी के आदर्शों में यक़ीन रखते हैं उनके लिए अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों, की माली हालत गंभीर चिंता का विषय है। भारत में इस्लाम सातवीं सदी में अरब व्यापारियों के साथ मलाबार तट के रास्ते आया। तब से बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने इस्लाम अपनाया है। मगर इनमें से ज़्यादातर लोग वे थे जो हिन्दू धर्म में जातिगत दमन के शिकार थे और आर्थिक रूप से वंचित थे। जिसे हम मुग़लकाल कहते हैं उसमें मुस्लिम बादशाह दिल्ली और आगरा से राज भले ही करते थे मगर उनके राज से समाज के ढाँचे पर कोई खास असर नहीं पड़ा। अधिकांश ज़मींदार हिन्दू थे और वे अत्याचार करने के मामले में ग़रीब मुसलमानों और ग़रीब हिन्दुओं के बीच कोई भेदभाव नहीं करते थे।

सन 1857 के विद्रोह के बाद मुसलमान अंग्रेजों के निशाने पर आ गए। कारण यह कि इस विद्रोह के नेता बहादुरशाह ज़फर थे। मुस्लिम समुदाय को अंग्रेजों के ग़ुस्से का सामना करना पड़ा। स्वाधीनता के बाद मुसलमानों के बारे में मिथक और उनके प्रति पूर्वाग्रह मज़बूत होते गए और वे साम्प्रदायिक ताक़तों के सबसे बड़े शिकार बन गए। जहां अन्य समुदाय आगे बढ़े और उनके सदस्यों ने शिक्षा और रोजगार हासिल किए वहीं कई कारणों से मुसलमान पीछे छूट गए। इन कारणों में उनके ख़िलाफ़ दुष्प्रचार और उनकी आर्थिक बदहाली शामिल थे।

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हमारे संविधान ने यह स्वीकार किया कि दलित और आदिवासी सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हैं और इसलिए उन्हें आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। इस आरक्षण ने इन समुदायों को कुछ हद तक लाभान्वित किया। जहां तक ओबीसी का प्रश्न है उन्हें 1990 से राष्ट्रीय स्तर पर 27 फीसदी आरक्षण मिलना शुरू हुआ। लेकिन कई राज्यों ने इसके पहले से ही अपने स्तर पर उन्हें आरक्षण देना शुरू कर दिया था। ओबीसी को आरक्षण का ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ जैसे कई संगठनों ने कड़ा विरोध किया था।

दलितों के लिए आरक्षण का भी बड़े पैमाने पर विरोध हुआ। सन 1980 में और फिर 1985 में गुजरात में दलित-विरोधी हिंसा हुई। इस बीच अल्पसंख्यक आर्थिक बदहाली के दलदल में और धँसते गए। इसका कारण यह था कि संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण देने का कोई प्रावधान नहीं है। कुछ राज्यों ने ओबीसी कोटे के अंदर मुसलमानों को आरक्षण देने का प्रयास किया मगर इसका हिन्दू राष्ट्रवादी ताक़तों ने जमकर विरोध किया। मुस्लिम समुदाय की आर्थिक स्थिति के ख़राब होने के कई कारण हैं। उनके ख़िलाफ़ हिंसा होती रही है और हिंसा के डर से वे अपने मोहल्लों में सिमट गए हैं। वे ऐसे इलाक़ों में रहना पसंद करने लगे हैं जहां उनके आसपास मुसलमान ही रहते हों। उन्हें नौकरियाँ मुश्किल से मिलती हैं और उनमें शिक्षा का स्तर भी कम है। इस सबके बावजूद जब भी मुसलमानों के लिए आरक्षण की बात होती है तो हिन्दुत्व की राजनीति के पैरोकार जोर-जोर से चीखने लगते हैं। वे इसे "मुसलमानों का तुष्टिकरण" बताते हैं।

भारत सरकार ने गोपाल सिंह समिति, रंगनाथ मिश्र आयोग और सच्चर समिति नियुक्त कर मुसलमानों की माली हालत का जायजा लेने का प्रयास किया। इन सभी समितियों और आयोगों की रिपोर्ट में यह बताया गया कि मुसलमानों की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब है और पिछले कुछ दशकों में उसमें गिरावट आई है।
सच्चर कमेटी ने सन 2006 में अपनी रिपोर्ट सरकार के सामने रखी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि इस असहाय समुदाय की मदद के लिए सरकार क़दम उठाएगी।

अपने एक भाषण में उन्होंने कहा, ‘अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए घटक योजना को फिर से मज़बूती देनी होगी। यह सुनिश्चित करने के लिए कि अल्पसंख्यक और विशेषकर मुस्लिम अल्पसंख्यक विकास के फल का स्वाद अन्य समुदायों की तरह चख सकें, हमें नवोन्मेषी योजनाएँ बनानी होंगी। संसाधनों पर उनका सबसे पहले दावा होना चाहिए। केन्द्र की कई और जिम्मेदारियाँ भी हैं जिन्हें संसाधनों की उपलब्धता के अनुरूप पूरा किया जाएगा।’

बीजेपी ने मुसलमानों की मदद करने की बात को हिन्दुओं को लूटने से जोड़ दिया। नरेन्द्र मोदी ने कहा, ‘वे अब पता लगाएंगे कि हमारी माताओं-बहनों के पास कितना सोना है। वे उसे तौलेंगे, उसकी क़ीमत का अंदाजा लगाएंगे और फिर वो उसे बाँट देंगे और वे उसे किन लोगों को देंगे यह डॉक्टर मनमोहन सिंह की सरकार पहले ही साफ़ कर चुकी है। वह कह चुकी है कि देश की संपत्ति पर पहला हक मुसलमानों का है।’

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इस पृष्ठभूमि में यूएस-इंडिया पॉलिसी इंस्टीट्यूट एवं सेंटर फॉर डेवलपमेंट पॉलिसी एंड प्रैक्टिस की हालिया रपट स्वागतयोग्य है। इस रपट का शीर्षक है ‘‘रिथिंकिंग एफिरमेटिव एक्शन फॉर मुस्लिम्स इन कंटेम्पोरेरी इंडिया’’ और इसे हिलाल अहमद, मोहम्मद संजीर आलम एवं नज़ीमा परवीन ने तैयार किया है। यह रिपोर्ट मुसलमानों के लिए आरक्षण के मुद्दे से हटकर बात करती है। रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया है कि मुसलमानों में अलग-अलग आर्थिक स्थिति वाले लोग हैं। कुछ लोग धनी हैं और उन्हें आरक्षण की बिलकुल ज़रूरत नहीं है। अन्यों के मामले में रिपोर्ट उनके धर्म की बजाए उनकी जाति पर ध्यान देने की बात कहती है। रिपोर्ट कहती है कि यह देखा जाना चाहिए कि वे लोग पारंपरिक रूप से कौनसा व्यवसाय करते आ रहे हैं। उनकी रोज़ीरोटी कैसे चलती है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण पर लगाई गई 50 प्रतिशत की उच्चतम सीमा को हटाने की मांग की जा रही है। इसके बाद मुसलमानों को ओबीसी और दलित कोटे में जगह दी जा सकती है। रपट में सीएसडीएस-लोकनीति द्वारा जुटाए आँकड़ों का उपयोग किया गया है। रिपोर्ट के लेखक कहते हैं कि मुसलमानों के लिए आरक्षण की बात करना सांड को लाल कपड़ा दिखाना जैसा है इसलिए उन्हें उनके धर्म की बजाए उनके पेशे के आधार पर ओबीसी या एससी कोटे में जगह दी जानी चाहिए। पसमांदा मुसलमान सबसे वंचित हैं और उन्हें दलितों की श्रेणी में रखा जा सकता है। कई ईसाई समुदायों की भी स्थिति यही है। उन्हें भी अपनी रोज़ी-रोटी चलाने के लिए सरकार की मदद की ज़रूरत है।

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रपट में यह भी बताया गया है कि धीरे-धीरे भारतीय राज्य एक खैराती संस्था बन गया है जो सरकार की योजनाओं की जद में आने वालों को ‘लाभार्थी’ कहता है।

रपट के लेखक कहते हैं कि ओबीसी का तार्किक और धर्म से ऊपर उठकर उपवर्गीकरण किया जाना चाहिए। वर्तमान में चल रही योजनाओं और कार्यक्रमों को बेहतर ढंग से लागू किया जाना ज़रूरी है। हमें सकारात्मक क़दम उठाने होंगे। अगर किन्हीं दो उम्मीदवारों की अहर्ताएँ और अनुभव समान हैं तो उनमें से जो जाति या लिंग के कारण हाशियाकृत हो उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए। मुस्लिम समुदाय में बड़ी संख्या में शिल्पकार हैं। उन्हें बेहतर तकनीकी उपलब्ध करवाई जानी चाहिए।

यह रपट व्यापक है और वर्तमान हालात को ध्यान में रखती है। हमारी सत्ताधारी पार्टी अल्पसंख्यकों को क़रीब-क़रीब दूसरे दर्जे का नागरिक मानती है। मगर सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या वर्तमान सरकार अपनी संकीर्ण संप्रदायवादी सोच से ऊपर उठकर इस रपट को लागू करेगी। 

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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राम पुनियानी
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