इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे प्रगतिशील वामपंथी शायर की उस नज़्म को, जो प्रतिरोध के एक सार्वभौमिक स्वर का दर्जा पा चुकी है, मज़हबी चश्मे से देखा जाए और उस पर हिन्दू विरोधी या इसलाम परस्त होने का आरोप लगा दिया जाए। सिर्फ़ इस वजह से कि उसमें ख़ुदा, क़ाबा, बुत जैसे शब्द रूपक के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं।