इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे प्रगतिशील वामपंथी शायर की उस नज़्म को, जो प्रतिरोध के एक सार्वभौमिक स्वर का दर्जा पा चुकी है, मज़हबी चश्मे से देखा जाए और उस पर हिन्दू विरोधी या इसलाम परस्त होने का आरोप लगा दिया जाए। सिर्फ़ इस वजह से कि उसमें ख़ुदा, क़ाबा, बुत जैसे शब्द रूपक के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं।

जो भी, कहीं भी दुनिया को बदलने का सपना देखते हैं, अपने हालात से बग़ावत कर रहे हैं, उनके लिए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की शायरी लड़ने का एक हथियार भी है और रास्ता दिखाने वाली एक मशाल भी। इस अर्थ में फ़ैज़ सिर्फ़ एक शायर नहीं हैं, एक विश्व नागरिक हैं। प्रेम और विद्रोह की निरंतर गूँजती अभिव्यक्ति के साथ...
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बेहद मशहूर इन्क़लाबी रचना 'हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे' फ़िलहाल नागरिकता क़ानून, एनआरसी और एनपीआर के मुद्दे पर चल रहे देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों के बीच अब हिंदू-मुसलमान के खेल के लपेटे में आ गई है। कानपुर आईआईटी में इस पर जाँच बिठा दी गई है। आरोप है कि यह हिंदू विरोधी है। कानपुर आईआईटी के छात्रों ने नागरिकता क़ानून के मुद्दे पर विरोध-प्रदर्शन के दौरान फ़ैज़ की इस कविता का इस्तेमाल किया था।