वर्तमान हालात में देश का मुसलिम तबक़ा नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए), नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी), नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) के बहाने देश में अपने अस्तित्व और अपनी पहचान को लेकर सरकार की नीयत के प्रति संदेह कर रहा है। अलग-अलग राज्यों में तमाम तरह के लोग नागरिकता क़ानून के विरोध में सड़कों पर उतरे हुए हैं। ऐसे में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत यह क्यों कह रहे हैं कि देश में जो भी रह रहा है, वे सब हिंदू हैं? यह बयान मौजूदा माहौल में कम से कम किसी उदारवाद की निशानी तो नहीं है। फिर ऐसा बयान उन्होंने क्यों दिया? क्या सब किसी लंबी विचार परियोजना का हिस्सा है?

बीजेपी ने 2014 में सत्ता संभालने के बाद से सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक मोर्चों पर हिंदू-मुसलमान की विभाजन रेखा को लगातार गहरा करने की बहुत सारी कोशिशें की हैं और इस वजह से फैली अराजकता ने समाज के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को और तीख़ा किया है। यह ध्रुवीकरण देश के लिए तो अभिशाप है लेकिन राजनैतिक तौर पर बीजेपी को इससे संजीवनी मिली है।
सरकार जिस तरह नागरिकता क़ानून के मुद्दे पर अड़ी हुई है, उससे तो यही लगता है कि ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने का जो काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1947 में नहीं कर पाया, उस पर अब सुनियोजित तरीक़े से अमल करने की तैयारी है। संविधान में बदलाव करके ऐसा करना असंभव होगा लेकिन समाज, राजनीति में उथल-पुथल मचाकर और अराजकता का माहौल बनाये रखकर या मुसलमानों को अंततः लोगों की नज़रों में किसी न किसी तरह से 'देश के ख़िलाफ़' साबित करके और उन्हें अलग-थलग करके ऐसा किया जा सकता है, वर्तमान सत्ता समूह का ऐसा विचार दिखता है। इस विचार को अमली जामा पहनाने में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उसकी मदद करने के लिए उत्सुक और तत्पर भी है।