“शीतयुद्ध ख़त्म होने के बाद से ज़्यादातर जगहों पर लोकतांत्रिक व्यवस्था सैनिकों और जनरलों ने ध्वस्त नहीं किया है, लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों ने ही ऐसा किया है।” हाल के दिनों में सबसे ज़्यादा पढ़ी गई किताबों में एक ‘हाऊ डेमोक्रेसीज़ डाई’ का यह केंद्रीय दावा है। अपने समय के सबसे विलक्षण राजनीति वैज्ञानिकों में एक स्टीवन लेवित्स्की और डैनिएल ज़िब्लाट इस पुस्तक के लेखक हैं।
क्या भारत में लोकतंत्र बचेगा?
- विचार
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- 25 Feb, 2021

स्टीवन लेवित्स्की और डैनिएल ज़िब्लाट की किताब ‘हाऊ डेमोक्रेसीज़ डाई’ में विस्तार से बताया गया है कि किस तरह लोकतांत्रिक रूप से चुने गए लोग ही लोकतंत्र को अंदर से ध्वस्त कर रहे हैं और वह भी क़ानूनी रूप से। क्या यह बात भारत के परिप्रेक्ष्य में भी प्रासंगिक है? 'इंडियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित लेख 'इंडियाज़ डेमोक्रेटिक एक्शेप्शनलिज़्म इज़ नाउ विदरिंग अवे, द इम्पैक्ट इज़ आलसो एक्सटर्नल' का अनुवाद प्रस्तुत है।
तख़्तापलट अपवाद!
साल 1999 में पाकिस्तान और 2014 में थाईलैंड के तख़्तापलट की तरह ही हाल-फ़िलहाल म्याँमार में हुआ सैनिक तख़्तापलट अपवाद है। इस तरह के तख़्तापलट 1960 और 1970 के दशक में ज़्यादा आम थे। आज के समय में जो आम है, उसे विद्वानों ने लोकतांत्रिक प्रणाली का अपना धर्म छोड़ना कहा है। यह नई अवधारणा है जिसमें निर्वाचित राजनेता लोकतांत्रिक प्रणाली में क्षरण करते हैं, कई बार वे यह काम क़ानून के दायर में रह कर करते हैं। लेवित्स्की और ज़िब्लाट ने लिखा है,