आख़िरकार केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को अपना बयान वापस लेना पड़ा या पूरी लीपापोती करनी पड़ी। उन्होंने एक हिंदूवादी हिंदी संस्था में भाषण देते हुए यह इच्छा व्यक्त की थी कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जाना चाहिए। लेकिन जब अगले ही दिन उनकी अपनी पार्टी बीजेपी के एक मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने इसका विरोध करते हुए कहा कि भाषा के मसले पर कोई समझौता नहीं हो सकता, तो अमित शाह ने ख़तरे को भांप लिया और हिंदी को दूसरी भाषा के रूप में मान्यता दिए जाने की ज़रूरत बताई।
अमित शाह जी, हिंदी बोलने और थोपने में फ़र्क़ है
- विचार
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- 22 Sep, 2019

हमारे देश की जटिल, सामाजिक और कई परतों वाली संस्कृति और उससे जुड़ी भाषाओं के बारे में बीजेपी के लगभग सभी नेताओं की समझ कमोबेश कमज़ोर रही है। उनकी मान्यता है कि बहुसंख्यक संस्कृति ही वास्तविक संस्कृति होती है और उसका उद्देश्य है - ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’।
शाह को इसका ख़याल नहीं आया कि हिंदी पहले से ही देश की संपर्क-भाषा और राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित है, यानी उसे अलग-अलग राज्यों और समुदायों की मातृभाषाओं के साथ दूसरी भाषा का दर्जा प्राप्त है और उसे फिर से ‘दूसरी भाषा’ बतलाना नितांत अप्रासंगिक है। उन्हें यह भी याद नहीं आया कि आज़ादी के बाद विभिन्न राज्यों का गठन भाषाई आधार पर हुआ था।
मंगलेश डबराल मशहूर साहित्यकार हैं और समकालीन हिन्दी कवियों में सबसे चर्चित नामों में से एक हैं।