जो लोग औरंगज़ेब के भाई दारा शिकोह की यह कह कर तारीफ़ करते नहीं थकते कि वह संस्कृत का विद्वान था, उसी विचारधारा के लोग बीएचयू में एक मुसलमान के संस्कृत प्रोफ़ेसर नियुक्त किए जाने पर हंगामा खड़ा कर देते हैं। क्या यह संयोग है या एक निश्चित सोच का पैटर्न है, जो अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रूप से दिखता है? क्या यह भाषा पर सांप्रदायिकता का रंग चढ़ाने की कोशिश नहीं है?