जो लोग औरंगज़ेब के भाई दारा शिकोह की यह कह कर तारीफ़ करते नहीं थकते कि वह संस्कृत का विद्वान था, उसी विचारधारा के लोग बीएचयू में एक मुसलमान के संस्कृत प्रोफ़ेसर नियुक्त किए जाने पर हंगामा खड़ा कर देते हैं। क्या यह संयोग है या एक निश्चित सोच का पैटर्न है, जो अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रूप से दिखता है? क्या यह भाषा पर सांप्रदायिकता का रंग चढ़ाने की कोशिश नहीं है?
ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि भारत एकता में अनेकता का उदाहरण रहा है। यह हिन्दू-मुसलमानों की मिलीजुली तहजीब के लिए मशहूर रहा है। मुसलमान समाज से आने वाले रहीम, रसखान व मलिक मुहम्मद जायसी जैसे महाकवियों ने शुद्ध हिंदी, सुधक्कड़ी अथवा संस्कृत भाषाओं में हिंदू देवी-देवताओं की महिमा का बखान किया था। मुंशी प्रेमचंद, रघुपति सहाय 'फ़िराक़' गोरखपुरी, बृज नारायण 'चकबस्त', आनंद नारायण मुल्ला, कुंवर महेंद्र सिंह बेदी व गोपीचंद नारंग जैसे साहित्यकारों ने उर्दू भाषा की पताका देश-विदेश में फहराया है।
इतना ही नहीं, हमारे देश में 'विभिन्नता में एकता' का उदाहरण इस हद तक देखने को मिलता है कि कहीं मुसलमान गणेश पूजा का आयोजन करते हैं तो कहीं काँवड़ यात्रियों के लिए स्वागत शिविर लगाते हैं, कहीं सिख-हिन्दू-मुसलिम मिलजुल कर दीपावली व होली मानते हैं तो कहीं ईद और मुहर्रम जैसे अवसरों पर हिन्दू समाज के लोग सेवइयाँ खाते या ताज़िया रखते दिखाई देते हैं।
अनेक हिन्दू रमज़ान माह में रोज़ा रखते देखे जा सकते हैं। देश की अनेक पीरों व फ़क़ीरों की दरगाहें ऐसी हैं, जहाँ की पूरी प्रबंधन समिति हिन्दुओं या सिख समाज के लोगों की हैं।
देश की रामलीलाओं में कई जगह मुसलिम कलाकार राम लीला के पात्र बनते हैं तो कई जगह तो पूरी राम लीला आयोजन समिति ही मुसलमानों की है।
विभिन्नता में एकता की यह भारतीय मिसाल भले ही पूरे विश्व के सैलानियों को अभिभूत करती व उन्हें भारत भ्रमण के लिए प्रेरित करती हों, दुर्भाग्यवश हमारे ही देश में पनपने वाली एक संकीर्ण तथा विभाजनकारी विचारधारा है, जिसे इस प्रकार की समरसता फूटी आँख नहीं भाती।
बावजूद इसके कि इस समय देश के विकास के लिए तथा तरह-तरह की गंभीर चुनौतियों से निपटने के लिए देश को हर प्रकार से एकजुट रहने की ज़रूरत है, ऐसी संकीर्ण तथा विभाजनकारी सोच रखने वाली शक्तियाँ समाज को किसी भी आधार पर विभाजित करने का बहाना ढूंढती रहती हैं।
इन शक्तियों को किसी मुसलमान का गरबा में भाग लेना ठीक नहीं लगता, तो कभी ये ताक़तें किसी मुसलमान के राम लीला का पात्र बनने पर आपत्ति जताने लगती हैं। इन्हें दरगाहों में हिन्दू और मंदिरों में मुसलमान आता जाता नहीं भाता।
यही वह लोग भी हैं जो धर्म स्थानों व आराध्यों के साथ-साथ भाषाओं को भी हिन्दू व मुसलमान में बाँटने की कोशिश में लगे रहते हैं।
कहाँ तो इसी विचारधारा के लोग दारा शिकोह की इसी लिए प्रशंसा करते हैं कि वह संस्कृत का बहुत बड़ा विद्वान था तो कहाँ अब इन्हीं संकीर्ण दृष्टि के लोगों को एक मुसलमान शिक्षक द्वारा संस्कृत विषय पढ़ाए जाने पर आपत्ति है।
पिछले दिनों बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के साहित्य विभाग में फिरोज़ ख़ान नामक एक मुसलमान की नियुक्ति सहायक प्रोफ़ेसर के रूप में की गयी। विश्वविद्यालय के संकीर्ण मानसिकता रखने वाले चंद छात्रों द्वारा इस नियुक्ति का विरोध किया गया। ऐसे छात्रों का मत है कि किसी भी ग़ैर हिंदू व्यक्ति को इस विभाग में नियुक्त नहीं किया जा सकता।
इन छात्रों ने संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के साहित्य विभाग में मुसलिम असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति के विरोध में विश्वविद्यालय कैंपस में कई दिनों तक धरना दिया। ये छात्र इस नियुक्ति को निरस्त किए जाने की माँग कर रहे थे। ये लोग सीधे तौर पर भाषा को धर्म से जोड़ने की कोशिश कर रहे थे।
विभाजनकारी सोच रखने वाले इन लोगों को पश्चिम बंगाल के उन मदरसों का जायज़ा लेना चाहिए, जहाँ बड़ी संख्या में हिन्दू शिक्षक भी हैं और मदरसे से विद्या अर्जित करने वालों में हिन्दू बच्चे भी हैं।
इस प्रकार से किया जाने वाला शिक्षा व भाषा का प्रचार-प्रसार बच्चों में न केवल बहुआयामी शिक्षा ग्रहण करने की सलाहियत पैदा करता है, बल्कि इससे सामाजिक व भाषायी समरसता भी बढ़ती है। क्या ऐसा ज्ञानार्जन करना ग़लत है? क्या इसके कारण बढ़ने वाला सामाजिक सद्भाव अनुचित है? न जाने किन संस्कारों में ऐसे संकीर्ण सोच रखने वालों की परवरिश हुई है।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग में फ़िरोज़ ख़ान की नियुक्ति के विरोध के बाद राजस्थान की राजधानी जयपुर का 'राजकीय ठाकुर हरि सिंह शेखावत मंडावा प्रवेशिका संस्कृत विद्यालय' नाम का एक ऐसा संस्कृत विद्यालय चर्चा में आ गया है, जहाँ संस्कृत की शिक्षा ग्रहण करने वाले 80 प्रतिशत से भी अधिक छात्र मुसलमान हैं। इन मुसलिम बच्चों को संस्कृत भाषा से इतना लगाव है कि यह आपस में बातचीत भी संस्कृत भाषा में ही करते हुए देखे जा सकते हैं। ये बच्चे संस्कृत भाषा में ही अपना भविष्य एक अध्यापक अथवा अन्य संस्कृत पेशेवर स्कॉलर के रूप में देखते हैं।
ये बच्चे किसी भी भाषा को धर्म के चश्मे से नहीं देखना चाहते। इस विद्यालय में कुल 277 विद्यार्थियों में 222 मुसलिम हैं। जयपुर का यह स्कूल संस्कृत और मुसलिमों के बीच किसी विवाद के लिए नहीं, बल्कि विशेष रुचि व संबंधों के लिए अपनी अनूठी पहचान रखने के लिए जाना जाता है। इन छात्रों के अभिभावकों का मानना है कि भाषाओं को लेकर मन में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। वे इसी उद्देश्य से अपने बच्चों को सभी भाषाओं का ज्ञान दिला रहे हैं। इस संस्कृत विद्यालय में पढ़ाने वाले हिन्दू शिक्षक भी कभी धर्म या जाति को लेकर किसी तरह के बंधन को नहीं मानते। यही कारण है कि विद्यार्थियों के साथ उनके अभिभावक भी शिक्षकों के प्रति पूरे सम्मान व और विनम्रता से पेश आते हैं।
जो लोग उर्दू को मुसलमानों की भाषा और संस्कृत को हिन्दुओं या ब्राह्मणों के स्वामित्व वाली भाषा समझने या समझाने की कोशिश करते हैं, दरअसल वे इन भाषाओं के प्रति अपनी संकीर्ण व वैमनस्यकारी सोच रखते हैं। वे मुंशी प्रेमचंद की सर्वभाषायी सोच के भी विरोधी हैं।
ये वही लोग हैं जो नदियों, पर्वतों, जानवरों व सब्ज़ियों, यहाँ तक कि रंगों तक को हिन्दू-मुसलमान में बाँटने की कोशिश करते हैं। दरअसल ये संकीर्ण विभाजनकारी लोग भाषा के मर्म को ही नहीं समझते,अन्यथा भाषा पर धर्म का रंग कभी न चढ़ने देते। मानसिक रूप से विक्षिप्त ऐसे लोगों को समाज से बहिष्कृत किया जाना चाहिए तथा इनकी गिनती समाज को तोड़ने वाले विघटनकारी तत्वों में की जानी चाहिए।
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