आज के हिंदुस्तान का मुसलमान धर्मांध, कट्टर, सांप्रदायिक, देशद्रोही और यहाँ तक कि आतंकवादी तक क़रार दिया जाता है। किसी मुसलमान को पाकिस्तानी कहना गोया मुहावरा बन गया है। नौजवानों की आपसी बातचीत से लेकर ऑटोवालों की चिल्ल-पों में भी आपको सार्वजनिक रूप से यह शब्द सुनाई दे सकता है। यह शब्द मुसलमानों के लिए गाली बन गया है। गाली देने का मतलब ही होता है, सामने वाले के साहस को तोड़ देना। उसे अपमानित करके कमजोर साबित करना। इसलिए जो लोग इस पाकिस्तानी शब्द का प्रयोग करते हैं, वे यह कभी परवाह नहीं करते कि सुनने वाले के मन पर इसका क्या असर होता है। इससे कितनी तकलीफ हो सकती है, यह बताना भी मुश्किल है।

किसी समाज और राज्य की प्रगतिशीलता की पहचान स्त्री के प्रति उसके व्यवहार से होती है। मुगल साम्राज्य इस मामले में दुनिया और अपने समय से बहुत आगे खड़ा हुआ था। लेकिन फिर भी इतिहास के पन्नों को पढ़ने के बजाय आज की पीढ़ी वाट्सऐप पर उन संदेशों को पढ़ती है, जिनमें गढ़ा हुआ इतिहास है। ऐसा इतिहास जो आपको पड़ोसी के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करता है...
प्रसिद्ध इस्लामी स्कॉलर और जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली में प्रोफेसर रहे अख्तरुल वासे से मैं अपने शोध के सिलसिले में एक साक्षात्कार करने गया। साक्षात्कार के बाद अनौपचारिक बातचीत में उनके बेटे ने कहा- “भैया आप इस दर्द को नहीं समझ सकते।” उसने एक वाकया साझा करते हुए बताया कि कॉलेज के कुछ दोस्त एक बार कपड़े खरीदने के लिए मेरे साथ आए। लेकिन जैसे ही वे जामिया की एक गली में दाखिल हुए तो बोले, “अबे तुम यहाँ कहाँ पाकिस्तान में ले आए हो!” यह बताते हुए वह फफककर रो पड़ा। यह घटनाक्रम 2005 का है, जब मैं जेएनयू से प्रो. मैनेजर पाण्डेय के निर्देशन में एम. फिल. कर रहा था। तब से लेकर अब तक फिजाओं में कितना जहर घुल चुका है। चारों तरफ़ नफ़रत का गुबार है। अब कोई वासे या अब्दुल्लाह खान रोता भी नहीं, बस एक बेबस निगाह डालकर चल देता है!
लेखक सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।