आज के हिंदुस्तान का मुसलमान धर्मांध, कट्टर, सांप्रदायिक, देशद्रोही और यहाँ तक कि आतंकवादी तक क़रार दिया जाता है। किसी मुसलमान को पाकिस्तानी कहना गोया मुहावरा बन गया है। नौजवानों की आपसी बातचीत से लेकर ऑटोवालों की चिल्ल-पों में भी आपको सार्वजनिक रूप से यह शब्द सुनाई दे सकता है। यह शब्द मुसलमानों के लिए गाली बन गया है। गाली देने का मतलब ही होता है, सामने वाले के साहस को तोड़ देना। उसे अपमानित करके कमजोर साबित करना। इसलिए जो लोग इस पाकिस्तानी शब्द का प्रयोग करते हैं, वे यह कभी परवाह नहीं करते कि सुनने वाले के मन पर इसका क्या असर होता है। इससे कितनी तकलीफ हो सकती है, यह बताना भी मुश्किल है।
प्रसिद्ध इस्लामी स्कॉलर और जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली में प्रोफेसर रहे अख्तरुल वासे से मैं अपने शोध के सिलसिले में एक साक्षात्कार करने गया। साक्षात्कार के बाद अनौपचारिक बातचीत में उनके बेटे ने कहा- “भैया आप इस दर्द को नहीं समझ सकते।” उसने एक वाकया साझा करते हुए बताया कि कॉलेज के कुछ दोस्त एक बार कपड़े खरीदने के लिए मेरे साथ आए। लेकिन जैसे ही वे जामिया की एक गली में दाखिल हुए तो बोले, “अबे तुम यहाँ कहाँ पाकिस्तान में ले आए हो!” यह बताते हुए वह फफककर रो पड़ा। यह घटनाक्रम 2005 का है, जब मैं जेएनयू से प्रो. मैनेजर पाण्डेय के निर्देशन में एम. फिल. कर रहा था। तब से लेकर अब तक फिजाओं में कितना जहर घुल चुका है। चारों तरफ़ नफ़रत का गुबार है। अब कोई वासे या अब्दुल्लाह खान रोता भी नहीं, बस एक बेबस निगाह डालकर चल देता है!
नफ़रत और घृणा की राजनीति की वजह से समाज घुटन और घृणा के लबादे में तब्दील हो चुका है। दक्षिणपंथियों ने भारत के मुसलमानों को स्थाई तौर पर देशद्रोही और गद्दार में तब्दील कर दिया है। सामान्य लोगों में बहुतेरे मानते भी हैं, बिना यह सोचे कि उनके जानने वालों में कोई मुसलमान ऐसा है क्या? सब्जी बेचने वाला सद्दीक या कपड़े सिलने वाले सलीम मियां या कॉलेज के प्रोफ़ेसर अख्तर या व्यापारी रोशन सेठ अथवा पड़ोसी हकीम साहब ने ऐसा कौन सा गुनाह किया है कि सारे मुसलमान गद्दार और देशद्रोही हो गए!
दरअसल, जब वे मुसलमानों को देशद्रोही समझ रहे होते हैं, तब उन्हें टेलीविजन स्क्रीन पर चिल्लाने वाले एंकर, प्रवक्ता, कोई मौलवी, कोई बाबा या किसी रिटायर फौजी की चीखती हुई आवाज़ें और नफ़रत से विद्रूप होते चेहरे नज़र आते हैं। उन्हें दिखाए जाते हैं सीरिया के आईएसआईएस के लड़ाके, पाकिस्तान में बैठा माफिया डॉन दाउद इब्राहीम या मारा गया ओसामा बिन लादेन या भारत पर हमला करने वाला पाकिस्तान का जेहादी आतंकी कसाब। इन्हीं चेहरों से वे भारत के मुसलमानों को देख रहे होते हैं।
कोरोना बदहाली के बीच ऑक्सीजन सिलेंडर पहुँचाते हुए मुसलमान। उन्हें नहीं दिखते अपने कंधों पर अर्थी ले जाते, शव का अंतिम संस्कार करते नौजवान; जिनमें कोई राशिद है, कोई बन्ने और कोई असीम खान। जब वे ऐसा सोच और कह रहे होते हैं, तब उन्हें आज़ादी के सबेरे में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के काफिले की अगुवाई करते हुए शहनाई की मंगल तान छेड़ते बिस्मिल्लाह खान क्यों नहीं याद आते?
वे क्यों याद नहीं करते मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को, भगत सिंह के साथी असफाक को, सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज के कैप्टन शाहनवाज खान को अथवा 1965 के युद्ध में दर्जनों पाकिस्तान के टैंकों को नेस्तानाबूद करके वीरगति को प्राप्त होने वाले अब्दुल हमीद को।
अभी-अभी संगीत की दुनिया के स्टार ए. आर. रहमान, फिल्म स्टार शाहरुख, आमिर या गीतकार जावेद अख्तर, नायिका शबाना आज़मी, लेखिका नासिरा शर्मा, क्रिकेट के हीरो सैयद किरमानी और जहीर खान उन्हें क्यों नहीं याद आते?
अगर मैं पूछूँ कि उन्हें अकबर, शाहजहाँ, नूरजहाँ, शेरशाह, बेगम हजरत महल या टीपू सुल्तान क्यों याद नहीं आते? हो सकता है कि उन्होंने इतिहास पढ़ा ही ना हो। लेकिन दक्षिणपंथी प्रयोगशाला में तपा इतिहास उन्हें वाट्सऐप यूनिवर्सिटी पर ज़रूर मिल जाता है। इस इतिहास से उन्हें बाबर और औरंगजेब की बर्बरता ज़रूर पता होती है। दरअसल, इतिहास और वर्तमान दोनों का ऐसा अक्स हिंदुओं की आँखों के सामने से गुजारा जा रहा है जिस पर वे बिना सोचे- समझे यक़ीन कर रहे हैं।
मुसलमानों को बाबर की औलादें बताने और मानने वाले नहीं जानते कि बाबर की ख़ूबियाँ क्या हैं। एक हमलावर और शासक होते हुए भी वह बेहतरीन कलाकार और लेखक है। वह अपनी आत्मकथा बाबरनामा लिखता है। स्टीफन डेल ने अपनी किताब 'द गार्डेन ऑफ़ द एट पैराडाइज' में बाबर के गद्य को दिव्य कहा है। बाबर ने हुमायूँ की लेखन शैली को भी दुरुस्त किया था। हुमायूँ की कमी बताते हुए बाबर कहता है कि 'आपके लेखन में विषय खो जाता है।' इतना ही नहीं, हिन्दुस्तान के अजीम शायर गालिब की फारसी शायरी की शैली पहले बाबर के यहाँ मिलती है। एक शे'र देखिए-
"नौ रोज व नौ बहार व दिलबरे खुशअस्त
बाबर बह ऐश कोश के आलम दोबारा नीस्त।"
यानी नौ रोज है, नई बहार है, शराब है, सुंदर प्रेमी है। बाबर बस ऐश और मस्ती में लगा रह कि दुनिया दोबारा नहीं है।
औरंगजेब की भी बहुत धर्मांध और कट्टर छवि बनाई गई है। 'उसने शरीयत लागू किया, मंदिर तोड़े, हिंदुओं का क़त्लेआम किया और धर्मांतरण कराया।' जबकि सच्चाई यह है कि औरंगजेब एक शातिर बादशाह है। उसने धर्म का इस्तेमाल अपनी सत्ता बचाने और मौलवियों को खुश करने के लिए किया। युद्ध के अलावा हिन्दुओं के क़त्लेआम और धर्मांतरण के कोई प्रमाण नहीं मिलते। औरंगजेब के बारे में हम सब कुछ स्वीकार कर लेते हैं, बिना यह सवाल किए कि मथुरा के मंदिरों को ज़मीन और दान देने वाला औरंगजेब काशी का शिव मंदिर क्यों तोड़ता है? आख़िर क्या वजह रही होगी, इस्लाम से मुहब्बत और हिन्दुओं से नफ़रत? अगर यह सही है तो उसके शासन में सबसे ज़्यादा हिंदू मनसबदार क्यों हैं? लेकिन जब आपको कोई प्रचारक या गुरु जी इतिहास बता रहे होते हैं तो आप राजाओं को भी धर्म के चश्मे से देखना सीख जाते हैं। तब सारे मुगल बादशाह खलनायक हो जाते हैं, दरअसल, राजा स्वेच्छाचारी और सत्ताभोगी होता है, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। उसके गुण, कर्म और उपलब्धियों से उसका इतिहास बनता है, उसके धर्म और मजहब से नहीं।
बहरहाल, आज के दक्षिणपंथी नफ़रत के ज्वार में हम मुगल शासन की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ भूल रहे हैं। मुगलिया सल्तनत दुनिया की सबसे ताक़तवर और संपत्तिशाली सत्ता थी। लेकिन इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण इसके सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू हैं। केवल एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा। जब दुनिया में औरत की कोई आवाज़ नहीं थी, उसका कोई वजूद नहीं था, तब हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम इतिहास लिख रही थी। जब भारत के ही हिंदू समाज में और पश्चिम की दुनिया में स्त्री को पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं था, उस समय मुगल सल्तनत की जहाँआरा और रोशनआरा जैसी शहजादियाँ हिन्दुस्तान की बृजभाषा में कविताएँ रच रही थीं। नूरजहां और उसकी माँ अस्मत बेगम द्वारा की गई इत्र की खोज को भला कैसे भुलाया जा सकता है।
मुख्तसर, किसी समाज और राज्य की प्रगतिशीलता की पहचान स्त्री के प्रति उसके व्यवहार से होती है। मुगल साम्राज्य इस मामले में दुनिया और अपने समय से बहुत आगे खड़ा हुआ था। लेकिन फिर भी इतिहास के पन्नों को पढ़ने के बजाय आज की पीढ़ी वाट्सऐप पर उन संदेशों को पढ़ती है, जिनमें गढ़ा हुआ इतिहास है। ऐसा इतिहास जो आपको पड़ोसी के ख़िलाफ़ नफ़रत पैदा करता है, जिससे आप सिर्फ़ इंसान को धर्म के चश्मे से देखते हैं। आपको किसी मौलवी की दाढ़ी में ओसामा बिन लादेन दिखता है, या किसी मुस्लिम नौजवान में कसाब। आख़िर हम कैसा भारत बनाने जा रहे हैं? आने वाली पीढ़ियों को क्या हम धार्मिक पाखंड, सांप्रदायिक राजनीति और नफ़रत की विरासत सौंपने जा रहे हैं?
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