ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अख़बार गार्डियन को ब्रिटेन के राष्ट्रीय अभिलेखागार से एक दस्तावेज़ हाथ लगा जिसमें साफ़ लिखा है कि काले आप्रवासियों या विदेशियों को महारानी एलिज़ाबेथ के यहाँ केवल सेवकों के रूप में तो रखा जाता था, दफ़्तरी कर्मचारियों के रूप में नहीं। मार्च 1968 का यह दस्तावेज़ गृहमंत्री जेम्स कैलहन के नस्ली भेदभाव संबन्ध विधेयक के लिए बनी कैबिनेट समिति की रिपोर्ट है। ब्रिटेन में उन दिनों लेबर पार्टी की सरकार थी और प्रधानमंत्री हैरल्ड विल्सन नस्ली भेदभाव को सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ रोज़गार और सेवा क्षेत्र से भी हटाना चाहते थे। विधेयक पर बहस कराने के लिए महारानी की स्वीकृति लेनी ज़रूरी थी और महारानी ने अपने कर्मचारियों की नियुक्ति को नए क़ानून के दायरे से बाहर रखने का प्रबंध होने के बाद स्वीकृति दी थी।
क्या ब्रिटेन में आज भी नस्ली भेदभाव होता है?
- विचार
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- 10 Jun, 2021

लोगों के निजी अनुभवों की बात करें तो जो स्थिति आज से तीस-चालीस साल पहले थी उसमें तो बेशक सुधार हुआ है। लेकिन सितंबर 2001 के हमलों के बाद से मुसलमानों के ख़िलाफ़ और 2016 के ब्रैग्ज़िट जनमत संग्रह के बाद से आप्रवासियों और ख़ासकर दक्षिण एशियाई आप्रवासियों के ख़िलाफ़ दबी हुई नस्लवाद की भावनाएँ फिर से जागी हैं।
इस रहस्योद्घाटन ने बोरिस जॉन्सन सरकार के इन दावों पर फिर से सवालिया निशान लगा दिए हैं कि ब्रिटेन में अब संस्थागत रूप में नस्ली भेदभाव नहीं बचा है। पिछले मार्च में ही नस्ली और जातीय विषमता आयोग ने अपनी रिपोर्ट जारी करते हुए दावा किया था कि जातीय अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे भेदभाव में अब ब्रितानी व्यवस्था का कोई हाथ नहीं है। आयोग का कहना था कि जातीय अल्पसंख्यकों के बच्चे स्कूली शिक्षा में श्वेत बहुसंख्यकों के बराबर हैं। लगभग बराबरी के अवसर मिल रहे हैं और वेतन का अंतर भी घटकर मात्र 2.3% ही रह गया है। रुकावटें और विषमताएँ हैं। लेकिन उनकी वजहें नस्लवाद के बजाय पारिवारिक प्रभाव, आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि, धर्म और संस्कृति हैं।