देश में पिछले कुछ सालों के दौरान तमाम संवैधानिक पदों में सबसे ज़्यादा बदनाम अगर कोई हुआ है तो वह है राज्यपाल का पद। वैसे यही सबसे ज़्यादा बेमतलब का पद भी है। इसीलिए भारी-भरकम ख़र्च वाले इस संवैधानिक पद को लंबे समय से सफेद हाथी माना जाता रहा है और इसकी उपयोगिता तथा प्रासंगिकता पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। सवाल उठाने का मौक़ा और कोई नहीं बल्कि कई राज्यपाल ख़ुद ही अपनी उटपटाँग हरकतों से उपलब्ध कराते हैं। ऐसे ज़्यादातर राज्यपाल उन राज्यों के होते हैं, जहाँ केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दल की सरकारें होती हैं।

पश्चिम बंगाल में कुछ महीनों बाद विधानसभा का चुनाव होना है। इस युद्ध में बीजेपी के सेनापति गृहमंत्री अमित शाह हैं, इसलिए राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने भी ख़ुद को इस युद्ध में झोंक रखा है। क्या राज्यपालों का यही काम है?
राज्यपाल का चयन और उनकी नियुक्ति केंद्र सरकार करती है। राज्यपाल के पद पर नियुक्ति पाने वालों में ज़्यादातर वे लोग होते हैं, जो केंद्र में सत्ताधारी दल से जुड़े होते हैं। ऐसे लोग राजभवनों में जाकर अपने सूबे की विपक्ष शासित सरकार को परेशान या अस्थिर करना अपनी अहम ज़िम्मेदारी समझते हैं। मानो ऐसा करना उनकी 'नौकरी की अनिवार्य सेवा शर्तों’ में शामिल हो।