देश में पिछले कुछ सालों के दौरान तमाम संवैधानिक पदों में सबसे ज़्यादा बदनाम अगर कोई हुआ है तो वह है राज्यपाल का पद। वैसे यही सबसे ज़्यादा बेमतलब का पद भी है। इसीलिए भारी-भरकम ख़र्च वाले इस संवैधानिक पद को लंबे समय से सफेद हाथी माना जाता रहा है और इसकी उपयोगिता तथा प्रासंगिकता पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। सवाल उठाने का मौक़ा और कोई नहीं बल्कि कई राज्यपाल ख़ुद ही अपनी उटपटाँग हरकतों से उपलब्ध कराते हैं। ऐसे ज़्यादातर राज्यपाल उन राज्यों के होते हैं, जहाँ केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दल की सरकारें होती हैं।
राज्यपाल का चयन और उनकी नियुक्ति केंद्र सरकार करती है। राज्यपाल के पद पर नियुक्ति पाने वालों में ज़्यादातर वे लोग होते हैं, जो केंद्र में सत्ताधारी दल से जुड़े होते हैं। ऐसे लोग राजभवनों में जाकर अपने सूबे की विपक्ष शासित सरकार को परेशान या अस्थिर करना अपनी अहम ज़िम्मेदारी समझते हैं। मानो ऐसा करना उनकी 'नौकरी की अनिवार्य सेवा शर्तों’ में शामिल हो।
विपक्ष शासित राज्य सरकारों को राज्यपालों द्वारा परेशान या अस्थिर करने की हरकतें कांग्रेस के ज़माने में भी होती थीं। मगर पिछले पाँच-छह वर्षों के दौरान तो ऐसा होना सामान्य बात हो गई है। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड, दिल्ली आदि राज्यों में तो वहाँ की सरकारों के ख़िलाफ़ राज्यपालों ने एक तरह से आंदोलन ही छेड़ रखा है। ऐसा लग रहा है मानो इन राज्यों के राजभवन पार्टी कार्यालय के रूप में तब्दील हो गए हैं और राज्यपाल नेता प्रतिपक्ष की भूमिका धारण किए हुए हैं।
केंद्र सरकार की राजनीतिक भाव-भंगिमा को समझते हुए राज्य सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल देने वाले राज्यपालों में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ का नाम इस समय विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वह पिछले साल राज्यपाल बनने के बाद से ही राज्य सरकार से टकराव के हालात पैदा करते रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से तो वह सांकेतिक लहजे में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू करने की धमकी भी दे रहे हैं।
दरअसल, पश्चिम बंगाल में कुछ महीनों बाद विधानसभा का चुनाव होना है। किसी तरह बिहार जीत लेने के बाद बीजेपी का इरादा पश्चिम बंगाल में अपनी सरकार बनाना है।
चूँकि पश्चिम बंगाल के इस युद्ध में बीजेपी के सेनापति गृहमंत्री अमित शाह हैं, इसलिए राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने भी वफादार सूबेदार की तरह ख़ुद को इस युद्ध में झोंक रखा है।
कोई भी राज्यपाल अगर अपने सूबे की सरकार के किसी कामकाज में कोई ग़लती पाते हैं तो इस बारे में उन्हें सरकार का ध्यान आकर्षित करने का पूरा अधिकार है। सरकार को किसी भी मुद्दे पर अपने सुझाव या निर्देश देना भी राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आता है। लेकिन पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ऐसा नहीं करते।
पूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीप धनखड़ राज्यपाल के रूप में भी आमतौर पर मीडिया के माध्यम से ही सरकार से संवाद करते हैं। वह कभी राज्य की क़ानून-व्यवस्था को लेकर सार्वजनिक रूप से सरकार की खिंचाई करते हैं तो कभी राज्य सरकार की नीतियों की कमियाँ गिनाते रहते हैं। वह विभिन्न सरकारी महकमों के शीर्ष अफसरों को भी सीधे निर्देश देते रहते हैं। कुछ दिनों पहले तो राज्यपाल ने यहाँ तक कह दिया था कि पश्चिम बंगाल 'पुलिस शासित राज्य’ बन गया है। उन्होंने राज्य के शीर्षस्थ पुलिस अधिकारी पर तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता की तरह आरोप लगाते हुए राज्य सरकार के ख़िलाफ़ 'सख़्त’ कार्रवाई करने की चेतावनी भी दे डाली थी।
धनखड़ से पहले उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ बीजेपी नेता केसरीनाथ त्रिपाठी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे। उनका भी पूरा कार्यकाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से टकराव में ही बीता था।
भगत सिंह कोश्यारी
अपने पद की गरिमा और संवैधानिक मर्यादा लांघने को लेकर अक्सर चर्चा में रहने वाले महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने भी हाल ही में एक बार फिर अपनी राजनीतिक पक्षधरता का प्रदर्शन किया। उन्होंने एक संगीन आपराधिक मामले में गिरफ्तार किए गए रिपब्लिक टीवी चैनल के मालिक अर्णब गोस्वामी के मामले में अनावश्यक दखलंदाजी की। उन्होंने जेल में बंद गोस्वामी की सुरक्षा और सेहत को लेकर राज्य सरकार के समक्ष अपनी चिंता जताई और सरकार से कहा है कि वह गोस्वामी से उनके परिवार को मिलने की इजाज़त दे।
अर्णब केस
सीधे-सीधे एक गंभीर आपराधिक मामले के आरोपी के बचाव में कोश्यारी का इस तरह सामने आना न सिर्फ़ अपने अधिकार क्षेत्र को लांघना है बल्कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद की मर्यादा के ख़िलाफ़ भी बेहद अशोभनीय आचरण है। अर्णब न्यायिक हिरासत में थे और उनकी जमानत का मामला अदालत में विचाराधीन था, इसलिए राज्यपाल का यह हस्तक्षेप सीधे-सीधे न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने यानी अदालत पर दबाव बनाने की कोशिश थी। इसीलिए अगर सुप्रीम कोर्ट ने स्थापित न्यायिक प्रक्रिया और परंपरा को परे रखकर अर्णब की ज़मानत मंजूर की है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं।
जेल में बंद किसी भी आरोपी या सजायाफ्ता कैदी की सुरक्षा और सेहत का ध्यान रखना बेशक राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी में आता है, लेकिन दो व्यक्तियों की आत्महत्या के लिए ज़िम्मेदार बताए जा रहे एक व्यक्ति विशेष के बचाव में राज्यपाल कोश्यारी का उतरना बताता है कि एक व्यक्ति और एक राजनेता के तौर पर उनके सरोकार किस तरह के हैं।
कुछ ही दिनों पहले मुंबई में फ़िल्मी अदाकारा कंगना रनौत के बंगले में अवैध निर्माण को प्रशासन द्वारा तोड़े जाने पर भी कोश्यारी इसी तरह कंगना के बचाव में खुलकर आए थे। पूरा देश देख रहा था कि वह अभिनेत्री किस तरह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हुए मुंबई की तुलना पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर से कर रही थी, लेकिन कोश्यारी राजभवन में उसे बुलाकर राज्य सरकार के ख़िलाफ़ उसकी शिकायत सुन रहे थे।
कोई भी राज्यपाल राजभवन में नागरिकों की समस्याएँ सुने और उनके बारे में राज्य सरकार को क़ानून और संविधान के दायरे में उचित सुझाव या आदेश दे, इस पर किसी को एतराज नहीं हो सकता। लेकिन सवाल है कि महाराष्ट्र के राज्यपाल की करुणा या कृपा सिर्फ़ आपराधिक मामलों से जुड़ी उन हस्तियों पर ही क्यों बरसती है जो बीजेपी के समर्थक होते हैं? सवाल यह भी है कि जितनी सहजता से अर्णब गोस्वामी के परिवारजनों या कंगना रनौत राजभवन पहुँच गए, क्या महाराष्ट्र का कोई आम नागरिक भी उतनी ही आसानी से राजभवन जाकर राज्यपाल से मिल सकता है?
महाराष्ट्र की ही जेल में 80 साल के कवि वरवर राव, 83 साल के स्टेन स्वामी आदि कई प्रतिष्ठित मानवाधिकार कार्यकर्ता, लेखक, वकील और प्रोफ़ेसर भी लंबे समय से बंद हैं। इन सभी को राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) ने बिना किसी ठोस सबूतों के नक्सली संगठनों का हमदर्द बता कर गिरफ्तार किया था। दो साल से ज़्यादा का वक़्त हो गया है लेकिन एनआईए आज तक किसी के भी ख़िलाफ़ आरोप पत्र दाखिल नहीं कर पाई है।
जेल में बंद वरवर राव, स्टेन स्वामी तो गंभीर रूप से बीमार भी हैं, लेकिन उन्हें आज तक ज़मानत नहीं दी गई है। याद नहीं आता कि राज्यपाल कोश्यारी ने इन लोगों के स्वास्थ्य को लेकर कभी चिंता जताई हो।
उद्धव ठाकरे सरकार और कोश्यारी
दरअसल, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की अगुवाई में चल रही महाविकास अघाडी की सरकार शुरू से ही राज्यपाल के निशाने पर रही है। अव्वल तो उन्होंने केंद्र सरकार और बीजेपी के प्रति अपनी वफादारी का परिचय देते हुए शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन के बहुमत को नज़रअंदाज़ कर बीजेपी के बहुमत के दावे का परीक्षण किए बगैर अचानक रात के अंधेरे में ही देवेंद्र फडणवीस को शपथ दिला दी थी। यह और बात है कि फडणवीस को महज़ दो दिन बाद ही इस्तीफ़ा देना पड़ा था और राज्यपाल को न चाहते हुए भी महाविकास अघाडी के नेता उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलानी पड़ी थी।
बाद में कोश्यारी ने पूरी कोशिश इस बात के लिए की कि उद्धव ठाकरे छह महीने की निर्धारित समय सीमा में विधान मंडल का सदस्य न बनने पाएँ। वह मामला भी आख़िरकार तब ही निबटा जब ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दखल देने की गुहार लगाई। प्रधानमंत्री के दखल से ही वहाँ विधान परिषद के चुनाव हुए और ठाकरे विधान मंडल के सदस्य बन पाए।
यही नहीं, जब कोरोना संक्रमण के ख़तरे को नज़रअंदाज़ करते हुए महाराष्ट्र के बीजेपी नेताओं ने राज्य के बंद मंदिरों को खुलवाने के लिए आंदोलन शुरू किया तो राज्यपाल ने ख़ुद को उस मुहिम से जोड़ते हुए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को एक पत्र लिखा। उन्होंने अपने पत्र में मंदिर न खोलने के लिए ठाकरे पर बेहद अशोभनीय तंज करते हुए कहा, 'पहले तो आप हिंदुत्ववादी थे, अब क्या सेक्युलर हो गए हैं?’
विपक्षी दलों की सरकारें
राजस्थान, पंजाब, और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की और केरल में वाम मोर्चा की सरकारें हैं। इन राज्यों में भी राज्यपाल और सरकार के बीच आए दिन टकराव के हालात बनते रहते हैं। हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए विवादास्पद कृषि क़ानूनों पर विचार करने के लिए राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने अपने यहाँ राज्य विधानसभा का विशेष सत्र बुलाना चाहा तो इसके लिए पहले तो वहाँ के राज्यपालों ने मंजूरी नहीं दी और और कई तरह के सवाल उठाए। बाद में केंद्र सरकार के निर्देश पर विधानसभा सत्र बुलाने की मंजूरी दी भी तो विधानसभा में राज्य सरकार द्वारा केंद्रीय कृषि संबंधी केंद्रीय क़ानूनों के विरुद्ध पारित विधेयकों और प्रस्तावों को मंजूरी देने से इंकार कर दिया।
इससे पहले केरल में भी सरकार और राज्यपाल के बीच ऐसा ही टकराव पैदा हुआ था। केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए संशोधित नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ जब केरल विधानसभा में प्रस्ताव पारित हुआ तो राज्यपाल आरिफ मोहम्मद ख़ान ने उसे पता नहीं किस आधार असंवैधानिक बता दिया। बाद में जब राज्य सरकार ने इस क़ानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तो राज्यपाल ने इस पर भी एतराज जताया और कहा कि सरकार ने ऐसा करने के पहले उनसे अनुमति नहीं ली। यही नहीं, राज्यपाल इस मुद्दे को लेकर मीडिया में भी गए। मीडिया के सामने भी वह राज्यपाल से ज़्यादा केंद्र सरकार के प्रवक्ता बनकर पेश आए और नागरिकता संशोधन क़ानून पर राज्य सरकार के एतराज को खारिज करते रहे।
पिछले छह सालों के दौरान राज्यों में चुनाव के बाद विपक्ष को सरकार बनाने से रोकने, विपक्षी दलों की सरकारों को विधायकों की खरीद-फरोख्त के ज़रिए गिराने या गिराने की कोशिश करने और वहाँ बीजेपी की सरकार बनाने के कारनामे भी ख़ूब हुए हैं। इन सभी खेलों में राज्यपालों ने अहम भूमिका निभाई है। इस सिलसिले में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का ज़िक्र तो ऊपर हो ही चुका है। उनके अलावा कर्नाटक में वजुभाई वाला, राजस्थान में कलराज मिश्र, जम्मू-कश्मीर में सतपाल मलिक, मध्य प्रदेश में लालजी टंडन (अब दिवंगत), मणिपुर में नज़मा हेपतुल्लाह और हाल ही में दिवंगत हुईं गोवा की पूर्व राज्यपाल मृदुला सिन्हा आदि के दलीय राजनीति से प्रेरित असंवैधानिक कारनामे भी जगजाहिर हैं।
विपक्षी दलों की सरकारों को परेशान करने वालों में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे महाराष्ट्र के वरिष्ठ बीजेपी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री राम नाईक का नाम भी उल्लेखनीय है। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद जब तक उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार रही, राज्यपाल राम नाईक ने एक तरह से नेता प्रतिपक्ष की भूमिका भी निभाई। वह किसी भी मसले पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से बात करने के बजाय सीधे मीडिया से ही बात करते या राज्य सरकार के ख़िलाफ़ बयान जारी करते थे।
राज्यपाल रहते हुए भी सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता की तरह काम करने वालों में उत्तर प्रदेश की मौजूदा राज्यपाल आनंदीबेन पटेल और एक साल पहले तक राजस्थान के राज्यपाल रहे कल्याण सिंह के नाम भी खास तौर पर उल्लेखनीय हैं। आनंदीबेन पटेल पाँच साल तक मध्य प्रदेश की राज्यपाल भी रही हैं। उनके कार्यकाल के दौरान जब तक राज्य में बीजेपी की सरकार रही, सबकुछ सामान्य रहा। लेकिन नवंबर 2018 में विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की सरकार बनते ही आनंदीबेन पटेल एक तरह से नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में आ गईं। उन्होंने गांवों के दौरे करना शुरू कर दिए। इन दौरों के दौरान वह वहाँ चलाई जा रही केंद्र सरकार की योजनाओं का जायजा लेतीं, स्थानीय अधिकारियों के साथ मीटिंग करतीं और लोगों से बात करती थीं। यहाँ तक तो ठीक, लेकिन वह यह सब करने के साथ ही लोगों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ मज़बूत करने की अपील करना भी नहीं भूलतीं। इसी तरह पद पर रहते हुए ही राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने तो 2019 में बाक़ायदा अपने बेटे का चुनाव प्रचार भी किया था, जो उत्तर प्रदेश में एटा निर्वाचन क्षेत्र से बीजेपी के उम्मीदवार थे।
राज्यपाल के पद पर रहते हुए अशोभनीय और विभाजनकारी राजनीतिक बयानबाजी करने वालों में मेघालय, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहे तथागत रॉय का नाम भी उल्लेखनीय है। पश्चिम बंगाल में बीजेपी के अध्यक्ष रहे तथागत रॉय ने राज्यपाल रहते हुए सार्वजनिक तौर पर महात्मा गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की तारीफ करने से लेकर मुसलमानों का मताधिकार छीन लेने जैसे कई बयान दिए। लेकिन उनका सबसे चौंकाने वाला बयान था कि भारत में हिंदू-मुसलिम समस्या का समाधान सिर्फ़ गृह युद्ध से ही निकल सकता है। हैरानी की बात है कि उनके इस बेहद आपत्तिजनक और भड़काऊ बयान का भी केंद्र सरकार और राष्ट्रपति ने संज्ञान नहीं लिया।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राज्यपाल पद के अवमूल्यन में कांग्रेस शासन के दौरान जो कमियाँ रह गई थीं, वह पिछले पांच-छह वर्षों के दौरान केंद्र सरकार के संरक्षण में तमाम राज्यपालों ने अपने कारनामों से पूरी कर दी हैं। राज्यपालों के अमर्यादित, असंवैधानिक और गरिमाहीन आचरण के जो रिकॉर्ड इस दौरान बने हैं, उनको अब शायद ही कोई तोड़ पाएगा।
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