सोच-सोचकर तकलीफ़ होती है, पर ऐसा हक़ीक़त में हो रहा है और हम उसे रोक नहीं पा रहे हैं। अपनी इस असहाय स्थिति का हमें अहसास भी नहीं होने दिया जा रहा है। वह यह कि क्या लोगों को ठीक से जानने के लिए अब उनका दुनिया से चले जाना ज़रूरी हो गया है? हम लोगों को, उनके काम के बारे में, उनके मानवीय गुणों के बारे में, जो कहीं दबे पड़े होंगे, उनके चले जाने के बाद ही क्यों जान पा रहे हैं?
कोरोना: महामारी का कहर, सरकारों की काहिली और अकेले पड़ते लोग
- विचार
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- 28 Sep, 2020

जो हुकूमतों में हैं क्या उन्हें डर ही नहीं लग रहा है कि उनकी आबादी की गिनती लगातार कम हो रही है और जो लोग अभी क़ायम हैं, मौत का ख़ौफ़ अब एक साये की तरह उनका भी हर जगह पीछा कर रहा है? पलक झपकते ही जगहें ख़ाली नज़र आने लगती हैं!
हमें संभल पाने का मौक़ा भी क्यों नहीं मिल रहा है? एक शोक से उबरते हैं कि दूसरा दस्तक देने लगता है! हो सकता है कि हम जो अभी क़ायम हैं, हमारे बारे में भी कल ऐसा ही हो।