बापू की हत्या के 74 साल पूरे होने और 75वें शहादत दिवस की पूर्व संध्या पर 29 जनवरी 2022 को दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने भाषण से सबको चौंका दिया था - “ये गर्मी जो अभी कैराना और मुजफ्फरनगर में कुछ जगह दिखाई दे रही है न, ये सब शांत हो जाएगी। मैं मई और जून की गर्मी में भी 'शिमला' बना देता हूं...।”
पांच दिन बाद ही 3 फरवरी 2020 को मेरठ की सभा से दिल्ली लौटते हुए पिलखुआ-छिजारसी टोल प्लाजा पर एएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी पर जानलेवा हमला हो गया। 6 डिग्री तापमान में उत्तर प्रदेश की सियासत गरम हो गयी। सर्दी में शिमला वाला तापमान मई-जून की गर्मी वाला तापमान बन गया।
तब गोड्से-आप्टे, अब सचिन-शुभम
गोड्से-आप्टे ने 30 जनवरी 1948 को सर्दी के मौसम में जिस तरह राजधानी दिल्ली और फिर देश का तापमान गरम कर दिया था, ठीक वैसी ही कोशिश सचिन-शुभम ने पिलखुआ-छिजारसी में कर दिखलायी। 1948 में भी 20 जनवरी को एक कोशिश विफल हुई थी, बापू बच गये थे।
पाठकों को यह शिकायत हो सकती है कि महात्मा गांधी से असदुद्दीन ओवैसी की तुलना क्यों की जा रही है। मगर, यह तुलना दो व्यक्तित्व की नहीं समान परिस्थितियों की है। यह बहस अलग है और इस पर यहां चर्चा करने की कोई जरूरत नहीं है।
किसने उकसाया, किसने बनाए पिस्तौलधारी ‘अंधभक्त’?
वह दिन भी 27 जनवरी 2020 था- दिल्ली में कड़कड़ाती ठंड थी। दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ा जा रहा था। केंद्रीय राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने रिठाला में बीजेपी प्रत्याशी मनीष चौधरी के लिए वोट मांगते हुए नारा लगाया था- “देश के गद्दारों को... गोली मारो (अपशब्द) को...”। दिल्ली का सियासी तापमान ही नहीं पूरे देश का पारा अचानक चढ़ गया था। मई-जून वाली गर्मी जैसा तापमान सियासत महसूस करने लगी थी।
27 जनवरी 2020 को रिठाला में ही केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी नफरती बयान दिया था- “कमल का बटन इतनी जोर से दबाना कि वोट कमल को पड़े और करंट शाहीन बाग में लगे।” दो केंद्रीय मंत्रियों के ये बयान उदाहरण हैं कि किस तरह देश में अराजकता फैलाने की कोशिश खुद सरकार में बैठे जिम्मेदार मंत्री ही कर रहे थे। जाहिर है असर भी होना था।
तीन दिन बाद 30 जनवरी 2020 को ही ‘गद्दारों’ को गोली मारने शाहीन बाग पहुंच गया था गोपाल शर्मा उर्फ रामभक्त गोपाल। गोलियां चलीं। पुलिस के सामने चलीं। उसे रोकने पहुंचा छात्र घायल भी हुआ। मगर, ‘गद्दारों’ ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। जवाब में कोई गोली नहीं चली। सांप्रदायिक सौहार्द को आंच तक नहीं आयी। लेकिन, यह तात्कालिक बात थी।
वास्तव में देश की फिजां में ज़हर घुलने लगा था। सांप्रदायिक सौहार्द पर हमले की घटनाएं आग़ाज लेने लगी थीं। 26 फरवरी 2020 को दिल्ली के मौजपुर इलाके में शाहरूख नाम के व्यक्ति ने जिस तरह से पुलिस पर पिस्तौल तानी, वह उदाहरण बना रहेगा।
2 साल बाद दोहराया गया शाहीन बाग गोलीकांड
दो साल बाद 3 फरवरी को पिलखुआ-छिजारसी चेक नाके पर शाहीन बाग कांड दोहराया गया है। इस बार निशाने पर सांसद असदुद्दीन ओवैसी हैं। जबकि, हमलावर शाहीनबाग कांड के अभियुक्त गोपाल शर्मा का अनुयायी है। तब हमलावर गोपाल शर्मा ‘रामभक्त’ कहलाने पर गर्व करने वाला था। अब हमले का अभियुक्त सचिन फेसबुक पर ‘देशभक्त सचिन हिंदू’ नाम से पेज चलाकर खुद को गौरवान्वित करने वाला युवक है। एक और अभियुक्त शुभम उसका साथी है।
पुलिस ने कहा है कि हमलावर युवक असदुद्दीन ओवैसी के कथित हिन्दू विरोधी बयानों से नाराज़ थे। यह बयान ओवैसी ने 2014-16 के दरम्यान दिया था। यूपी पुलिस के लिए कितना सहज है एक हमले के पीछे की वजह को खोज निकालना! महात्मा गांधी को गोली मारना भी कई लोग ऐसा ही कहकर सही ठहराते हैं कि नाथूराम गोडसे-आप्टे गांधी के भाषण से नाराज़ थे।
गॉड फादर के बगैर पैदा नहीं होते...
जो लोग गोडसे-आप्टे का समर्थन कर रहे हैं और गांधी की हत्या को जायज ठहरा रहे हैं, वही जमात क्या सचिन-शुभम पैदा नहीं कर रही है? तब हिन्दू महासभा, आरएसएस के लोग महात्मा गांधी के खिलाफ विषवमन कर रहे थे। आज भी वही भाषा, वही परंपरा को क्या थोपा नहीं जा रहा है? नफ़रत में गोली चलाते लोगों के गॉडफादर तब भी थे, आज भी हैं। गॉड फादर के बगैर क्या गोडसे-आप्टे पैदा हो सकते हैं? या फिर सचिन-शुभम् जन्म ले सकते हैं?अगर अनुराग ठाकुर पर कार्रवाई होती, अमित शाह पर एक्शन होता, योगी आदित्यनाथ पर कानून का शिकंजा कसा गया होता या इससे पहले शाहीन बाग के लोगों से हिन्दुओं की बहू-बेटियों की इज्जत को खतरे में बताने वाले बीजेपी नेता पर कार्रवाई की गयी होती तो आज स्थिति भिन्न हो सकती थी।
यह सिलसिला आगे भी बढ़ा। अंग्रेजी राज का कानून बदलने की मुहिम चलाने वाले बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय की बुलायी सभा में एक समुदाय विशेष को काटे जाने का खुला ऐलान हो या फिर हरिद्वार से लेकर रायपुर और बरेली तक की धर्मसंसद या मजहबी मजलिस हो- यह उपरोक्त घटनाओं की ही निरंकुश कड़ी है।
मुजफ्फरनगर दंगे के जख्म को कुरेदा जा रहा है। बीजेपी के नेता और मुख्यधारा कही जाने वाली मीडिया खुलेआम कह रहे हैं कि जाट भूल नहीं सकते मुजफ्फरनगर का दंगा। ऐसे लोगों से पूछा जाए कि याद रखकर क्या करें जाट? क्या बदला लें? और, क्या इसीलिए असदुद्दीन ओवैसी पर हमले की घटना नहीं हो रही है?
असदुद्दीन ओवैसी ने लोकसभा में बहुत सही पूछा है कि कौन लोग हैं इस घटना के पीछे? हमलावर तो युवा हैं, गरम खून हैं जो किन्हीं को ठंडा कर देने के लिए इस्तेमाल हो रहे हैं। असल दोषी वे हैं जो भीषण गर्मी में भी ‘शिमला’ बना देने और गरम खून को ठंडा कर देने का दावा कर रहे हैं। क्या हमारा कानून इस सिलसले को रोकने में सफल होगा?
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