सितंबर महीने में जब हम देश की विकास दर के 24 फीसदी तक गोता लगा जाने पर आंसू बहा रहे थे, तब इस बात पर संतोष भी व्यक्त किया जा रहा था कि कृषि की हालत उतनी खराब नहीं है। देश की बड़ी आबादी जिस कारोबार से जुड़ी है उसकी विकास दर भले ही कम हो लेकिन संकट काल में भी वह सकारात्मक बनी हुई है, यह राहत की बात थी।

किसानों का कहना है कि मंडी समिति के जरिये संचालित अनाज मंडियां उनके लिए यह आश्वासन थीं कि उन्हें अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाएगा। मंडियों की बाध्यता खत्म होने से अब यह आश्वासन भी खत्म हो जाएगा। किसानों के मुताबिक़, मंडियों के बाहर जो लोग उनसे उनकी उपज खरीदेंगे वे बाजार भाव के हिसाब से खरीदेंगे और यह उन्हें परेशानी में डाल सकता है।
लेकिन दो हफ्तों के अंदर ही देश भर के किसान सड़कों पर उतर आए और संकट सिर्फ सड़कों पर ही नहीं दिखा, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन भी इसकी जद में आ गया। 1997 से लगातार गठबंधन के साथ कदम मिला रहा अकाली दल इसी मुद्दे पर उससे छिटक गया।
केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते ही यह भी स्पष्ट हो गया कि केंद्र सरकार ने कोरोना काल के बाद कृषि सुधार के नाम पर जो तीन अध्यादेश जारी किए थे वे राजनीतिक रूप से उस पर भारी पड़ सकते हैं, भले ही सरकार पर फिलहाल कोई संकट न हो। संसद में ये तीनों अध्यादेश विधेयक के रूप में पेश किए गए और क़ानून भी बन गए।