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अन्नदाता कह कर बरगलाया जाता है किसानों को?

‘वो अन्नदाता हैं’ कह कर राजनीति हमेशा अपने दायित्व से बचने की ढाल के रूप में इसे प्रयोग करने से चूकती नहीं। खेती किसानी और किसान साल दर साल शोषित होने का दंश झेल रहा है। किसान उन्नति से महरूम हर हाल में संघर्ष करने की विवशता से अभिशप्त अपनी दशा का आकलन करने की क्षमता खोने की कगार पर पहुँच चुका है लेकिन सरकारों की नीतियां बेपरवाह जस की तस अपनी निरंतरता बनाए हुए है। खेती किसानी के लाभ किसको मिल रहे हैं, यह पहेली भी पहले से ज्यादा उलझ गयी है। विषम परिस्थितियों में किये गए परिश्रम और उत्पादन का उचित मूल्य निर्धारण करने में कोई नीति सफल साबित हुई नहीं। सरकारें ऐसी व्यवस्थाओं का निर्माण करने का लक्ष्य किन ताकतों के दबाव में पूरा नहीं कर रही, ये प्रश्न भी उतना ही गंभीर है जितना गंभीर सवाल किसानों की दशा को सुधारने का है जहां हर दिन किसान आत्महत्या करने को मजबूर है। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार भी ग्रामीण स्तर तक ठोस रूप से स्थापित करने की प्राथमिकताएँ देश की नीतियों में स्थाई स्थान नहीं बना पायीं।

पिछले डेढ़ दशक से किसानी खेती के जिन मुद्दों को आधार बना कर सत्ता में आयी वर्तमान राजनीतिक पार्टी भाजपा दस साल बीत जाने के बाद भी मुद्दों को अब तक पूरी तरह से हल करना तो दूर बल्कि विपरीत नीतियों को थोपने के प्रयास में लगी हुई है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण देश पहले किसान आंदोलन के रूप में देख चुका है। हताशा में किसान फिर से अपनी मांगों के लिए लामबद्ध होने को बाध्य हरियाणा प्रदेश की सीमाओं पर डटे हुए हैं। देश में 18वीं लोकसभा चुनाव के बाद तीसरी बार बनी भाजपा सरकार की नीतियों में किसानों के प्रति गंभीरता का सबूत देश की वित्तमंत्री द्वारा हाल ही में की गई बजट पूर्व समीक्षा पुनर्मूल्यांकन बैठक से पता चलता है जिसमें देश में क्रियाशील किसान संगठनों और कृषि क्षेत्र के अन्य समूहों के प्रतिनिधियों को शामिल नहीं किया गया। कृषि क्षेत्र को देश के वार्षिक बजट के द्वारा कितना मज़बूत किया जाएगा, इस पर सवाल उठना ही कृषि के प्रति दृष्टिकोण को परिभाषित करता है। कृषि क्षेत्र में कार्य करने वाले स्वतंत्र विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों के सुझाव वार्षिक बजट व नीतियों में कितनी जगह बना पाएंगे, ये सवाल भी सरकार की कार्यशैली से उठता है।

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1 फरवरी 2024 को देश की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किये गए अंतरिम बजट में कृषि क्षेत्र के लिए निर्धारित लक्ष्यों में किसान और किसानी को मजबूत करने के संकल्प क्या आकार लेंगे, ये पूर्ण बजट में स्पष्ट हो जाएगा। देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र के महत्व को भाजपा सरकार स्वीकार करती है, इसका प्रचार भी निरन्तर दस सालों से किया जा रहा है, लेकिन धरातल की वास्तविकताएँ बिलकुल भिन्न बनी हुई हैं जिसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही घोषित फ़सलों के समर्थन मूल्यों पर कृषि क्षेत्र में विभिन्न किसान यूनियन, कृषि अर्थशास्त्री व विपक्षी राजनीतिक दलों की हुई प्रतिक्रियाओं में मिलता है। फसल बीमा योजना के लाभ, खाद उर्वरक की आपूर्ति, उच्च श्रेणी के बीज की उपलब्धता किसानों को समयानुसार नहीं मिलने व अन्य कारकों के समाधान नहीं होने से क्षुब्ध किसान वर्ग ने भारत में आम चुनाव में कई प्रदेशों में जता दिया है कि सरकार की नीतियां कितनी कारगर साबित हुई हैं।

भारत में 55% जनसंख्या कृषि पर आधारित है जो उनकी जीविका का प्रमुख स्रोत है। लेकिन इससे बड़ी आबादी 5 किलो मुफ्त राशन की मोहताज बन कर रहने को मजबूर भी है जिसे वर्तमान सरकार विशेष उपलब्धि के तौर पर प्रस्तुत करने में गर्व से गुरेज नहीं करती। देश के बजट में कृषि और सहायक क्षेत्रों के लिए कुल बजट का 1.9% अंश ही लगभग 2023 -2024 तक निर्धारित हो पाया था, जबकि समूचे क्षेत्र को मजबूत करने के लिए और अधिक प्रावधानों की आवश्यकता बनी हुई है। 

जिन चुनौतियों से कृषि क्षेत्र जूझ रहा है, उनमें सबसे बड़ी फ़सलों के उचित दाम निर्धारित करना है जिसके लिए पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा विभिन्न समीक्षा समिति बना कर शोध के आधार पर आवश्यक उपाय निर्धारित किये गए जिन्हें अभी तक लागू नहीं किया गया। बड़ी संख्या में उपजाऊ भूमि वाले देशों में से एक होने के बावजूद देश में अन्न उत्पादन की क्षमताएँ पूरी तरह से विकसित नहीं हो पायीं जिससे छोटे और सीमान्त किसानों को समुचित लाभ से वंचित रहना पड़ता है। ग्रामीण श्रम के सार्थक उपयोग से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मदद करने की महात्मा गांधी ग्रामीण श्रम कानून योजना के अंर्तगत निर्धारण को भी पिछले कुछ वर्षों से लगातार सीमित किया गया है। इसका सीधा प्रभाव भी ग्रामीण सामाजिक जीवन पर पड़ रहा है। 
2023 -24 के बजटीय प्रावधानों में उनतीस हजार चार सौ करोड़ की कटौती केवल मनरेगा के लिए आवंटन में की गयी है।
2023-24 के बजट में कृषि क्षेत्र के विभिन्न मदों में की गयी कटौती- फ़ूड सब्सिडी 89844 करोड़ (31.3%), खाद उर्वरक सब्सिडी 50119 करोड़ (22.3 %), मनरेगा 29844 करोड़ (32. 9 %) है। ये सब मिला कर क़रीब 169704 करोड़ को ढांचागत संरचनाओं- रोड, रेल, ग्रामीण आवास पेय जल आदि को स्थापित करने के नाम पर आवंटन किया गया गया है। इसका लाभ छोटे, मझोले, सीमान्त किसानों-श्रमिकों से ज्यादा पूंजीपति वर्ग को मिलने के आसार साफ़ हैं। नीति निर्धारण में पूंजीपति केंद्रित दृष्टिकोण के चलते किसानों की चिंताएं कम होती दीख नहीं रही हैं। कृषि क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों का बड़ा स्रोत है जिस पर निगाह पूंजीपति वर्ग की बनी हुयी है। लेकिन सरकार कृषि और कृषक समाज के उत्थान, संरक्षण और आर्थिकी को सुदृढ़ करने में सफलता से कोसों दूर जाने किसकी छाँव में बैठी है। कृषि मंत्रालय पर एक रिपोर्ट में खुलासे के अनुसार पिछले पांच वर्षों में कृषि मंत्रालय आवंटित बजट को पूरी तरह उपयोग न कर पाने की स्थिति में लगभग एक लाख करोड़ सरकार को वापस लौटा चुका है। फसलों के समर्थन मूल्यों की बढ़ोतरी पर दशक दर दशक अगर तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो कोई उत्साहवर्धक नतीजे वर्तमान सरकार बढ़ती महंगाई के संतुलन को साधते हुए पेश करने में भी विफल ही साबित हुई है।  
विचार से और

किसानों की आत्महत्या को रोकने के गंभीर प्रयास करने में सरकार की नीतियों को किस श्रेणी में रखा जाये, ये भी सामान्य समझ से परे ही है। आँकड़ों के अनुसार 2014 से 2024 तक लगभग एक लाख किसान कर्ज और फ़सलों पर कुदरती मार के कारण जान गँवा चुके हैं। देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की प्राथमिकताएं औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में क्या स्थान रखती है, इस सवाल को अर्थशास्त्री और विशेषज्ञ कभी स्पष्ट करना नहीं चाहते। देश में नेतृत्व का दृष्टिकोण अन्न में आत्मनिर्भरता से बदल कर जब व्यापार पर केंद्रित हो तो संकट के हल केवल प्रचारों में निहित होते हैं।  

वर्तमान सरकार के कार्यकाल में कृषि बजट में जारी कटौतियों के प्रभाव ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकुचित होने के रूप में भी धरातल पर दिखाई देने लगे हैं। किसान का कर्ज दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा है जबकि देश के बड़े औद्योगिक इकाइयों और घरानों के 16 लाख करोड़ के कर्ज सरकार ने माफ़ करने में कोई कोताही नहीं की। मानने, कहने और क्रियान्वित करने के अंतर में कृषि क्षेत्र और ग्रामीण किसान समाज निरंतर पिसता जा रहा है। नीतियों पर आधारित पूर्ण परिवर्तन की उम्मीद लगभग नगण्य ही है। अपने समाधान के लिए किसान किस राह को अपनाये, ये सवाल भी फसलों के साथ-साथ जमीन से उगने लगे हैं। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, प्रधानमंत्री सिंचाई योजना, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना, ग्रामीण रोजगार योजना के होते हुए किसान किससे अपने संकट का दुखड़ा रोए। अन्नदाता का यह संकट केवल अकेले का ही नहीं, बल्कि समाज के सभी वर्गों को आने वाले समय में प्रभावित करेगा।

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जगदीप सिंधु
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