‘वो अन्नदाता हैं’ कह कर राजनीति हमेशा अपने दायित्व से बचने की ढाल के रूप में इसे प्रयोग करने से चूकती नहीं। खेती किसानी और किसान साल दर साल शोषित होने का दंश झेल रहा है। किसान उन्नति से महरूम हर हाल में संघर्ष करने की विवशता से अभिशप्त अपनी दशा का आकलन करने की क्षमता खोने की कगार पर पहुँच चुका है लेकिन सरकारों की नीतियां बेपरवाह जस की तस अपनी निरंतरता बनाए हुए है। खेती किसानी के लाभ किसको मिल रहे हैं, यह पहेली भी पहले से ज्यादा उलझ गयी है। विषम परिस्थितियों में किये गए परिश्रम और उत्पादन का उचित मूल्य निर्धारण करने में कोई नीति सफल साबित हुई नहीं। सरकारें ऐसी व्यवस्थाओं का निर्माण करने का लक्ष्य किन ताकतों के दबाव में पूरा नहीं कर रही, ये प्रश्न भी उतना ही गंभीर है जितना गंभीर सवाल किसानों की दशा को सुधारने का है जहां हर दिन किसान आत्महत्या करने को मजबूर है। स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार भी ग्रामीण स्तर तक ठोस रूप से स्थापित करने की प्राथमिकताएँ देश की नीतियों में स्थाई स्थान नहीं बना पायीं।