जो किसान आंदोलन 25 जनवरी तक भारतीय लोकतंत्र की शान बढ़ा रहा था, वही अब दुख और शर्म का कारण बन गया है। इस आंदोलन ने हमारे राजनीतिक नेताओं के बौद्धिक और नैतिक दिवालिएपन को उजागर कर दिया है। 26 जनवरी को जो हुआ, सो हुआ लेकिन उसके बाद सरकार को किसान नेताओं से दुबारा संवाद शुरु करना चाहिए था लेकिन उसने किसान नेताओं के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करनी शुरु कर दी।
सरकार यह भूल गई कि कई प्रमुख किसान नेताओं ने सरकारी नेताओं से भी ज्यादा कड़ी भर्त्सना उन उपद्रवियों की की है, जिन्होंने लाल किले पर एक सांप्रदायिक झंडा फहराया और पुलिसवालों के साथ मारपीट की।
सरकार को अपनी बदइंतजामी बिल्कुल नजर नहीं आई। उसके गुप्तचर विभाग और पुलिस को उसने ठीक से मुस्तैद तक नहीं किया, वरना उपद्रवियों की क्या मजाल थी कि वे दिल्ली में घुस आते और लाल किले पर चढ़ जाते! अब किसान नेताओं के पासपोर्ट जब्त करने में कौनसी तुक है?
पिटाई के डर से हमने पूंजीपतियों और नेताओं को विदेश भागते हुए तो देखा है लेकिन किसानों के बारे में तो ऐसी बात कभी सुनी भी नहीं है। विरोधी दलों ने भी गजब की मसखरी की है। उन्होंने किसानों के समर्थन में संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार कर दिया है। वे सत्ता में होते तो वे तो शायद भिंडरावाला-कांड कर देते।
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अब किसान आंदोलन हमारे हताश राजनीतिक नेताओं के लिए आशा की किरण बनकर उभरेगा। उन्हें बयान देने और फोटो छपाने के मौके मिलेंगे। वे चाहेंगे कि बड़े पैमाने पर हिंसा हो, लोग मरें और सरकार बदनाम हो जाए।
अभी ताजा खबर यह है कि किसानों के धरना-स्थलों पर किसानों और स्थानीय ग्रामीणों के बीच जबर्दस्त झड़पें हुई हैं। स्थानीय ग्रामीण अपने रास्ते और काम-काज रुकने पर क्रुद्ध हैं। उन्हें किसानों के खिलाफ कौन उकसा रहा है? सरकार की जिम्मेदारी है कि वह आगे आकर किसान नेताओं से दुबारा बातचीत शुरु करे।
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