जो किसान आंदोलन 25 जनवरी तक भारतीय लोकतंत्र की शान बढ़ा रहा था, वही अब दुख और शर्म का कारण बन गया है। इस आंदोलन ने हमारे राजनीतिक नेताओं के बौद्धिक और नैतिक दिवालिएपन को उजागर कर दिया है। 26 जनवरी को जो हुआ, सो हुआ लेकिन उसके बाद सरकार को किसान नेताओं से दुबारा संवाद शुरु करना चाहिए था लेकिन उसने किसान नेताओं के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करनी शुरु कर दी।
कानूनी कार्रवाई के बजाए किसानों से बातचीत शुरू करे सरकार
- विचार
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- 30 Jan, 2021

पिटाई के डर से हमने पूंजीपतियों और नेताओं को विदेश भागते हुए तो देखा है लेकिन किसानों के बारे में तो ऐसी बात कभी सुनी भी नहीं है। विरोधी दलों ने भी गजब की मसखरी की है। उन्होंने किसानों के समर्थन में संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार कर दिया है। वे सत्ता में होते तो वे तो शायद भिंडरावाला-कांड कर देते।
सरकार यह भूल गई कि कई प्रमुख किसान नेताओं ने सरकारी नेताओं से भी ज्यादा कड़ी भर्त्सना उन उपद्रवियों की की है, जिन्होंने लाल किले पर एक सांप्रदायिक झंडा फहराया और पुलिसवालों के साथ मारपीट की।