प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब इंदिरा गांधी के ‘आपातकाल’ पर प्रहार करते हैं तो डर लगने लगता है और चार तरह की प्रतिक्रियाएँ होती हैं। पहली तो यह कि जब हर कोई कह रहा है कि इस समय देश एक अघोषित आपातकाल से गुजर रहा है तो ऐसी आवाज़ें मोदी जी के कानों तक भी पहुँच ही रहीं होंगी! इस तरह के आरोप लगााने वाले ‘उस’ आपातकाल और ‘इस’आपातकाल के बीच तुलना में कई उदाहरण भी देते हैं।
‘इस’ और ‘उस’ आपातकाल के बीच का असली सच क्या है?
- विचार
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- 3 Jul, 2021

नरेंद्र मोदी को आपातकाल के ‘काले दिनों’ और उस दौरान ‘लोकतांत्रिक मूल्यों’ को कुचले जाने की बात इसलिए नहीं करनी चाहिए कि कम से कम आज की परिस्थिति में ‘भक्तों’ के अलावा सामान्य नागरिक इसे गम्भीरता से नहीं लेंगे।
इन उदाहरणों में संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण से लेकर ‘देशद्रोह’ के झूठे आरोपों के तहत निरपराध लोगों की गिरफ़्तारियां और मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाएँ शामिल होती हैं।
ऐसे में लगने लगता है कि इस सबके बावजूद अगर प्रधानमंत्री 1975 के आपातकाल की आलोचना करते हैं तो उन्हें निश्चित ही ज़बरदस्त साहस जुटाना पड़ता होगा। प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा था कि आपातकाल के काले दिनों को इसलिए नहीं भुलाया जा सकता है कि उसके ज़रिए ‘कांग्रेस ने हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचला है।’