फीका त्यौहार
दुर्गा पूजा पर कोलकाता के कलाकार किसी नए विचार या घटना और नयी कल्पना को मूर्त रूप देने के लिए देश ही नहीं, विदेशों में भी मशहूर रहे हैं। इस बार पूजा में वह भव्यता, रौनक और गहमागहमी नहीं है जो पहले होती थी। महामारी को फैलने से रोकने के लिए उच्च न्यायालय ने पंडालों में लोगों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, हालांकि पूजा समितियों के विरोध के कारण कुछ ढील दे दी गयी है और एक पंडाल में एक बार 45 से 60 लोग तक जा सकते हैं।कल्पनाशीलता की कमी नहीं
इसके बावजूद पूजा -पंडालों की कल्पनाशीलता में कोई कमी नहीं आयी है। प्रवासी मजदूरों की पीड़ा और हिम्मत के अलावा कोविड महामारी के दृश्यों में बहुत विविधता है: कहीं दुर्गा असुरों की बजाय कांटेदार कोरोना वायरस का वध कर रही है तो कहीं जूट से विशाल आकार का वायरस बनाया गया है, जिसमें कांटो की जगह लाउडस्पीकर लगे हैं। एक और पंडाल ट्रक के आकार का है जिस पर कुछ प्रवासी मजदूर चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।कुछ पंडालों में दिन-रात बीमारों की सेवा में लगे, नीले रंग के किट पहने डॉक्टरों-नर्सों को ‘कोरोना योद्धाओं’ के रूप में चित्रित किया गया है। एक पंडाल में दुर्गा के रूप में एक महिला डॉक्टर कोरोना रूपी राक्षस पर भाले की नोक गड़ाए हुए है। दुर्गा को समसामयिक अर्थ देने की यह कोशिश बहुत प्रभावशाली है।
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हट कर है प्रतिमा
बारिशा क्लब की मजदूर दुर्गा की मूल कल्पना करने वाले रिंतू दास और उसे गढने वाले पल्लब भौमिक जाने-माने कला निर्देशक हैं। रिंतू दास को यह विचार टेलिविज़न पर प्रवासी मजदूरों को पैदल और भूखे-प्यासे चलते हुए देख कर आया था। वे कहते हैं,“
‘बच्चों को साथ लेकर मीलों पैदल चलने वाली महिलायें मुझे दुर्गा की प्रतीक लगीं। मुझे लगा, इन मजदूरों की पूजा करनी चाहिए। बारिशा क्लब के पास बजट नहीं था, साधन बहुत कम थे। एक स्थानीय पार्षद ने लॉकडाउन के दौरान अपने इलाके में चावल बांटे थे। मैंने उनसे कहा कि मुझे चावलों के थैले दे दीजिये, मैं उनसे पंडाल बना लूँगा।’
रिंतू दास, कलाकार
दस्तावेज़
बारिशा क्लब की दुर्गा देखने में मिट्टी की बनी हुई लगती है, लेकिन दरअसल फ़ाइबर ग्लास से बनी है। उसके शिल्पी पल्लब भौमिक कहते हैं, ‘मिटटी का काम जल्दी ख़राब हो जाता है, इसलिए महँगा होने के बावजूद फ़ाइबर ग्लास ही लिया। वैसे भी यह दुर्गा विसर्जन के लिए नहीं है। पूजा और विसर्जन के लिए दूसरी प्रतिमा है। यह तो शिल्प के रूप में एक दौर का दस्तावेज़ है, जिसे सहेज कर संग्रहालय में रखा जाएगा।’दुर्गा पूजा के ज़्यादातर पंडाल किसी सामयिक राजनीतिक या सामजिक घटना से जुड़े होते हैं और उन पर टिप्पणी भी करते हैं। वह एक तरह की सार्वजनिक कला (‘पब्लिक आर्ट’) है, जो वर्षों से बनती रही है और फिर नष्ट कर दी जाती रही है।
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