भारतीय नीति शास्त्र में राजा को पिता का दर्जा दिया गया है। प्रजा संतान सरीखी है। प्रजा को दुख से मुक्ति दिलाना और सुख में समृद्ध करना, राजा के कर्तव्यों में अंतर्निहित है। लेकिन राजा की नज़र अगर फिर जाये तो पुराने जमाने में क़यामत आ जाती थी। प्रजा को ये नीतिगत सलाह भी दी जाती थी कि वो राजा के कोप से बचे।

पिछले कुछ सालों में डर और ख़ौफ़ का माहौल पैदा किया गया है। एक टारगेट तय किया जाता है, फिर उसके इर्द-गिर्द एक कथानक गढ़ा जाता है और अचानक ये साबित कर दिया जाता है कि वो देशद्रोही है, राजद्रोही है। फिर उसके लिए अपनी रक्षा करना असंभव हो जाता है। रोहित वेमुला हो या कन्हैया कुमार या फिर उमर ख़ालिद। शाहीन बाग का आंदोलन हो या फिर शर्जील इमाम। तब्लीग़ी जमात हो या फिर किसान आंदोलन, सबको एक ही तराजू पर तोल दिया जाता है।
बग़ावत करना गुनाह था
इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब राजा के इशारे मात्र से सिर धड़ से अलग कर दिया जाता था और प्रजा चूँ भी नहीं कर पाती थी। राजा के ख़िलाफ़ बग़ावत और विद्रोह की एक ही सजा थी- मौत। राजा अपने प्रतिद्वंद्वियों को भी नहीं बख्शा करते थे। ऐसी मान्यता है कि बादशाह औरंगज़ेब ने अपने भाई दारा शिकोह का सिर कलम कर उसे पूरे शहर में घुमवाया था।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।