जब भी हिंदू-मुसलिम दंगे होते हैं तब सबसे पीड़ादायक होते हैं विदेश में रहने वाले मित्रों और रिश्तेदारों के संदेश। जब पाकिस्तान के हमारे रिश्तेदार हमसे पूछते हैं- भैया, आप सब लोग सुरक्षित हो- तब इससे ज़्यादा तकलीफ़देह बात और कुछ नहीं हो सकती।

चारों तरफ़ बढ़ता हुआ अंधकार बहुत तकलीफदेह है। लेकिन हम सबको अपनी-अपनी आस्था को अपने-अपने तरीक़े से लेकर आगे बढ़ना होगा। अपने घरों में, अपने पड़ोस में और अपने देश में। क्या ऐसे वक़्त में अतीत की बात करना बेमानी है? दस साल की उम्र में मैंने कैफी आज़मी का वह गीत गाया था- मैं हिंदुस्तान में हूँ, नयी जन्नत बनाएँगे।
ऐसे मौक़ों पर मशहूर फ़िल्मकार बर्गमैन की फ़िल्मों की याद हो आती है जब वह दुस्वप्न को पर्दे पर साकार करते हैं- जब रिश्तेदारों के चेहरे एक कोलाज की शक्ल में चीख रहे होते हैं।
इस पीड़ा को समझने के लिए किसी मनोविश्लेषक फ़्रॉयड की ज़रूरत नहीं है। 1980 के दशक तक पाकिस्तान से आने वाले मेरे चचेरे भाई-बहनों को हिंदुस्तानी ज़िंदगी के ‘रंग’ बहुत ही लुभावने लगते थे। उनकी अपनी ज़िंदगी मज़हब के खाँचों में कसी हुई थी। हालाँकि वे अमीर थे। एक बार पाकिस्तान में हमारे रिश्तेदारों से मिलकर हमारे भाई शन्ने ने वहाँ की ज़िंदगी को बहुत ही ख़ूबसूरत अंदाज़ में बयाँ किया था- ‘अच्छी ही जगह है पर कुछ ज़्यादा ही मुसलमान रहते हैं।’
सईद नक़वी वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं। उन्होंने भारत और विदेशों में विश्व के नेताओं और व्यक्तित्वों का साक्षात्कार किया है।