पिछले कुछ सालों से देश में दलित-मुस्लिम एकता का शोर मचा हुआ है। यह कोई बात नहीं है। आज़ादी के पहले मुस्लिम लीग ने भी कुछ ऐसा ही नारा दिया था। इस नारे के पीछे यह बात बताई जाती है कि दलित और मुस्लिम दोनों पीड़ित और वंचित हैं इसलिए दोनों को साथ मिलकर काम करना चाहिए। अगर थोड़ा ध्यान से देखा जाए तो ये दलित-मुस्लिम एकता न होकर हिन्दू दलित और शासक वर्गीय उच्च अशराफ मुस्लिम की एकता का राग है जिसमें अन्य पिछड़े हिन्दू और पसमांदा (मुस्लिम धर्मावलंबी पिछड़े, दलित, आदिवासी) का कोई हिस्सा नज़र नहीं आता है। इस तरह की एकता के पीछे अशराफ की राजनीतिक महत्वाकांक्षा प्रतीत होती है।
दलित-मुस्लिम एकता का मिथक
- विचार
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- 19 Jun, 2021

पिछले कुछ सालों से देश में दलित-मुस्लिम एकता का शोर मचा हुआ है। यह कोई बात नहीं है। आज़ादी के पहले मुस्लिम लीग ने भी कुछ ऐसा ही नारा दिया था। इस नारे के पीछे की सचाई क्या है?
अशराफ एक तरफ़ तो दलितों के दिल में यह बात बैठाने में कामयाब होता है कि इससे उसका आन्दोलन तेज़ होगा और माँगों में मज़बूती आएगी और दलित-मुस्लिम एकता मुसलमानों से ज़्यादा दलितों की सत्ता के लिए ज़रूरी है और मुस्लिम सत्ता प्राप्ति के बाद उनके पीछे रहेगा। दूसरी ओर पसमांदा को धर्म और धार्मिक एकता के नाम पर यह झांसा देता है कि जब दलितों की मदद होगी तो हर जगह से अल्पसंख्यक होने के बाद भी मुसलमान आसानी से जीत दर्ज कर लेगा। और इस समय पसमांदा के उत्थान से ज़्यादा ज़रूरी काम कौम को बचाना है।