पिछले कुछ सालों से देश में दलित-मुस्लिम एकता का शोर मचा हुआ है। यह कोई बात नहीं है। आज़ादी के पहले मुस्लिम लीग ने भी कुछ ऐसा ही नारा दिया था। इस नारे के पीछे यह बात बताई जाती है कि दलित और मुस्लिम दोनों पीड़ित और वंचित हैं इसलिए दोनों को साथ मिलकर काम करना चाहिए। अगर थोड़ा ध्यान से देखा जाए तो ये दलित-मुस्लिम एकता न होकर हिन्दू दलित और शासक वर्गीय उच्च अशराफ मुस्लिम की एकता का राग है जिसमें अन्य पिछड़े हिन्दू और पसमांदा (मुस्लिम धर्मावलंबी पिछड़े, दलित, आदिवासी) का कोई हिस्सा नज़र नहीं आता है। इस तरह की एकता के पीछे अशराफ की राजनीतिक महत्वाकांक्षा प्रतीत होती है।