भारतीय समाज आदिकाल से ही वर्ण व्यवस्था द्वारा नियंत्रित रहा है। ऐसा माना जाता है कि जो वर्ण व्यवस्था प्रारंभ में कर्म पर आधारित थी, कालान्तर में जाति में परिवर्तित हो गई। वर्ण ने जाति का रूप कैसे धारण कर लिया, यह विचारणीय प्रश्न है।
दलित लेखन : इतिहास को देखने की एक नई दृष्टि
- विचार
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- 26 Jun, 2021

हमारे लेखकों, साहित्यकारों ने दलित समाज के कष्टों, अपमान और संघर्षों को अपनी लेखनी के माध्यम से पूरे विश्व के सामने रखा। दलति साहित्य के बारे में बता रहे हैं शैलेंद्र चौहान।
वर्ण व्यवस्था में गुण व कर्म के आधार पर वर्ण परिवर्तन का प्रावधान था, किन्तु जाति के बंधन ने उसे एक ही वर्ण या वर्ग में रहने को मजबूर कर दिया। अब जन्म से ही व्यक्ति जाति के नाम से पहचाना जाने लगा। उसके व्यवसाय को भी जाति से जोड़ दिया गया। जाति व्यक्ति से हमेशा के लिए चिपक गई और उसी जाति के आधार पर उसे सवर्ण या शूद्र, उच्च या निम्न माना जाने लगा। शूद्रों को अस्पृश्य और अछूत माना जाने लगा।
इतना ही नहीं उन्हें वेदों के अध्ययन, पठन - पाठन, यज्ञ आदि करने से वंचित कर दिया गया। उच्च वर्ग ने समाज में अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिए बड़ी चालाकी यह की कि ज्ञान व शिक्षा के अधिकार को उनसे (निम्न वर्ग से) छीन लिया और उन्हें अज्ञान के अंधकार में झोंक दिया। इससे वे आज तक जूझ रहे हैं और उबर नहीं पा रहे हैं।