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प्रतीकात्मक तसवीर

बिहार के साहित्य में क्यों ग़ायब होता जा रहा है दलित आंदोलन!

बिहार के दलित आंदोलन में हीरा डोम की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण एवं सराहनीय है। वह आज भी उतनी ही मज़बूती लिए हुए है। हीरा डोम ने दलितों की पीड़ा एवं संवेदना को (अपनी कविता) ‘अछूत की शिकायत’ से अभिव्यक्ति दी। भोजपुरी में लिखी यह कविता ‘सरस्वती’ पत्रिका के 1914 के अंक में प्रकाशित हुई थी। इस कविता में उस समय जो दलितों की पीड़ा थी, समाज में भेदभाव था, दलितों को लेकर जो अमानवीय व्यवहार था उसे सशक्त अभिव्यक्ति दी है।

इस कविता से हीरा डोम ने सरकार और भगवान को घेरने की बहुत सार्थक कोशिश की थी। साथ ही, समाज को भी कठघरे में लाकर खड़ा किया था। हीरा डोम ने दलितों के साथ ग़ैरबराबरी के व्यवहार को इतनी मज़बूती से उठाया था कि उसके लिखे शब्द आज भी नितांत प्रासंगिक हैं। वे दलित आंदोलन से जुड़े लोगों के समक्ष सवाल भी खड़े करते हैं। सरकार बदली, व्यवस्थाएँ बदलीं, लोग बदले, समाज और देश बदला लेकिन समाज के अंदर ग़ैरबराबरी का दंश नहीं मिटा। दलितों की पीड़ा आज भी चौतरफा घट रही घटनाओं में साफ़ झलकती है। दलितों के साथ बलात्कार, उत्पीड़न आदि जुल्म जारी हैं। 

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कहने को तो सरकार/व्यवस्था और समाज की मुख्यधारा से दलितों को जोड़ने के लिए महादलित आयोग बना दिया गया है लेकिन, दलित की पीड़ा जस की तस बनी हुई है। इतिहास में दर्ज है कि विगत में बाबा साहेब आम्बेडकर के आंदोलन को रोकने का प्रयास हुआ। 1952 में पटना के गांधी मैदान में डॉक्टर भीम राव आम्बेडकर सभा को संबोधित करने आये थे, तब इस सभा में कुछ तथाकथित राजनीतिक दलों से जुड़े दलित नेताओं ने बखेड़ा खड़ा कर दिया था। सभा के दौरान बाबा साहेब पर पत्थर तक फेंके गए थे। 

बिहार में दलित अंदोलन को पीछे धकेलने की यह महत्वपूर्ण घटना थी। यह राजनीति यहीं नहीं रुकी, बल्कि जारी रही। राजनीतिक पार्टियों पर आरोप लगता रहा कि दलितों का इस्तेमाल हर दल ने वोट बैंक के तौर पर किया। हालाँकि बिहार की सत्ता पर दलित मुख्यमंत्री भी आसीन हुए, देश-राज्य की सत्ता में बिहार से कई दलित राजनेता शिखर पर पहुँचे, लेकिन दलित भागीदारी से कोई कारगर प्रयास नहीं हुआ।

एक दौर था जब बिहार के ग़ैर दलित साहित्यकारों ने दलित संवेदना को उठाते हुए कई रचनात्मक कार्य किए थे और समाज को सोचने के लिए विवश किया था। इस सन्दर्भ में चर्चित कथाकार मधुकर सिंह की कहानी ‘दुश्मन’ का विशेष स्थान है। यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस दौर में थी। 

मधुकर सिंह लगातार दलितों-पिछड़ों को केंद्र बनाकर रचनाकर्म करते रहे। मधुकर सिंह के बाद मिथलेश्वर, राजेन्द्र प्रसाद, प्रेम कुमार मणि, रामधारी सिंह दिवाकर, कर्मेंदु शिशिर, रामजतन यादव सहित कई लेखकों ने अपनी रचना से दलित आंदोलन को एक आयाम देने की कोशिश की।

इस दिशा में अभी भी कुछ लोग काम कर रहे हैं, कुछ राजनीति की बैसाखी पकड़ चुके हैं तो उनका लेखन कुंद हो चुका है। वे लिख तो रहे हैं लेकिन जो तेवर वर्षों पहले उनके लेखन में दलित संवेदना को लेकर था, वह अब नहीं है। 

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अब मधुकर सिंह जैसे लेखकों का अभाव है। 2 जनवरी 1934 को बंगाल प्रांत के मिदनापुर में जन्मे मधुकर सिंह ने जीवन के आठ दशक का ज़्यादातर समय बिहार के भोजपुर ज़िला मुख्यालय आरा से सटे अपने गाँव धरहरा में गुजारा। मधुकर सिंह के साहित्य का बहुलांश भोजपुर के मेहनतकश किसानों, खेत मज़दूरों, भूमिहीनों, मेहनतकश औरतों और ग़रीब, दलित-वंचितों के क्रांतिकारी आंदोलन की आंच से रचा गया। सामंती-वर्णवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति के लिहाज से मधुकर सिंह की रचनाएँ बेहद महत्व रखती हैं। अपनी लंबी बीमारी के बाद मधुकर सिंह विगत 15 जुलाई 2014 को हमसे बिछड़ गए। और उनके साथ ही वर्गीय चेतना से लैस सक्रिय आंदोलन शिथिल होने लगा। 

जहाँ तक दलित लेखकों का सवाल है तो बिहार में दलित लेखकों का आंदोलन से भी अब उतना जुड़ाव नहीं रहा। ऐसा कोई लेखन अब नहीं के बराबर है। बस छिटपुट तौर पर दलित संवेदना को उठाते हुए आंदोलन खड़ा करने का प्रयास किया जा रहा है। लेखक आज ज़रूरी मुद्दों को छोडक़र लिख रहे हैं। ऐसा नहीं है कि अब दलित आंदोलन की ज़रूरत नहीं है, बिहार में दलितों के साथ वही सब कुछ हो रहा है जो अन्य जगहों पर हो रहा है। ऐसा लगता है कि सब कुछ बाज़ारवाद की चपेट में है और अब न तो दलित आंदोलन दिखता है और न ही आंदोलन से जुड़ा साहित्य।

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सवाल उठता है कि कथा साहित्य में बिहार इतना समृद्ध होते हुए भी दलित चेतना, संवेदना और आंदोलन से क्यों नहीं जुड़ पाया। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। इससे निपटने की कोई बड़ी और प्रभावी पहल नहीं हुई। न ही दलित वर्ग की ओर से, और न ग़ैर दलित वर्ग से। बिहार की ज़मीन बहुत उर्वर है। एक परिपक्व दलित सांस्कृतिक आंदोलन की ज़रूरत यहाँ शिद्दत से महसूस की जा रही है। दलित आंदोलन के लिए विचारधारा व जन-जागृति से जुड़े मुद्दे चाहिए। आज इन बातों की कमी साफ़ दिखती है। दलित नेताओं पर आरोप है कि उनकी वजह से बिहार में दलित आंदोलन की गति अवरुद्ध हुई है। राजनीतिक उदासनीता की वजह से ही आज दलित आंदोलन हाशिए पर है। अगड़ा-पिछड़ा की राजनीति तो ख़ूब हुई लेकिन दलित उपेक्षित रहे। मधुकर सिंह जैसे जुझारू रचनाकार भी अब नहीं रहे जिनकी संवेदना लोगों को उद्वेलित करती थी।

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शैलेन्द्र चौहान
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