क्या हमारे समाज में किसी हिंदू को उसकी जाति से परे रखकर देखना संभव है? बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर जब जात-पांत तोड़क मंडल के सम्मेलन के लिए अपना अध्यक्षीय वक्तव्य तैयार कर रहे थे तभी उन्होंने यह सवाल उठाया था। उनका कहना था कि हिंदू समाज के भीतर रह कर जाति तोड़ना संभव नहीं है। जाति तोड़नी है तो हिंदू धर्म को तोड़ना होगा। इस वक्तव्य से जात-पांत तोड़ो मंडल इतना दुखी हुआ कि उसने आंबेडकर से ही नाता तोड़ लिया, उन्हें अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव वापस ले लिया। बाद में यही वक्तव्य 'जाति का विनाश' नाम से पुस्तक के रूप में छपा।
लेकिन यह लेख किस क़दर प्रासंगिक बना हुआ है, यह बात भारतीय समाज के किसी भी हिस्से पर एक नज़र डालते ही समझ में आ जाती है। इन दिनों भारतीय क्रिकेट में सूर्य कुमार यादव का जलवा है। उनकी आतिशी बल्लेबाज़ी, उनका अविश्वसनीय स्ट्रोक प्ले सबकुछ उन्हें महान बल्लेबाज़ों की श्रेणी में खड़ा करता है। वे एबी डीवीलियर्स और सचिन तेंदुलकर की तरह जैसे अपने बल्ले को जादू की छड़ी बना देते हैं और उससे मैदान के हर कोने में स्ट्रोकों की फुलझड़ियां पहुंचती दिखाई पड़ती हैं। वे क्रीज पर गिरते दिखते हैं और गेंद उड़ती हुई सीमा पार के बाहर जाकर गिरती दिखाई पड़ती है।
लेकिन इन दिनों बात सूर्य कुमार यादव की अभिनव बल्लेबाज़ी पर नहीं, उनकी जाति पर हो रही है। यह संदेह किया जा रहा है कि उन्हें अपनी जाति की वजह से बहुत देर से आने का मौक़ा मिला। भारतीय क्रिकेट में खिलाड़ियों के चयन पर सवाल कई बार उठे हैं- मोहिंदर अमरनाथ ने उन्हें जोकरों की जमात कहा था और अंबाटी रायडू ने उन पर ताना कसते हुए अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास ले लिया- लेकिन उन पर जातिवादी होने का आरोप अब तक नहीं लगा।
हालाँकि जातिवाद क्या इतनी स्थूल प्रक्रिया है कि उसे आसानी से चिह्नित किया जा सकता है? सूर्यकुमार यादव की जाति खोजने वाले जातिवादी हैं या उसके खेल पर मुग्ध होने की सलाह देने वाले? क्या इसके पहले किन्हीं खिलाड़ियों की जाति नहीं खोजी गई है? इन्हीं दिनों हिंदी के मूर्द्धन्य पत्रकार प्रभाष जोशी का एक पुराना साक्षात्कार चर्चा में है जिसमें उन्होंने सचिन तेंदुलकर और सुनील गावसकर के धैर्य को उनके ब्राह्मणत्व से जोड़कर देखा था। निस्संदेह, प्रभाष जोशी अपनी टिप्पणी में छुपी वह मार्मिक कचोट समझ नहीं पाए जो उनकी बात पढ़ कर बहुत सारे पाठकों के दिल में पैदा हुई होगी।
चाहें तो यहां डॉ. राम मनोहर लोहिया का वह पुराना और मशहूर वक्तव्य याद कर सकते हैं जो उन्होंने अपनी कुछ पुरानी शैली में दिया था- कहा था कि जाति तोड़नी है तो बेटी और रोटी का नाता जोड़ना होगा। रोटी का नाता मजबूरी में जुड़ा है, लेकिन बेटी का नाता अभी तक नहीं जुड़ा है।
बहरहाल, जातिवाद को नकारने वाले ये वे लोग होते हैं जिनकी पीठ पर जातिवाद का चाबुक नहीं पड़ता। बल्कि उन्हें बड़ी सहजता से अपने उच्चवर्णीय होने के वे लाभ मिलते रहते हैं जो पिछड़ी या निचली मानी जाने वाली जातियों को अपनी ऐतिहासिक नियति की वजह से हासिल नहीं हो पाते। ये लोग तो यहां तक मानते हैं कि उन्हें जातिवाद जैसी किसी बुराई का इल्म भी नहीं था, यह मंडल आयोग की सिफ़ारिशें हैं जिन्होंने याद दिलाया कि उनकी एक जाति है। दरअसल यह उनको पहली बार याद दिलाया गया है। मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर लागू आरक्षण के बाद बहुत से छात्र मायूस हैं कि उनकी प्रतिभा के साथ अन्याय हो रहा है, कि बेहतर अंकों के बावजूद वे दाख़िले या नौकरी में पीछे रह जा रहे हैं और दूसरे लोग बाज़ी मार ले रहे हैं। लेकिन इस एक तथाकथित अन्याय ने उनके भीतर जितनी कटुता पैदा की है, उसी से उन्हें समझना चाहिए कि उनके विरुद्ध दूसरी जातियों को कितनी गहरी कटुता रखने का अधिकार है। इस कटुता को भी सहन करने का धीरज हमें दिखाने की ज़रूरत है।
सूर्य कुमार यादव पर लौटें। वे अपनी जातिगत विरासत के बावजूद एक संभ्रांत परिवार से हैं। उनकी जाति के बहुत सारे लोगों को वे सुविधाएं नहीं मिलतीं जो उन्हें मिली हैं। अगर उनके चयन में देरी हुई तो इसे उसके जातिवाद से ज्यादा भारतीय क्रिकेट की दूसरी विडंबनाओं से जोड़ कर देखने की ज़रूरत महसूस होती है। लेकिन क्या भारतीय क्रिकेट भी भारतीय समाज की कोख से नहीं निकला है? क्या भारतीय समाज के गुणसूत्रों की छाप यहां भी नहीं होगी? कहना मुश्किल है, लेकिन इस पूरी बहस ने इस तथ्य की ओर ध्यान खींचा है कि जिस जातिवाद को भारतीय समाज अपनी संभ्रांत मुद्राओं से छुपाने की कोशिश कर रहा है, उसके शिकार लोग अब पलट कर सवाल पूछ रहे हैं। राजनीति में, खेल में, साहित्य और संस्कृति में- हर तरफ़ इस बात पर नज़र है कि कहीं वर्चस्वशाली तबक़े उनके हिस्से का हक़ तो नहीं मार रहे। इत्तिफ़ाक़ से इन दिनों क्रिकेट की दुनिया में बहुत ओबीसी जातियों के खिलाड़ी दिख रहे हैं। इत्तिफ़ाक़ से इन्हीं दिनों जिस दूसरे खिलाड़ी के साथ अन्याय की शिकायत की जा रही है, उसका नाम कुलदीप यादव है। एक टेस्ट मैच में मैन ऑफ़ द मैच होने के बावजूद अगले टेस्ट में उन्हें टीम से बाहर बिठा दिया गया। इस फ़ैसले की बहुत तीखी आलोचना जिन लोगों ने की, उनमें सुनील गावसकर भी प्रमुख हैं। इत्तिफ़ाक़ यह भी है कि इन्हीं दिनों रणजी ट्रॉफ़ी में पृथ्वी शॉ ने एक पारी में क़रीब पौने चार सौ रन बना डाले हैं और याद दिलाया है कि क्रिकेट के मैदान में उनकी भी उपेक्षा हो रही है। बहुत सारे लोग मानते हैं कि विनोद कांबली जैसे महान खिलाड़ी के साथ अन्याय हुआ और इसकी एक वजह उनकी जातिगत पृष्ठभूमि भी रही हो सकती है।
हालांकि इन सारे फ़ैसलों को जातिवाद के नज़रिए से देखना उचित नहीं होगा। कुछ फैसलों के लिए दूसरी मूर्खताएं या ज़िदें भी ज़िम्मेदार होती हैं। बल्कि क्रिकेट की दुनिया में क्षेत्रीय आग्रह एक दौर में बहुत प्रबल रहे। मुंबई के खिलाड़ियों को दूसरे राज्यों या शहरों के खिलाड़ियों के मुक़ाबले आसानी से मौक़े मिलते रहे। अब छोटे शहरों से आ रहे खिलाड़ियों ने अपनी प्रतिभा और अपने पराक्रम से पुराने और पारंपरिक दुर्ग तोड़ दिए हैं। आईपीएल ने क्रिकेट को चाहे जितना बदला हो, लेकिन एक काम ज़रूर किया है कि प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के लिए शोहरत के बहुत सारे अवसर पैदा किए हैं। पहले भारतीय टीम में 16 खिलाड़ियों की जगह होती थी, अब आईपीएल की दस टीमों के लिए 160 खिलाड़ी चाहिए। इससे प्रतिस्पर्धा भी बढ़ी है और टकराव भी। सितारे आ रहे हैं और गुम हो जा रहे हैं। एक मैच पीछे छूट जाने का मतलब फिर से वापसी की चुनौती है।
निस्संदेह हर मामले में जातिवाद खोजने की प्रवृत्ति इस मायने में चिंताजनक है कि वह बुरी तरह समाज को बाँटती है। लेकिन हर मामले को जातिवाद या जातिवादी आग्रहों से मुक्त मानने की प्रवृत्ति बरसों से चली आ रही एक सड़ांध को छुपाने की कोशिश है जो पूरे समाज को पीछे ले जाती है।
फिर सवाल है कि रास्ता कहाँ है? जाति के सवाल से लगातार मुठभेड़ की गली में। यह सच है कि अभी यह सवाल नई बाड़ेबंदियों में उलझा हुआ है। लोकतांत्रिक राजनीति में प्रतिनिधित्व के ज़रूरी सिद्धांत का एक अतिरेकी और अवसरवादी प्रभाव यह हुआ है कि जातियों के भीतर जातियों और उपजातियों के सामाजिक-राजनीतिक संगठन बनते चले गए हैं जिनके पास अपने लिए कुछ सुविधाएँ जुटाने के अलावा कोई बड़ा एजेंडा नहीं है। इसका नतीजा यह है कि सतह पर क्रांतिकारी या ज़मीनी दिखने वाली यह प्रवृत्ति यथार्थ में उन शक्तियों की गोद में जाकर बैठ जाती हैं जिनका भरोसा धार्मिक-सामाजिक यथास्थिति बनाए रखने पर ही नहीं, उसे बिल्कुल वापस लौटाने पर है। यह अनायास नहीं है कि मंडल और कमंडल के युद्ध में कमंडल लगातार बड़ा होता गया है जबकि मंडल टुकड़ा-टुकड़ा होकर उसमें समाता रहा है। तो आंबेडकर ने जाति तोड़ने के लिए धर्म को तोड़ने की जो युक्ति बताई थी, वह हाशिए पर है और मनुवाद जातिवाद की पुरानी संरचनाओं के कंधे पर हाथ रखकर हंस रहा है।
बेशक, यह स्थिति भी स्थायी नहीं रहेगी। सूर्यकुमार यादव या ऐसे दूसरे खिलाड़ियों का उदय बता रहा है कि पुरानी शक्ति-संरचनाएं टूट रही हैं और नई सामाजिक शक्तियां अपनी आर्थिक हैसियत के साथ अपना हिस्सा मांग और वसूल रही हैं। यह स्थिति सिर्फ किसी खेल में नहीं, हर क्षेत्र में देखी जा सकती है। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में पिछड़ी, आदिवासी और दलित पहचानों की जो दावेदारी है, वह इसी ओर एक और इशारा है। और यह दावेदारी बताती है कि वह अलग-अलग अनुशासनों के जाने-पहचाने व्याकरण में पर्याप्त तोड़फोड़ करने में सक्षम है। क्रिकेट की कॉपीबुक कही जाने वाली शालीन-कुलीन शैली तो सहवाग जैसे खिलाड़ियों ने पहले ही तोड़ी थी, अब सूर्यकुमार यादव जैसे खिलाड़ी उसे बिल्कुल बेमानी साबित कर रहे हैं। बेशक, इसे जाति की प्रक्रिया के आईने में देखना क्रिकेट के उस परिवर्तन की आंधी को नज़रअंदाज़ करना होगा जिसने पूरे खेल की शैली बदल डाली है। लेकिन ये चीज़ बताती है कि हमें बदलावों के प्रति उत्सुक और तैयार रहना चाहिए- उन बहसों के प्रति भी, जिनसे हमें असुविधा होती है या जिनमें हमें कोई तत्व नहीं दिखता- देर-सबेर इन्हीं से एक-दूसरे को सहन करने और फिर एक-दूसरे से जुड़ने और फिर इनमें कोई फ़र्क न मानने का रास्ता निकल सकता है- इस लेखक के पास इस आशावाद के सिवा और कोई रास्ता नहीं।
(Ndtv.in से साभार)
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