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कोरोना से तो निपट लेंगे, सांप्रदायिकता के वायरस से कैसे निपटेंगे? 

भारत में कोरोना महामारी की आड़ में मुसलिम समुदाय के ख़िलाफ़ जिस तरह सरकारी और ग़ैर-सरकारी स्तर पर सुनियोजित नफ़रत-अभियान और मीडिया ट्रायल चलाया जा रहा है, उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रिया होने लगी है। कुछ दिनों पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस तरह का अभियान बंद करने की अपील की थी। यूरोपीय देशों के मीडिया में भी भारत की इन घटनाओं की ख़ूब रिपोर्टिंग हो रही है और अब खाड़ी के देशों में भी सख़्त प्रतिक्रिया शुरू हो गई है। कुवैत सरकार की ओर से एक के बाद एक चार ट्वीट करते हुए भारत में कोरोना महामारी फैलने के लिए मुसलिम समुदाय को ज़िम्मेदार ठहराने और मुसलमानों को प्रताड़ित किए जाने की घटनाओं पर चेतावनी देने के अंदाज़ में चिंता जताई गई। अब इसलामिक देशों के संगठन ओआईसी ने भारत में इस्लामोफोबिया की कड़ी निंदा की है और संयुक्त अरब अमीरात में भारतीय राजदूत पवन कपूर को सफ़ाई में ट्वीट करना पड़ा है। 

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इसके पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा था कि कोरोना नस्ल, जाति, धर्म, रंग, भाषा आदि नहीं देखता, इसलिए एकता और भाईचारा बनाए रखने की ज़रूरत है। कुछ दिनों पहले ही भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी अपनी पार्टी के नेताओं से अपील की थी कि वे कोरोना महामारी को लेकर सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने वाले बयान देने से परहेज करें। तो इस प्रकार इन सारी प्रतिक्रियाओं से इस बात की तसदीक तो होती ही है कि भारत में कोरोना महामारी का राजनीतिक स्तर पर सांप्रदायीकरण कर एक समुदाय विशेष के लोगों को निशाना बनाया जा रहा है। यह सब करते हुए इस बात पर ज़रा भी विचार नहीं किया जा रहा है कि इसका खाड़ी के देशों में रह रहे लाखों भारतीयों के जीवन पर क्या प्रतिकूल असर हो सकता है।

हक़ीक़त यह भी है कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के अध्यक्ष भले ही औपचारिक तौर पर चाहे जो कहें, मगर कोरोना को लेकर सांप्रदायिक राजनीति सरकार की ओर से भी हो रही है और सत्तारूढ़ पार्टी और उसके सहयोगी संगठन भी अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए महामारी की इस चुनौती को एक अवसर के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल रोज़ाना की प्रेस ब्रीफिंग में संप्रदाय के आधार पर कोरोना मरीज़ों के आँकड़े नहीं बताते, गुजरात में कोरोना मरीज़ों के इलाज के लिए हिंदू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग वार्ड नहीं बनाए जाते; गली, मोहल्लों और कॉलोनियों में फल-सब्जी बेचने वाले मुसलमानों के बहिष्कार का अभियान नहीं चलाया जाता, पुलिस लॉकडाउन के दौरान सड़कों पर निकले लोगों का नाम पूछ कर पिटाई नहीं करती, ज़रूरतमंद ग़रीबों को सरकार की ओर से बाँटी जाने वाली राहत सामग्री, भोजन के पैकेट और गमछों पर प्रधानमंत्री की तस्वीर और बीजेपी का चुनाव चिह्न नहीं छपा होता, बीजेपी का आईटी सेल अस्पतालों में भर्ती तब्लीग़ी जमात के लोगों को बदनाम करने के लिए डॉक्टरों पर थूकने वाले फ़र्ज़ी वीडियो और ख़बरें सोशल मीडिया में वायरल नहीं करता।

कोरोना महामारी की आड़ में एक समुदाय विशेष को निशाना बनाने और सत्तारूढ़ दल के पक्ष में अभियान चलाने का काम सिर्फ़ सरकार और संगठन के स्तर पर ही नहीं हो रहा है, बल्कि मुख्यधारा के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी इस काम में बढ़-चढ़ कर शिरकत कर रहा है।

तमाम टीवी चैनलों पर प्रायोजित रूप से तब्लीग़ी जमात के बहाने पूरे मुसलिम समुदाय के ख़िलाफ़ मीडिया ट्रायल किया जा रहा है। पिछले दिनों जब मीडिया को सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने से रोकने के लिए एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई तो प्रधान न्यायाधीश की अगुवाई वाली पीठ ने प्रेस की आज़ादी की दुहाई देते हुए उस याचिका को खारिज कर दिया।

अगर इस तरह के संगठित अभियान को लेकर प्रधानमंत्री ज़रा भी चिंतित होते तो इतनी देरी से एक अपील जारी करने की खानापूर्ति करने के बजाय वे इस तरह का अभियान चलाने वालों को सख़्त चेतावनी देते। कोरोना काल में पिछले एक महीने के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने चार बार टीवी पर राष्ट्र को संबोधित किया है लेकिन उन चारों संबोधनों में उन्होंने एक बार भी इस महामारी का सांप्रदायीकरण करने के अभियान पर न तो नाराज़गी जताई, न ही अभियान चलाने वालों को कोई चेतावनी दी और न ही नफ़रत फैलाने वाली ख़बरें दिखाने और बहस कराने वाले टीवी चैनलों को नसीहत दी। अगर प्रधानमंत्री मोदी वाक़ई इस तरह के अभियान से नाख़ुश होते तो निश्चित ही सख़्त लहज़े में अपनी नाराज़गी जताते और अपने समर्थकों तथा मीडिया को ऐसा करने से बाज आने को कहते।

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प्रधानमंत्री ने जो अपील जारी की है, उसका कोई व्यावहारिक महत्व नहीं है। क्योंकि ऐसी अपीलें वे पहले भी कई मौक़ों पर जारी कर चुके हैं और वे बेअसर साबित हुई हैं। जब देश भर में गोरक्षा के नाम दलितों के उत्पीड़न की घटनाएँ हो रही थीं तब भी प्रधानमंत्री ने नाटकीय अंदाज़ में कहा था कि 'आप चाहो तो मुझे मार लो मगर मेरे दलित भाइयों का उत्पीड़न मत करो।’ देश ने देखा है कि उनके इस बयान के बाद भी दलितों के उत्पीड़न की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई। इसी तरह जब बीजेपी की सांसद और आतंकवादी वारदातों की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर ने महात्मा गाँधी के मुक़ाबले नाथूराम गोडसे को महान बताने वाला बयान दिया तब भी प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि था कि 'मैं इसके लिए उन्हें कभी भी मन से माफ़ नहीं कर पाऊँगा।’ उनके इस बयान का न तो प्रज्ञा ठाकुर पर कोई असर हुआ और न ही उनकी पार्टी के दूसरे नेताओं पर। राष्ट्रपिता के बारे में अपमानजनक टिप्पणियों का सिलसिला अभी भी जारी है। यहाँ तक कि गोडसे के मंदिर बनाने और महात्मा गाँधी के पुतले पर गोली चलाने जैसी घटनाएँ भी हुई हैं, लेकिन किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। 

इसीलिए यह मानने की कोई वजह नहीं है कि प्रधानमंत्री की ताज़ा अपील के बाद कोरोना की आड़ में जारी धार्मिक और सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने का संगठित अभियान थम जाएगा।
कोरोना महामारी की चुनौती का सामना तो भारत सहित पूरी दुनिया किसी तरह कर ही लेगी और इस संकट से उबर भी जाएगी। देर सवेर इस वायरस से बचाव का वैक्सीन भी ईजाद हो ही जाएगा। कोरोना संक्रमण के चलते गहरे गड्डे में जा धँसी हमारी अर्थव्यवस्था भी कुछ सालों में पटरी पर आ जाएगी। लेकिन हमारे देश में सांप्रदायिक और धार्मिक नफ़रत के वायरस का संक्रमण जिस तेज़ी से फैल रहा है, उसका वैक्सीन आसानी से तैयार नहीं हो पाएगा। ऐसी स्थिति में हमें और हमारी आने वाली पीढ़ियों को कैसी और कितनी क़ीमत चुकानी पड़ेगी, इसका अंदाज़ा लगाना किसी के लिए भी आसान नहीं है।
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अनिल जैन
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