दिन प्रतिदिन आ रहे कोरोना के आँकड़े बेहद ख़ौफ़नाक और डराने वाले हैं। साल भर बाद कोरोना ज़्यादा दैत्याकार और विकराल आकार लेता जा रहा है। प्रारंभिक महीने तो किसी वैज्ञानिक शोध और व्यवस्थित उपचार के बिना बीते। विश्व बैंक, चीन और अमेरिकी राष्ट्रपति के बीच जारी आरोप-प्रत्यारोप ने समूचे संसार को एक तरह से दुविधा में डाल कर रखा। न चिकित्सा की कोई वैज्ञानिक पद्धति विकसित हो पाई और न दुनिया भर के डॉक्टरों में कोई आम सहमति बन सकी। शुरुआत में इसे चीन की प्रयोगशाला का घातक हथियार माना गया। इसके बाद इसे संक्रामक माना गया तो कभी इसके उलट तथ्य प्रतिपादित किए गए। कभी कहा गया कि यह तेज़ गर्मी में दम तोड़ देगा तो फिर बाद में बताया गया कि तीखी सर्दियों की मार कोरोना नहीं झेल पाएगा। हालाँकि चार छह महीने के बाद एक दौर ऐसा भी आया, जब लगा कि हालात नियंत्रण में आ रहे हैं। ज़िंदगी की गाड़ी पटरी पर लौटने लगी है। लोग राहत की साँस भी नहीं ले पाए कि आक्रमण फिर तेज़ हो गया। पर यह भी एक क़िस्म का भ्रम ही था।
पिछले एक महीने में तो इस संक्रामक बीमारी का जिस तरह विस्तार हुआ है, उसने सारी मानव बिरादरी को हिला दिया है। रोज़ मिलने वाली जानकारियों पर तो एकबारगी भरोसा करने को जी नहीं करता। मानवता के इतिहास में शायद ही कोई ऐसा दूसरा उदहारण होगा, जिसमें आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक ताने-बाने को चरमराते देखा गया हो। कोई भी देश या समाज अपनी बदहाली, ग़रीबी, बेरोज़गारी या व्यवस्था के टूटने पर दोबारा नए सिरे से अपनी जीवन रचना कर सकता है, लेकिन अगर सामाजिक मूल्य और सोच की शैली विकलांग हो जाए तो सदियों तक उसका असर रहता है। मौजूदा सिलसिले की यही कड़वी हक़ीक़त है। ख़ासकर भारत के सन्दर्भ में कहना अनुचित नहीं होगा कि बड़े से बड़े झंझावातों में अविचल रहने वाला हिन्दुस्तान अपने नागरिकों के बीच रिश्तों को अत्यंत क्रूर और विकट होते देख रहा है। क्या यह सच नहीं है कि कोरोना ने सामाजिक बिखराव की एक और कलंकित कथा लिख दी है।
एक बरस के दरम्यान हमने श्रमिकों और उनके मालिकों के बीच संबंधों को दरकते देखा। पति-पत्नी, बेटा-बहू, भाई-बहन, चाचा -ताऊ, मामा, मौसा फूफ़ा जैसे रिश्तों की चटकन देखी। भारतीय समाज में एक कहावत प्रचलित है कि किसी के सुख या मंगल काम में चाहे नहीं शामिल हों, मगर मातम के मौक़े पर हर हाल में शामिल होना चाहिए।
कोरोना काल तो जैसे मृत्यु के बाद होने वाले संस्कारों में शामिल नहीं होने का सन्देश लेकर आया। लोग अपने दिल के बेहद निकट लोगों के अंतिम दर्शन तक नहीं कर पाए।
आज़ादी के बाद सबसे बड़ा विस्थापन -पलायन हुआ। इस पलायन ने रोज़ी -रोटी का संकट तो बढ़ाया ही, आपसी संबंधों में भी ज़हर घोल दिया। क्या इस तथ्य से कोई इंकार कर सकता है कि कोरोना काल में रोज़ग़ार सबसे बड़ा मुद्दा बन कर उभरा है। जो परिवार वर्षों बाद महानगरों से भागकर अपने गाँवों में पहुँचे हैं, वे अपनी जड़ों में नई ज़मीन को तलाश रहे हैं और उस गाँव, क़स्बे के पास अपने बेटे को देने के लिए दो जून की रोटी भी नहीं है। भारतीय पाठ्यपुस्तकों में ज्ञान दिया जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, लेकिन हक़ीक़त तो यह है कि हम अब असामाजिक प्राणी होते जा रहे हैं।
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यह निराशावाद नहीं है। इस कालखंड का भी अंत होगा। साल भर में अनेक दर्दनाक कथाओं के बीच मानवता की उजली कहानियाँ भी सामने आई हैं। संवेदनहीनता के बीच कुछ फ़रिश्ते भी प्रकट होते रहे हैं। पर यह तो सरकारों को ही तय करना होगा कि ऐसी विषम परिस्थितियों के बीच अपनी आबादी की हिफ़ाज़त कैसे की जाए। यह उनकी संवैधानिक ज़िम्मेदारी है। आज गाँवों, क़स्बों, ज़िलों और महानगरों में तरह-तरह की विरोधाभासी ख़बरों के चलते निर्वाचित हुकूमतों की साख़ पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं। आम आदमी की समझ से परे है कि नाइट कर्फ्यू का औचित्य क्या है? रात दस-ग्यारह बजे के बाद तो वैसे ही यातायात सिकुड़ जाता है, फिर उस समय निकलने पर पाबंदी का क्या अर्थ है। रविवार को लॉकडाउन रखने का भी कारण स्पष्ट नहीं है। कोरोना इतना विवेकशील वायरस तो नहीं है जो दिन और समय का फ़र्क करते हुए अपना आकार बढ़ाए।
यह सरकारी प्रपंच नहीं तो और क्या है कि खुद राजनेताओं और उनके दलीय कार्यक्रमों में पुछल्ले नेता कोरोना से बचाव के दिशा-निर्देशों की धज्जियाँ उड़ाते दिख रहे हैं।
पाबंदियों के निर्देश जितने लंबे नहीं होते, उससे अधिक सूची तो उनमें छूट देने वाले प्रशासनिक निर्देशों की होती है। जिन प्रदेशों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें तो लगता है किसी को कोरोना की चिंता नहीं है। न भीड़ को, न उम्मीदवारों को, न सियासी पार्टियों को और न सितारा शिखर पुरुषों को। लोग हैरान हैं कि यह कैसा वायरस है, जो उन प्रदेशों में ज़्यादा कहर ढा रहा है, जहाँ चुनाव नहीं हो रहे हैं। यह मात्र संयोग है कि ग़ैर बीजेपी शासित राज्यों में लगातार स्थिति बिगड़ती जा रही है और जहाँ बीजेपी की सरकार है, वहाँ सब कुछ काबू में दिखाई देता है। इंदौर और भोपाल जैसे शहर जो अपनी जागरूकता के लिए विख्यात हैं, वहाँ कोरोना से बचने के लिए आम आदमी ही लापरवाह नज़र आते हैं।
इसी तरह चिकित्सा तंत्र एक कसैली मंडी में बदलता दिखाई दे रहा है। इलाज के लिए कोई क़ीमतों का निर्धारण नहीं है। अस्पताल मनमानी फीस ले रहे हैं। गंभीर रूप से पीड़ितों को छोड़ दें तो अस्पतालों के पास गले की एंटी-बायोटिक और विटामिन की गोलियाँ देने के सिवा कोई उपचार विधि स्पष्ट नहीं है। कुछ अस्पताल तो फाइव स्टार होटल से बाकायदा खाना ऑर्डर करते हैं और उसका चार गुना बिल में वसूलते हैं। क्या उन पर अंकुश लगाने का कोई फ़ॉर्मूला सरकारों के पास है?
(लोकमत समाचार से साभार)
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