भारत की आम जनता के लिए नीतियां बनाने वाले आयोग यानी नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत के एक बयान को लेकर देश में बवाल मचा हुआ है। अमिताभ कांत ने कहा है कि भारत में बहुत ज़्यादा लोकतंत्र है और ऐसे में कठोर सुधारों को लागू कर पाना बेहद मुश्किल है। उन्होंने कहा कि हालांकि सरकार ने हिम्मत दिखाई है और कई सेक्टर्स में इन्हें लागू किया है।
अमिताभ कांत का ये बयान ऐसे वक़्त में आया है जब मुल़्क के अंदर देश का किसान दिल्ली के बॉर्डर्स पर आकर अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहा है। उसे अपने हक़ की लड़ाई लड़ने का ये अधिकार आज़ाद भारत के संविधान ने दिया है। लेकिन जब देश में ऊंचे दर्जे और अहम आयोग के सीईओ भारत में ज़्यादा लोकतंत्र होने की बात कहते हैं तो इसे लेकर देश के हर शख़्स को अपनी राय रखने और सवाल पूछने के लिए आगे आना चाहिए।
देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ। पाकिस्तान इसलाम के आधार पर मुल्क़ बना जबकि बाबा साहेब आंबेडकर से लेकर जवाहर लाल नेहरू और संविधान सभा के सदस्यों ने इसे धार्मिक राष्ट्र नहीं बल्कि संवैधानिक राष्ट्र बनाने की बात कही। 1947 में आज़ादी के बाद दो साल तक ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ पर मंथन होता रहा।
भारत को ऐसा मुल्क़ बनाने के लिए बैठकें और विचार हुआ जहां हर मज़हब, जाति, समुदाय, संस्कृति के मानने वालों को रहने, अपनी बात रखने, कहीं भी आने-जाने की पूरी आज़ादी हो। 26 जनवरी, 1950 को देश का संविधान तैयार हुआ।
संविधान की प्रस्तावना
भारत के संविधान निर्माता कमेटी के सदस्य कैसा देश चाहते थे, ये बात संविधान की प्रस्तावना से पता चलती है। प्रस्तावना में देश के हर शख़्स के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, उसे अपने विचारों को रखने, पूजा-पद्धति को मानने की आज़ादी के साथ ही समानता का अधिकार और हर व्यक्ति की गरिमा को बनाए रखने का भरोसा दिया गया।
लोकतंत्र का बुनियादी स्तंभ है कि क़ानून के दायरे में रहते हुए किसी भी बात को कहने की आपको आज़ादी है। लेकिन बीते कुछ सालों में अपनी बात कहने पर या सरकार की नीतियों की मुखालिफत करने पर आपको सीधा देशद्रोही, पाकिस्तानी, गद्दार कह दिया जाता है।
जनता के पास है ताक़त
अमिताभ कांत का इशारा शायद किसानों के आंदोलन की ही ओर रहा होगा। क्या वे ऐसा मुल्क़ चाहते हैं, जहां पर सरकार की नीतियों, उसके फ़ैसलों पर बोलने की आज़ादी भी लोगों को न हो। उन्हें याद रखना चाहिए कि सरकार किसी एक ही दल की नहीं रहतीं। आज़ादी के बाद लंबे वक़्त तक कांग्रेस ने शासन किया लेकिन आज वो कांग्रेस कहां है। इसलिए लोकतांत्रिक मुल्क़ में ताक़त जनता के पास है न कि सरकारों के पास।
लोकतंत्र के द्वारा आम आदमी की दी गई ताक़त उसे सरकार के किसी भी फ़ैसले का क़ानून के दायरे में विरोध करने का अधिकार देती है। लेकिन अब विरोध करने पर यूएपीए, राजद्रोह के तहत मुक़दमे लगा देना आम बात हो गई है।
सीएए के विरोध पर मिली गालियां
हमने पिछले साल नागरिकता संशोधन क़ानून के दौरान देखा कि सरकार के इस नए क़ानून का विरोध करने वालों को जिहादी, पाकिस्तानी और हिंदुस्तान के टुकड़े करने वाला बताया गया। इसी तरह, जेएनयू के छात्रों के लिए टुकड़े-टुकड़े गैंग का इस्तेमाल किया जाता है और वो भी केंद्र सरकार के मंत्रियों के द्वारा।
सर्टिफ़िकेट बांट रही ट्रोल आर्मी
एक ट्रोल आर्मी ने पिछले सालों में लोकतांत्रिक आवाज़ उठाने वालों को देशद्रोही घोषित करने का ठेका लिया हुआ है। ख़ुद केंद्रीय मंत्री देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट बांटते हैं। ये ट्रोल आर्मी दिन-रात मज़हबी नफ़रत फैलाने, मुसलमानों को देशद्रोही घोषित करने के काम में जुटी है। ऐसे में कहना होगा कि ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ ख़त्म हो चुका है।
बीते कुछ सालों में नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, दक्षिणपंथियों की मुखर आलोचक रहीं वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश और एमएम कलबुर्गी की हत्या कर दी गई। इनके विचारों से एक विचारधारा वालों को परेशानी थी तो उन्होंने इनके जीने का अधिकार ही इनसे छीन लिया।
कफील, विनोद दुआ...
यहां पर कफील ख़ान का भी जिक्र करना होगा, जिन्हें अपनी आवाज़ उठाने पर महीनों तक जेल में रहने को मज़बूर किया गया। वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ का भी जिक्र करना होगा। साथ ही जेएनयू, जामिया के छात्र, सैकड़ों लोग और पत्रकार जिन्होंने राज्य या केंद्र के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई, उनकी आवाज़ को दबाने के लिए उन पर यूएपीए या राजद्रोह के मुक़दमे लाद दिए गए। यहां पर पिंजड़ा तोड़ आंदोलन की देवांगना कलिता, नताशा का भी जिक्र करना ज़रूरी होगा, जिन्हें आवाज़ उठाने की ख़ातिर पुलिसिया जु़ल्म झेलना पड़ा।
जिस रफ़्तार से अपने राजनीतिक विरोधियों पर राजद्रोह के मुक़दमे या यूएपीए का इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे साफ पता चलता है कि यह विरोध में आवाज़ उठा रहे लोगों को चुप कराने की कोशिश है।
राजद्रोह पर अदालतों की सख़्त टिप्पणी
देश की कई अदालतें राजद्रोह के मुक़दमों को लेकर कड़ी टिप्पणी कर चुकी हैं। कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी. लोकुर ने भी कहा था कि राजद्रोह का क़ानून निजी आज़ादी को कुचलने का सबसे कारगर हथियार बन चुका है। उन्होंने यह भी कहा था कि इससे भी ख़तरनाक बात यह है कि इसका इस्तेमाल उन लोगों की आज़ादी को कुचलने में किया जाता है जो मुंह खोलने की हिम्मत करते हैं।
‘ढंग’ से रहें मुसलमान
पिछले कुछ सालों से मुसलमानों को यह बताया जा रहा है कि यह उनका मुल्क़ नहीं है और उन्हें यहां रहना है तो ‘ढंग’ से रहना होगा। दिल्ली दंगों के दौरान हिंदू और मुसलमानों को नफ़रत की आग में झोंक दिया गया और उसके बाद कई मामलों में पुलिस की कार्रवाई पर गंभीर सवाल उठे। मुसलमानों से दिन-रात इस बात का सर्टिफ़िकेट मांगा जा रहा है कि वे देशभक्त हैं या नहीं। इस सब से भारत का लोकतंत्र बेहद कमजोर हो रहा है।
ताज़ा हालात में जब लव जिहाद के मामलों को लेकर बीजेपी की तमाम राज्य सरकारें ऐसे क़ानून ला रही हैं जो संविधान की मूल भावना के पूरी तरह उलट हैं, जो संविधान का अनादर करते हैं तो लोकतंत्र और कमजोर होता है।
धार्मिक राष्ट्र का विचार खारिज़
हमारे संविधान निर्माता जानते थे कि धार्मिक मुल्क़ कट्टरता की चपेट में आकर तरक़्की नहीं करते इसलिए उन्होंने भारत को धार्मिक राष्ट्र बनाने के विचार को खारिज कर दिया था। लेकिन जब लोगों को अदालतों से न्याय नहीं मिलेगा, भारत को सिर्फ़ एक धर्म के रहने वालों की जगह समझा जाएगा, करोड़ों लोगों को सोशल मीडिया पर दिन रात उनके मज़हब-रीति-रिवाजों के लिए गालियां दी जाएंगी तो ये संविधान और कमजोर होगा।
मौजूदा वक़्त को देखकर लगता है कि ये वो देश नहीं है जिसकी बापू ने कल्पना की थी। यहां बापू के हत्यारे का महिमामंडन होता है और राष्ट्रपिता के लिए सोशल मीडिया पर गालियां लिखी जाती हैं। देश में एक ऐसा समुदाय बन चुका है जो भारत को सेक्युलर नहीं हिंदू राष्ट्र बनाने पर आमादा है।
भारत के मुसलमान कैसे जिम्मेदार हैं?
एक मुसीबत और है। अगर आप यह बात करेंगे कि मुसलमानों के साथ ज़ुल्म हो रहा है, सीएए विरोध की आड़ में उत्तर प्रदेश में पुलिस ने उन्हें घरों में घुसकर मारा है, उनकी आवाज़ उठाएंगे तो आपसे कहा जाएगा कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में हिंदुओं और दूसरे मज़हबों के लोगों के साथ क्या हुआ। इसका जवाब यही है कि वहां के मुसलमानों ने क्या किया है, इसके लिए भारत के मुसलमान जिम्मेदार नहीं हैं।
लोकतंत्र से तानाशाही की ओर
लोकतांत्रिक आवाज़ों को कुचलने की इसी कोशिश के कारण दुनिया भर में कई बार देश की डेमोक्रेटिक इमेज पर सवाल भी उठे हैं। ये वे बातें हैं जो हमने पिछले सालों में देखी हैं। लेकिन जिस तरह से अपने हक़ के लिए लड़ रहे किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी बताया गया, शाहीन बाग़ के आंदोलन को बदनाम किया गया, उससे यह पता चलता है कि संविधान के द्वारा अपनी बात कहने की आज़ादी के अधिकार को बेहद गंभीर ख़तरा है और अगर बोलने की आज़ादी नहीं रही तो ये लोकतांत्रिक मुल्क़ एक तानाशाह मुल्क़ में बदल जाएगा और इस बात में कोई शक नहीं है।
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