सरकार ने सुधारों के नाम पर जनता के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है। अब सीएए-एनआरसी से मुसलमानों को चिढ़ाने तक मसला नहीं सिमटा है। भारत की अर्थव्यवस्था के कार्पोरेटीकरण की कवायद में आम लोगों के अधिकारों पर हमले हो रहे हैं। आनन-फानन में लाए गए 3 कृषि क़ानूनों से किसानों में उबाल है। वहीं सरकार ने बजट में तमाम सरकारी कंपनियों व बैंकों को निजी हाथों में सौंपने की मंशा जता दी है।
कृषि क़ानून संसद में पारित होने के बाद से ही किसान आंदोलित हैं। शुरुआत में उनका आंदोलन पंजाब तक सिमटा था। रेल की पटरियों पर किसान बैठ गए। यात्री रेलगाड़ियाँ कोरोना के कारण पहले से ही ठप रखी गई थीं और जब मालगाड़ियों की आवाजाही प्रभावित होने लगी तब ख़बर बनी। बिजली संयंत्रों को कोयले की कमी होने लगी और ऐसा लगा कि अब पंजाब ही नहीं, दिल्ली तक अंधेरे में डूब जाएगी, तब पंजाब के मुख्यमंत्री ने मध्यस्थता कर मालगाड़ियों की आवाजाही सुनिश्चित कराई। क़रीब 2 महीने तक चले इस आंदोलन पर देश का ध्यान नहीं गया। केंद्र सरकार को इसे गंभीरता से नहीं लेना था, नहीं लिया।
शुरुआती महीनों में जहाँ यह किसान आंदोलन पंजाब के किसानों तक सिमटा था, धीरे-धीरे एनसीआर से सटे राज्यों उत्तर प्रदेश और हरियाणा तक फैल गया। आख़िरकार पंजाब के किसान दिल्ली की सिंघू सीमा पर पहुँच गए। 26 जनवरी को किसान परेड में उत्तराखंड के भी किसान आए। पंजाब से चलते यह आंदोलन हरियाणा, दिल्ली होते हुए उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड तक पहुँच गया और आज बड़ी संख्या में इन पाँच राज्यों के किसान कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं।
केंद्र सरकार के समर्थकों ने रणनीतिक तरीक़े से सरकारी कर्मचारियों के ख़िलाफ़ माहौल बनाया। निजी क्षेत्र में काम करने वाली और स्वरोजगार करने वाली जनता तो सरकारी कर्मियों के ख़िलाफ़ हुई ही। पिछले 6 साल में स्थिति ऐसी बन गई है कि रेल कर्मचारी बैंक कर्मियों का, बैंक कर्मी सड़क विभाग के कर्मियों का, सड़क विभाग के कर्मी रेल कर्मियों की शिकायत करते हैं।
और सभी सरकारी विभागों के कर्मचारी मिलकर पुलिस विभाग के कर्मचारियों का विरोध करते हैं। यानी सरकारी कर्मचारी ही एक-दूसरे के ख़िलाफ़ तलवार भांजने और एक-दूसरे को कामचोर व निकम्मा बताने में लगे हुए हैं।
किसान आंदोलन
किसानों के मामले में भी यही करने की कवायद की गई। शुरुआत में इसे कांग्रेस का आंदोलन बताया गया। उसके बाद जब किसान दिल्ली पहुँच गए तो उन्हें आतंकवादी और खालिस्तानी बताया गया। आंदोलन कर रहे लोगों पर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं व उनके समर्थकों को भेजकर हमले कराए गए और सीमा पर किसानों के ख़िलाफ़ नारे लगाने बीजेपी के विधायक पहुँचे। लाल क़िले पर झंडा लगाने को लेकर आंदोलनकारियों के ख़िलाफ़ एक भावनात्मक माहौल बनाने की कवायद की गई और सबसे शर्मनाक यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ख़ुद इस कवायद में कूदे। इससे भी सरकार का पेट नहीं भरा। सड़कों पर कीलें लगवाई गईं। अनावश्यक बैरिकेडिंग कर दिल्ली के नागरिकों को जाम में फँसाया गया, जिससे वे आंदोलन के ख़िलाफ़ भड़कें। प्रधानमंत्री ने अपने जायज़ हक की माँग कर रहे किसानों को आंदोलनजीवी और परजीवी कहकर उनका मजाक उड़ाया और यह संसद में हुआ, देश और दुनिया ने इसे देखा और सुना।
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निजीकरण
विपक्ष में आने के बाद कांग्रेस, ख़ासकर पार्टी नेता राहुल गांधी अंधाधुंध निजीकरण करने व सरकारी संपत्तियों को निजी हाथों में सौंपने का विरोध करते रहे हैं। उन्होंने सत्ता में आने पर मौजूदा सरकार के 3 कृषि क़ानूनों को ख़त्म करने की घोषणा भी की। इसके पहले स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने किसानों के शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी। चंपारण के नील किसानों के हक में गांधी ने ख़ुद मोर्चा संभाला, वहीं गुजरात के बारदोली सत्याग्रह और खेड़ा सत्याग्रह का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया। इसी तरह देश के विभिन्न हिस्सों में अंग्रेजी शासन में गांधीवादियों ने किसानों के हित में आंदोलन चलाए थे।
किसान आंदोलनों के समर्थन में राहुल गांधी के ट्वीट के अलावा 26 जनवरी को परेड के दौरान मृत नवरीत सिंह के परिजनों से मिलने पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी रामपुर स्थित उनके घर पहुंची थीं। अब पश्चिम उत्तर प्रदेश में हो रही किसान महापंचायतों को लेकर भी कांग्रेस नेता सक्रिय हैं।
कांग्रेस के लिए यह सही वक़्त है कि निजीकरण की मार झेल रहे तमाम संगठनों के कर्मचारियों, नौकरियाँ न मिलने से परेशान बेरोज़गारों, खेती किसानी की बर्बादी और सरकार के उटपटांग क़ानूनों से जूझ रहे किसानों के साथ खुलकर सामने आए। इस समय भारत की अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी कम हो गई है। इसके बावजूद बड़े पैमाने पर गाँवों में रहने वाले और कुछ संख्या में शहरों में रहने वाले लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खेती बाड़ी से जुड़े हैं और इनकी आबादी कम से कम कुल आबादी के 30 प्रतिशत से ज़्यादा है। किसानों के अलावा सार्वजनिक उद्यमों और सरकारी नौकरियों में बड़ी संख्या में लोग हैं, जिनसे देश की बड़ी अर्थव्यवस्था चलती है। वह अलग-अलग टुकड़ों में संगठित भी हैं, लेकिन सरकार उन सभी के दुख को साझा दुख नहीं बनने दे रही है। ऐसे में सभी अलग-अलग सरकार की कुव्यवस्था से जूझ रहे हैं।
किसानों की अलग-अलग इलाक़े में अलग-अलग समस्याएँ हैं। तमिनलाडु के किसान सिर के कंकाल के साथ दिल्ली में प्रदर्शन कर चुके हैं। महाराष्ट्र के किसानों ने मुंबई, नागपुर सहित कई इलाक़ों में रैलियाँ की हैं। बेरोज़गारी की मार झेल रही तमाम जातियाँ आरक्षण की माँग कर रही हैं, जिससे उनकी ज़िंदगी में बेहतरी आ सके और इसके लिए बड़े-बड़े आंदोलन हुए हैं।
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कांग्रेस को बयानबाजियों और दूसरे के धरनों व रैलियों में जाने से इतर अपनी रणनीति साफ़ करने की ज़रूरत है। कांग्रेस के लिए यह सही वक़्त है कि वह अपनी वैकल्पिक नीति सामने लाए और सरकारी उद्यमों में काम करने वालों, ठेके पर रखे जा रहे कर्मचारियों, किसानों, बेरोज़गारों की बेहतरी के लिए रणनीति पेश करे। कांग्रेस को लेकर जनता में अब भी संदेह बना रहता है क्योंकि निजीकरण से लेकर खेती में कॉर्पोरेट्स को उतारने जैसी रणनीतियाँ 1991 के बाद कांग्रेस द्वारा ही लाई गईं। अगर कांग्रेस बदल रही है तो उसे सामने आकर लोगों को यह भरोसा दिलाने की ज़रूरत है कि वह किसानों को खेती-किसानी करने में मदद कर उनकी ज़िंदगी बेहतर बना सकती है। वह नवरत्न सरकारी कंपनियों सहित बैंकों का प्रदर्शन उन्हें बेचे बगैर सुधार सकती है। सड़कों को निजी हाथों में बेचे बगैर भी लोगों को बेहतर सड़क पर उनके बजट के भीतर चलने की सुविधा दे सकती है। रेलों को बेचे बगैर अपने हाथों में रखकर सरकारी अधिकारियों के माध्यम से बेहतर रेल प्रबंधन कर सकती है।
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