भारतीय राजनीति आज जिस मोड़ पर खड़ी है उसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने कभी नहीं की थी। वे सोच भी नहीं सकते थे कि प्रधानमंत्री पद पर कभी कोई ऐसा नेता बैठेगा जो भारत के लोकतंत्र को विपक्ष विहीन बनाने की कोशिश करेगा। लेकिन आज़ादी के अमृत काल का यही सच है। कांग्रेस के बैंक खातों का चुनाव के पहले सील किया जाना एक अभूतपूर्व घटना है। यह विपक्षी दल के प्रचार अभियान को शुरू होने से पहले ही रोक देने की कोशिश है। आयकर विभाग के काँधे पर बंदूक़ रखकर दाग़ी गयी इस गोली ने कांग्रेस को घायल ज़रूर किया है लेकिन इसने पीएम मोदी के भय को भी उजागर कर दिया है।
पीएम मोदी ने चुनाव की घोषणा के काफ़ी पहले ‘चार सौ पार’ का नारा दे दिया था। पूरा मीडिया रात दिन यह बताने में जुटा है कि देश के सामने मोदी का कोई विकल्प नहीं है। बीजेपी का आईटी सेल रात दिन मोदी के महामानव होने और उनके नेतृत्व में भारत के विश्व गुरु बन जाने का प्रचार कर रहा है। हर शहर, हर कस्बे की हर सड़क, हर चौराहे पर ‘जित देखो तित मोदी’ है। इस प्रचार युद्ध में इतना पैसा झोंक दिया गया है कि सोशल मीडिया के किसी भी प्लेटफ़ॉर्म पर सिर्फ़ मोदी जी का चेहरा नज़र आता है। यहाँ तक कि जिन चुनिंदा वेबसाइट या यूट्यूब चैनलों को बीजेपी का कथित आलोचक माना जाता है, वहाँ भी विज्ञापन मोदी जी के ही चलते हैं।
यानी एक ऐसा परिदृश्य हमारे सामने है जिसमें दूर-दूर तक किसी मुक़ाबले की कोई गुंजाइश नज़र नहीं आती। ऐसे में मुख्य विपक्षी दल को संसाधन विहीन करने की ज़रूरत क्या है? अगर मीडिया में नज़र आ रही छवि हक़ीक़त है तो मोदी जी आसानी से चुनाव जीत लेते। थोड़ा बहुत मुक़ाबला उन्हें अखाड़े में रियाज़ का सुख ही देता। कौन पहलवान चाहता है कि उसका प्रतिद्वंद्वी बिना दाँव आज़माये ही चित हो जाये। फिर कांग्रेस का बैंक खाता क्यों सील कराया गया?
मतलब साफ़ है कि मोदी जी को न ‘चार सौ पार’ नारे पर भरोसा है और न मीडिया में बनायी जा रही छवि उन्हें जीत को लेकर आश्वस्त कर पा रही है। ऐसा लगता है कि वे कांग्रेस की न्याय योजनाओं से घबरा गये हैं और क़तई नहीं चाहते कि इनका व्यापक प्रचार हो सके। कथित मुख्यधारा मीडिया से राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्राओं को ग़ायब करवाने के बावजूद इनमें उमड़ी भीड़ ने भी उनकी नींद उड़ाई होगी।
राहुल गाँधी ने पहले चार हज़ार किलोमीटर पैदल चलकर और फिर क़रीब छह हज़ार किलोमीटर पैदल और बस यात्रा करके जनता के बीच अपनी और कांग्रेस की विश्वसनीयता कई गुना बढ़ा दी है। उन्होंने ‘जाति जन गणना’ और आरक्षण की पचास फ़ीसदी सीमा हटाने का वादा करके पिछड़ी और दलित जातियों के सामने एक गंभीर प्रस्ताव रख दिया है।
साथ ही, हर नौजवान को एक लाख सालाना की पहली नौकरी, तीस लाख ख़ाली पड़े सरकारी पदों पर भर्ती, इन भर्तियों में महिलाओं को पचास फ़ीसदी आरक्षण, घर की एक महिला को सालाना एक लाख रुपये की मदद, किसानों को स्वामीनाथन कमेटी की सिफ़ारिशों के आधार पर एसएसपी की गारंटी, आशा कार्यकर्ताओं के वेतनमान में इज़ाफ़ा, न्यूनतम मज़दूरी चार सौ रुपये करने, पुरानी पेंशन की बहाली जैसे ठोस वादे कांग्रेस ने किये हैं जो समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित कर रहे हैं।
गुरुवार को कांग्रेस मुख्यालय में आयोजित प्रेस कान्फ्रेंस में राहुल गाँधी ने देश में लोकतंत्र के होने को लेकर सवाल उठाया है तो स्वाभाविक ही है। अदालतों से लेकर मीडिया तक उन तमाम संस्थाओं की चुप्पी का सवाल भी महत्वपूर्ण है जिन पर लोकतंत्र को बचाने की ज़िम्मेदारी है। पार्टी की वरिष्ठ नेता सोनिया गाँधी का इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में आना और अपने संबोधन में सीधे केंद्र की मोदी सरकार को निशाना बनाना बताता है कि पार्टी इस मसले को लेकर कितनी गंभीर है और तगड़ा जवाब देने की तैयारी कर रही है।
वैसे, अगर पीएम मोदी को भारत के लोकतंत्र को विपक्ष विहीन बनाने के खेल में मज़ा आ रहा है तो लगता ये भी है कि राहुल गाँधी को भी जनता के बीच जाकर प्यार और समर्थन पाने का नशा हो गया है। वरना कौन चार हज़ार किलो मीटर पैदल चलकर कन्याकुमारी से कश्मीर जाता है और फिर कुछ दिन बाद मणिपुर की पीड़ा को मुंबई तक पहुँचाता है। वह भी सिर्फ़ ‘नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान’ खोलने के आह्वान के साथ। यह इतिहास का एक महान दृश्य है कि विपक्ष का कोई नेता जनता पर इस कदर निर्भर है। मोदी जी ने कांग्रेस को आर्थिक रूप से पंगु बनाने की कोशिश में पूरी पार्टी को ही सड़क पर आकर लड़ने के लिए मजबूर कर दिया है। इतिहास का सबक़ तो यही है कि जब भी ऐसी कोई जंग हुई है, आर्थिक संसाधन मायने नहीं रखते। जनता ख़ुद लड़ाई में कूद पड़ती है और शासक का बड़ा से बड़ा घमंड टूटता ही टूटता है।
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