कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी इस्तीफ़ा दे चुके हैं। ज़्यादातर लोग मानते हैं कि कांग्रेस का अध्यक्ष किसी ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए जो पार्टी को फिर से वही शक्ति दे सके जिसके बल पर कांग्रेस ने इस देश में कई दशकों तक राज किया था। लेकिन किसी को कोई भी नेता समझ में नहीं आ रहा है। उधर दिल्ली में आजकल ऐसा माहौल है कि लगता है कि विपक्ष के बहुत सारे नेताओं को अपनी पार्टी में विश्वास नहीं है और वे सत्ताधारी पार्टी में शामिल होना चाहते हैं। यह देश की राजनीति के लिए सही नहीं होगा।
लोकतंत्र के लिए सत्ताधारी पार्टी का महत्व बहुत ज़्यादा है लेकिन विपक्ष की भूमिका भी कम नहीं है। 1971 में इंदिरा गाँधी भारी बहुमत से जीतकर आयी थीं और विपक्ष में संख्या के लिहाज़ से बहुत कम सांसद थे लेकिन उन सांसदों में देशहित का भाव सर्वोच्च था। उन सब को मालूम था कि निकट भविष्य में कांग्रेस की सत्ता ख़त्म होने वाली नहीं थी और उनकी पार्टियों की सरकार नहीं बन सकती थी क्योंकि उस समय तक देश में कभी ग़ैर-कांग्रेसी सरकार ही नहीं बनी थी। उनको मालूम था कि उनकी राजनीति का उद्देश्य कांग्रेस सरकार पर नज़र रखना ही था। राजनीतिक कार्य के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी का आलम यह था कि उस दौर में इंदिरा गाँधी की सरकार की कोई भी नीति संसद में चुनौती से बच नहीं सकी। यह समझ लेना ज़रूरी है कि उन दिनों 24 घंटे का टेलीविज़न नहीं था, मात्र कुछ अख़बार थे जिनकी वजह से सारी जानकारी जनता तक पहुँचती थी।
जब हालात बदले तो 1977 में भी विपक्ष की भूमिका किसी से कम नहीं थी। इंदिरा गाँधी ख़ुद चुनाव हार गयी थीं। कांग्रेस पार्टी के हौसले पस्त थे लेकिन कुछ ही दिनों में वसंत साठे जैसे नेताओं की अगुवाई में लोकसभा में कांग्रेसी विपक्ष ने सरकार के हर काम को पब्लिक स्क्रूटिनी के दायरे में डाल दिया। सब ठीक हो गया और मोरारजी देसाई की सरकार में काम करने वाले भ्रष्ट मंत्रियों की ज़िंदगी दुश्वार हो गयी क्योंकि सरकार के हर काम पर कांग्रेसी विपक्ष की नज़र थी। राजीव गाँधी भी जब लोकसभा में विपक्ष के नेता थे तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को माकूल विपक्ष मिला और जब राजा साहब ने ख़ुद ही यह साबित कर दिया कि राजकाज के मामले में वे बहुत ही लचर थे। बाद में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने, कांग्रेस की मदद से। चंद्रशेखर का सबसे बड़ा योगदान यही है कि उन्होंने जम्मू-कश्मीर और पंजाब में पाकिस्तान की तरफ़ से प्रायोजित आतंकवाद का मुक़ाबला करने का एक आर्किटेक्चर देश के सामने रखा, जब तक पद पर रहे उस पर अमल किया और आज तक उसी शैली में कश्मीर में पाकिस्तानी आतंकवाद को जवाब दिया जा रहा है।
देश की लोकशाही की रक्षा के लिए कांग्रेस को आज विपक्ष की भूमिका में आना पड़ेगा। आज एक सत्ताधारी पार्टी है जो लगभग उसी स्थिति में है जिसमें 1980 में कांग्रेस हुआ करती थी। इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी के बहुमत के टक्कर का ही बहुमत नरेंद्र मोदी के पास भी है।
आज कांग्रेस ही इकलौती विपक्षी पार्टी है जिसकी मौजूदगी पूरे भारत में है। 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 12 करोड़ वोट मिले हैं। इसका मतलब यह हुआ कि कांग्रेस को अभी समाप्त पार्टी कहना बिलकुल ग़लत होगा। लेकिन पार्टी को एक मज़बूत विपक्ष के रूप में स्थापित करने के लिए कुछ ऐसा करना होगा जिससे लोगों में भरोसा जग सके। इस काम के लिए कांग्रेस को एक बार फिर मज़बूत होना पड़ेगा।
राहुल गाँधी ने ख़ुद कहा है कि उनके परिवार के किसी व्यक्ति को पार्टी अध्यक्ष नहीं बनाया जाना चाहिए। उनकी बात को मानकर कांग्रेस के नेताओं को अपने में से ही किसी को चुन लेना चाहिए और देश को एक मज़बूत और भरोसेमंद विपक्ष देने की कोशिश करनी चाहिए। कांग्रेस को यह भरोसे लोगों को देना चाहिये कि उनकी पार्टी का इतिहास राजनीतिक रूप से गौरवशाली रहा है। यह इसलिये भी ज़रूरी है क्योंकि आज की पीढ़ी के एक बहुत बड़े वर्ग को यह बताया जा रहा है कि जवाहरलाल नेहरू ने देश को कमज़ोर किया। शायद इसका कारण यह है कि कांग्रेस पार्टी वाले नेहरू के वंशजों की जय जयकार में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें नेहरू की विरासत को याद करने का मौक़ा ही नहीं मिल रहा है।
हर बार कैसे जीत जाते थे नेहरू?
यह समझ लेना ज़रूरी है कि जवाहरलाल नेहरू भी इंसान थे, विश्व-विजेता नहीं थे। दुनिया भर में सम्मानित नेता बनने के पहले वह एक ईमानदार कांग्रेस नेता थे। अपने संसदीय क्षेत्र, फूलपुर से चुनाव इसलिए जीत जाते थे कि उनको कहीं से भी मज़बूत विरोध नहीं मिल रहा था, क्योंकि विपक्ष को भी मालूम रहता था कि जवाहरलाल नेहरू की ज़रूरत देश को है। एक बार तो उनके ख़िलाफ़ स्वामी करपात्री जी लड़े थे और एकाध बार स्वामी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने उन्हें चुनौती दी थी। जवाहरलाल नेहरू देश को प्रगति के रास्ते पर ले जा रहे थे तो सभी चाहते थे कि उन्हें कोई चुनावी चुनौती न मिले। लेकिन जब उन्हें चुनौती मिली तो जीत बहुत आसान नहीं रह गयी थी। 1962 के चुनाव में फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू के ख़िलाफ़ सोशलिस्ट पार्टी से डॉ. राम मनोहर लोहिया उम्मीदवार थे। डॉ. लोहिया भी आज़ादी की लड़ाई में शामिल रहे थे। कांग्रेस से अलग होने के पहले वह नेहरू के समाजवादी विचारों के बड़े समर्थक रह चुके थे। बाद में भी एक डेमोक्रेट के रूप में वह नेहरू जी की बहुत इज़्ज़त करते थे। लेकिन जब आज़ादी के एक दशक बाद यह साफ़ हो गया कि जवाहरलाल नेहरू भी समाजवादी कवर के अंदर देश में पूंजीवादी निजाम कायम कर रहे हैं तो डॉ. लोहिया ने जवाहरलाल को आगाह किया था। नतीजा यह हुआ कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने फूलपुर चुनाव में पर्चा दाखिल कर दिया।
संसद में असहमति की आवाज़
ऐसा लगता है कि डॉ. लोहिया भी जवाहरलाल नेहरू को हराना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्होंने फूलपुर चुनाव क्षेत्र में केवल दो सभाएँ कीं। और 1962 में भी जवाहरलाल चुनाव जीत गए। राजनेता के प्रति सम्मान की संस्कृति का दौर उनके जीवनकाल में तो रहा ही, उसके बहुत बाद तक भी रहा। लेकिन आज राजनेता को विरोधी न मानकर दुश्मन मानने की रीति चल पड़ी है। इसको भी ख़त्म करना पड़ेगा। कांग्रेस से समाज और देश को यह अपेक्षा है कि वह संसद में असहमति की आवाज़ बने। कांग्रेस को कोशिश करनी चाहिए कि जिस तरह से जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी को भारी बहुमत की सरकार का मुखिया होने के बावजूद भी विपक्ष की जाँच पड़ताल और निगरानी से गुजरना पड़ा, उसी तरह से भारी बहुमत से जीतकर आई नरेंद्र मोदी की सरकार को भी विपक्ष की निगरानी की कसौटी का सामना करना पड़े। यह उसकी ऐतिहासिक और राजनीतिक ज़िम्मेदारी है। इसके लिए कांग्रेस को एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में अपने आपको स्थापित करना पड़ेगा। राहुल गाँधी ने यह मौक़ा दे दिया है। उनकी माँ और बहन भी इस बात से सहमत नज़र आ रही हैं कि इंदिरा गाँधी परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति को कांग्रेस का नेतृत्व करने का ज़िम्मा सौंपा जाए। जल्द यह काम हो और पार्टी असली विपक्ष की भूमिका में आये।
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