बँटवारा 1947 में लगा एक ऐसा ज़ख्म है जिससे आज भी रह-रह कर दर्द, ग़म, ग़ुस्सा और नफ़रत रिसते रहते हैं। बँटवारे की सांप्रदायिक सियासत ने सिर्फ़ दो मुल्कों के बीच दीवार खड़ी नहीं की, बल्कि दो कौमों के बीच सदियों के साथ के बावजूद मौजूद दरार को और भी गाढ़ा कर दिया है। हिंदू-मुसलमान, पाकिस्तान, बँटवारा, हिंदू राष्ट्र के शोर-शराबे और कटुतापूर्ण विमर्श को समझने के लिए दरअसल बार-बार एक लंबे धारावाहिक फ़्लैशबैक की तरफ़ जाने की ज़रूरत है।

मुहम्मद अली जिन्ना और नाथूराम गोडसे, दोनों ही गाँधी से चिढ़ते थे, उनसे नफ़रत करते थे। एक ने देश का बँटवारा करा दिया, दूसरे ने उनकी हत्या कर दी। नफ़रत का वैसा ही माहौल एक बार फिर बन रहा है। गाँधी के शहादत दिवस पर एक बार फिर यह समझने की ज़रूरत है कि हिन्दू महासभा की नफ़रत ने देश का कितना नुक़सान किया। बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ।
शुरुआत गाँधी से ही करते हैं।
“सब मिलकर मुझको सुनाते हैं कि यहाँ मुसलमान ऐन मौक़े पर दगा़ देने वाले हैं। वे पाकिस्तान का साथ देने वाले हैं और वे पाकिस्तान के लिए हिंदुस्तान के सामने लड़ने वाले हैं। वे लिखते हैं कि 100 में से 98 मुसलमान दगा़बाज़ हैं। मुझको कहना पड़ेगा मैं यह नहीं मानता।”
अगर कोई इस टिप्पणी को बिना किसी पूर्व परिचय या प्रसंग को जाने बग़ैर पढ़े तो लगेगा जैसे यह आज की भारतीय राजनीतिक-सामाजिक स्थिति के बारे में कहा जा रहा है। लेकिन यह टिप्पणी आज से 73 साल पुरानी है। आज़ादी के बाद अक्टूबर के महीने में 5 तारीख़ को एक प्रार्थना सभा में महात्मा गाँधी ने हिंदू-मुसलमान तनाव के मद्देनज़र यह बात कही थी।