बंगाल के विधानसभा चुनाव ने एक बार फिर कई सवाल खड़े कर दिये हैं। जिस तरह हिंदू-मुसलमान में बँटवारा किया जा रहा है, मुसलमानों को पराया बनाने की कोशिश की जा रही है, क्या वह देश हित में है? क्या भारत में अल्पसंख्यक तबक़े को पूरी तरह से हाशिये पर डाल देने की कोशिश सही है? और जो लोग अखंड भारत का सपना लेकर सत्ता पर क़ाबिज़ हैं, और जो विभाजन के दंश से पीड़ित देश को उबारने का दावा करते हैं, क्या वे उस ख़तरे को समझ रहे हैं जिसकी क़ीमत एक बार मुल्क विभाजन के रूप में दे चुका है? पिछले दिनों भारत बँटवारे के लिये ज़िम्मेदार मुहम्मद अली जिन्ना की आत्मकथा पढ़ते हुए ये सवाल दिमाग़ में घूमे! और ऐसा लगा कि आज़ादी के 74 साल बाद देश एक बार फिर ग़लती करने जा रहा है।

जो ग़लती मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान बनवाकर की, भारत में आज वही ग़लती दुहरायी जा रही है। धार्मिक भावनाओं को उभारा जा रहा है। जैसे जिन्ना ने हिंदुओं के ख़िलाफ़ नफ़रत भरी वैसे ही अब भारत में मुसलिमों को टारगेट किया जा रहा है। धार्मिक भावनाओं को भड़का कर चुनाव तो जीते जा सकते हैं, सरकार बनायी जा सकती है, पर क्या इस आधार पर बने मुल्क में शांति रह पाएगी?
आज देश में सांप्रदायिकता का माहौल है। समाज को हिंदू-मुसलमान के खाँचों में डाल दिया गया है। आज़ादी के समय जिस पहचान को ख़त्म करने की कोशिश की गयी थी, उन लकीरों को मिटा दिया गया है। संविधान की पहली शर्त है कि आदमी जाति, धर्म से ऊपर उठकर एक नागरिक के तौर पर अपने अधिकारों को पहचाने और सत्ता से उसके लिए माँग करे। जातीय और धार्मिक पहचान उसकी निजी ज़िंदगी के मील के पत्थर तो हो लेकिन यह पहचान एक भारतीय बनने के रास्ते में बाधक न बने।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।