उत्तराखंड समेत समूचे हिमालयी क्षेत्र में बरसात के मौसम में तो बादल फटने, ग्लेशियर टूटने, बाढ़ आने, ज़मीन दरकने और भूकंप के झटकों की वजह से जान-माल की तबाही होती ही रहती है। ऐसी आपदाओं का कहर कभी उत्तराखंड, कश्मीर और हिमाचल प्रदेश तो कभी पूर्वोत्तर के राज्य अक्सर झेलते रहते हैं। लेकिन यह पहला मौक़ा है जब सर्दी के मौसम में उत्तराखंड में ग्लेशियर टूटने के रूप में कुदरत का कहर बरपा है।
आश्चर्यजनक रूप से सर्दी के मौसम में घटी यह घटना एक नए ख़तरे की ओर इशारा करती है। कहने को तो यह ख़तरा प्राकृतिक है और इसे जलवायु चक्र में हो रहे परिवर्तन से भी जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन असल में यह मनुष्य की खुदगर्जी और विनाशकारी विकास की भूख से उपजा संकट है।
पिछली बार जब 2013 में केदारनाथ और 2014 में कश्मीर में बाढ़ से भीषण तबाही हुई थी, तब तमाम अध्ययनों के बाद चेतावनी दी गई थी कि अगर पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई और नदियों के बहाव से अतार्किक छेड़छाड़ या उसके दोहन पर रोक नहीं लगाई गई तो नतीजे भयावह होंगे। कुछ साल पहले पूर्वोत्तर में आए भूकंप के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विभाग से जुड़े वैज्ञानिकों ने भी चेतावनी दी थी कि पहाड़ों और नदियों से छेड़छाड़ का सिलसिला रोका नहीं गया तो आने वाले समय में समूचे उत्तर भारत में भीषण तबाही मचाने वाला भूकंप आ सकता है।
इन सारी आपदाओं और उनके मद्देनज़र दी गई चेतावनियों का एक ही केंद्रीय संकेत रहा है कि हिमालय को लेकर अब हमें गंभीर हो जाना चाहिए। दुनिया के जलवायु चक्र में तेज़ी से हो रहे परिवर्तन के चलते हिमालय का मामला इसलिए भी बहुत ज़्यादा संवेदनशील है कि यह दुनिया की ऐसी बड़ी पर्वतमाला है, जिसका अभी भी विस्तार हो रहा है। इस पर मंडराने वाला कोई भी ख़तरा सिर्फ़ भारत के लिए ही नहीं बल्कि चीन, नेपाल, भूटान, अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार आदि देशों के लिए भी संकट खड़ा कर सकता है।
इस ख़तरे की तमाम चेतावनियों और आहटों के बावजूद न तो सरकारें सचेत हैं और न ही आम लोग। दोनों की ओर से विनाशकारी विकास की गतिविधियाँ धड़ल्ले से जारी हैं।
इस सिलसिले में मध्य हिमालयी भूभाग की कच्ची चट्टानें काट कर बनाये जा रहे विशाल बांधों के अलावा चार धाम ऑल वेदर रोड परियोजना उल्लेखनीय है, जिसका काम इस समय वहाँ जोर-शोर से जारी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस स्वप्निल परियोजना ड्रीम प्रोजेक्ट के काम की तेज़ी, मशीनों का शोर इतना ऊँचा है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी के नोटिसों की फड़फड़ाहट भी किसी को सुनाई नहीं देती। यह चार हिंदू तीर्थों बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को आपस में चौड़ी और हर मौसम में खुली रहने वाली आठ लेन की सड़क से जोड़ने की परियोजना है। इस परियोजना के तहत धड़ल्ले से साफ़ किए जा रहे जंगल और पहाड़ों को काटने के लिए किए जा रहे विस्फोट ही वहाँ आपदा को न्योता दे रहे हैं। चमोली ज़िले में ग्लेशियर टूटने से आई आपदा को इसी रूप में देखा जा सकता है।
दरअसल, भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट पारिस्थितिकी की कुंजी हिमालय का भूगोल है। लेकिन हिमालय की पर्वतमालाओं के बारे में पिछले दो-ढाई सौ बरसों में हमारे अज्ञान का लगातार विस्तार हुआ है। इनको जितना और जैसा बर्बाद अंग्रेजों ने दो सौ सालों में नहीं किया था उससे कई गुना ज़्यादा इनका नाश हमने पिछले साठ-पैंसठ सालों में कर दिया है। इनकी भयावह बर्बादी को ही दक्षिण-पश्चिम एशिया के मौसम चक्र में बदलाव की वजह बताया जा रहा है, जिससे हमें कभी भीषण गर्मी का कहर तो कभी जानलेवा सर्दी का सितम झेलना पड़ता है और कभी बादल फट पड़ते हैं तो कभी धरती दरकने या डोलने लगती है, पहाड़ धँसने लगते हैं।
कुछ साल पहले पूर्वोत्तर और उसके बाद समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को बुरी तरह हिला देने वाले नेपाल के भूकंप और उससे पहले उत्तराखंड और कश्मीर में आई प्रलयंकारी बाढ़ को भी इसी रूप में देखा जा सकता है।
हज़ारों-हज़ार ज़िंदगियों को लाशों में तब्दील कर गई तथा लाखों लोगों को बुरी तरह तबाह कर गई इन त्रासदियों को दैवीय आपदा कहा गया लेकिन हक़ीक़त यह है कि यह मानव निर्मित आपदाएँ ही थी जिसे विकास और आधुनिकता के नाम पर न्यौता जा रहा था और अभी भी यह सिलसिला जारी है।
दरअसल, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कभी भी हिमालय और इससे जुड़े मसलों पर कोई गंभीर विमर्श हुआ ही नहीं, क्योंकि हम इसकी भव्यता और इसके सौंदर्य में ही खो गए। जबकि हिमालय को इसकी विराटता, इसके सौंदर्य और इसकी आध्यात्मिकता से इतर इसकी सामाजिकता, इसके भूगोल, इसकी पारिस्थितिकी, इसके भू-गर्भ, इसकी जैव-विविधता आदि की दृष्टि से भी देखने और समझने की ज़रूरत है।
हिमालय को हमेशा देश के किनारे पर रखकर इसके बारे में बड़े ही सतही तौर पर सोचा गया है, जबकि यह हमारे या अन्य एक-दो देशों का नहीं, बल्कि पूरे एशिया के केंद्र का मामला है। हिमालय एशिया का वाटर टावर माना जाता है और यह बड़े भू-भाग का जलवायु निर्माण भी करता है। लिहाज़ा हिमालय क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा से ज़्यादा छेड़छाड़ घातक साबित हो सकती है।
पहाड़ी इलाक़ों में पर्यटन को बढ़ावा देना राजस्व के अलावा स्थानीय लोगों के रोज़गार की दृष्टि से ज़रूरी माना जा सकता है। लेकिन इसकी आड़ में हिमालयी राज्यों की सरकारें होटल-मोटल, पिकनिक स्थल, शॉपिंग मॉल आदि विकसित करने, बिजली, खनन और दूसरी विकास परियोजनाओं और सड़कों के विस्तार के नाम पर निजी कंपनियों को मनमाने तरीक़े से पहाड़ों और पेड़ों को काटने की धड़ल्ले से अनुमति दे रही हैं।
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य, सबकी़ दास्तानें एक जैसी दर्दनाक हैं। ये सभी इलाक़े कई विशिष्ट कारणों से सैलानियों के आकर्षण के केंद्र हैं, इसलिए कई निजी कंपनियों ने यहाँ क़ारोबारी गतिविधियाँ शुरू कर दी हैं।
हालाँकि स्थानीय बाशिंदे और पर्यावरण के लिए काम करने वाले स्वयंसेवी संगठन इन इलाक़ों में पहाड़ों और वनों की कटाई के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते रहे हैं, लेकिन सरकारी सरपरस्ती हासिल होने के कारण ये आपराधिक क़ारोबारी गतिविधियाँ निर्बाध रूप से चलती रहती हैं।
पर्यावरण संरक्षण के मक़सद से ज़्यादातर पहाड़ी इलाक़ों में बाहरी लोगों के ज़मीन-जायदाद खरीदने पर क़ानूनन पाबंदी है, लेकिन ज़्यादा से ज़्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में इन पहाड़ी राज्यों की सरकारों के लिए इस क़ानून का कोई मतलब नहीं रह गया है और कई कंस्ट्रक्शन कंपनियाँ पहाड़ों में अपना क़ारोबार फैला चुकी हैं। जिन इलाक़ों में दो मंजिल से ज़्यादा ऊँची इमारतें बनाने पर रोक थी, वहाँ अब बहुमंजिला आवासीय और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो गई हैं। बड़ी इमारतें बनाने और सड़कें चौड़ी करने के लिए ज़मीन को समतल बनाने के लिए विस्फोटकों के ज़रिए पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई-छँटाई से पहाड़ इतने कमज़ोर हो गए हैं कि थोड़ी सी बारिश होने पर वे धँसने लगते हैं और पहाड़ों का जनजीवन कई-कई दिनों के लिए गड़बड़ा जाता है।
पहाड़ी इलाक़ों में भवन निर्माण का क़ारोबार फैलने के साथ ही सीमेंट, बिजली आदि का उत्पादन करने वाली कंपनियों ने भी इन इलाक़ों में प्रवेश कर लिया है। पर्यावरण संरक्षण संबंधी क़ानूनों के तहत पहाड़ी और वनीय इलाक़ों में कोई भी औद्योगिक या विकास परियोजना शुरू करने के लिए स्थानीय पंचायतों की अनुमति ज़रूरी होती है, लेकिन राज्य सरकारें ज़मीन अधिग्रहण संबंधी अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए विकास के नाम पर आमतौर पर कंपनियों के साथ खड़ी नज़र आती हैं। इन सबके ख़िलाफ़ जन-प्रतिरोध का किसी सरकार पर कोई असर नहीं होता देख अब लोगों ने अदालतों की शरण लेनी शुरू कर दी है।
अब तो अदालतें भी ऐसे मामलों में थोड़े-बहुत किंतु-परंतु लगाने की औपचारिकता निभाते हुए जिस तरह सरकारों के सुर में सुर मिलाने लगी हैं, उसे देखते हुए उनके भरोसे ही सब कुछ छोड़कर बेफिक्र नहीं हुआ जा सकता। यह सच है कि सरकारों की मनमानी पर अदालतें ही अंकुश लगा सकती हैं, लेकिन सिर्फ़ अदालतों के भरोसे ही सब कुछ छोड़कर बेफिक्र नहीं हुआ जा सकता। राजनीतिक नेतृत्व और स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) का तो चाल-चलन ही उनसे यह उम्मीद करने की इजाज़त नहीं देता कि वे हिमालय की हिफाजत के लिए कोई ईमानदार पहल करेंगे।
पिछले दो दशक में रियो से शुरू होकर मैड्रिड तक सालाना जलवायु वार्ताएँ हुईं, जिनमें दक्षिण एशिया की सरकारों के नुमाइंदों ने भी शिरकत की। एक दशक पहले 2011 में डरबन के जलवायु सम्मेलन में हिमालय क्षेत्र के भविष्य के बारे में काफ़ी गहरी चिंताएं उभर कर सामने आई थीं, लेकिन उस सम्मेलन में भी कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं तलाशा जा सका था।
दरअसल, पहाड़ों को और पर्यावरण को बचाने के लिए ज़रूरत है एक व्यापक लोक चेतना अभियान की, जिसका सपना पचास के दशक में डॉ. राममनोहर लोहिया ने 'हिमालय बचाओ' का नारा देते हुए देखा था या जिसके लिए गांधीवादी पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा ने 'चिपको आंदोलन' शुरू किया था। हालाँकि संदर्भ और परिप्रेक्ष्य काफ़ी बदल चुके हैं लेकिन उनमें वैकल्पिक सोच के आधार-सूत्र तो मिल ही सकते हैं।
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