देश के मौजूदा तनाव भरे माहौल के बीच अपने गणतंत्र के 71 वें वर्ष में प्रवेश करते वक्त हमारे लिए सबसे बड़ी चिंता की बात यही हो सकती है कि क्या वाकई तंत्र और गण के बीच उस तरह का सहज और संवेदनशील रिश्ता बन पाया है जैसा कि एक व्यक्ति का अपने परिवार से होता है? आखिर आज़ादी और फिर संविधान के पीछे मूल भावना तो यही थी। आज़ादी मिलने से पहले महात्मा गाँधी ने इस संदर्भ में कहा था -

भारत में गांवों में आबादी लगातार घटती जा रही है और तेजी से शहरीकरण हो रहा है। यह संविधान की भावना के विपरीत तो है ही इससे गण और तंत्र के बीच की खाई लगातार गहरी होती जा रही है।
“मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करुंगा जिसमें छोटे से छोटे व्यक्ति को भी यह अहसास हो कि यह देश उसका है, इसके निर्माण में उसका योगदान है और उसकी आवाज़ का यहां महत्व है। मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करुंगा जिसमें ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं होगा, जो स्त्री-पुरुष के बीच समानता की बात करेगा और जिसमें नशे जैसी बुराइयों को ख़त्म करने की बात होगी।”