भारत में जाति आधारित जनगणना अंतिम बार 1931 में हुई थी। उसी आधार पर मंडल कमीशन ने अनुमान लगाया था कि देश की 52 प्रतिशत आबादी पिछड़े वर्ग की है। साथ ही सिफ़ारिश भी की थी कि नए सिरे से जातीय जनगणना कराई जाए, जिससे वंचित तबक़े की वास्तविक संख्या के बारे में जानकारी हासिल की जा सके। इसके अलावा 17 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जाति और 7.5 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जाति की मानी जाती है। इसमें ओबीसी की संख्या बढ़ने की संभावना है क्योंकि तमाम जातियों को समय-समय पर सामान्य से ओबीसी वर्ग में शामिल किया जाता रहा है। अगली जनगणना होने को है। सरकार पर दबाव बन रहा है कि जातीय जनगणना कराई जाए, वहीं वह रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस तैयार कराने की घोषणा कर चुकी है।
2011 की जनगणना के पहले समाजवादी विचारधारा के दलों ने तत्कालीन सरकार पर ज़ोरदार दबाव बनाया कि जाति आधारित जनगणना कराई जाए। उसका मक़सद यह था कि कंप्यूटर के इस काल में आसानी से ये सटीक आँकड़े आ सकेंगे कि पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति की संख्या कितनी है। पिछड़े वर्ग की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति को देखते हुए जातीय आधार पर पहचान की गई थी, इसलिए यह जान लेना अहम हो जाता है कि किस जाति की क्या स्थिति है।
सरकारी नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ न पाने वाला तबक़ा लंबे समय से यह कहता रहा है कि कुछ जातियाँ ऐसी हैं, जिन्हें पर्याप्त भागीदारी मिल गई है, वे अमीर हैं, इसके बावजूद आरक्षण का लाभ ले रहे हैं। हालाँकि इसका कोई ठोस आँकड़ा नहीं है कि वह ऐसी बातें किस आधार पर कहता है।
2011 की जनगणना के पहले लालू प्रसाद ने ज़ोरदार दलील देते हुए कहा था कि सामाजिक आर्थिक और जातीय जनगणना से ही यह साफ़ हो पाएगा कि किस समाज के हिस्से कितनी मलाई आई है और कौन वास्तव में वंचित है। उन्होंने जातीय आँकड़ों के साथ निजी क्षेत्र में काम करने वाले, लोगों की ज़मीन-जायदाद व सुख-सुविधा की स्थिति के ब्योरे की भी जानकारी मुहैया कराने का मसला उठाया था। कांग्रेस सरकार ने जातीय जनगणना कराई भी, लेकिन उसके आँकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए, जिसकी माँग लालू प्रसाद करते रहे हैं।
जनगणना में लोगों के घर में टीवी, फ़्रीज, कार, स्कूटर आदि है या नहीं, इसके बारे में पूछा जाता है। मलाई खा जाने का आरोप झेल रही वंचित जातियों की यह लंबे समय से माँग रही है कि जाति आधारित जनगणना कराई जाए और अगर सचमुच देश के संसाधनों, सरकारी व निजी नौकरियों, शिक्षा, न्यायपालिका आदि में उन्हें उचित प्रतिनिधित्व मिल गया है तो उन्हें आरक्षण से वंचित किया जाए। और अगर संसाधनों में प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं है तो उन्हें अतिरिक्त संरक्षण देकर एक सामान्य जीवन स्तर पर लाने का इंतज़ाम किया जाए।
ऐसा करने में पता नहीं क्यों सरकारें डरती रही हैं। बीजेपी भी इसका समर्थन करती नज़र नहीं आती। अगर पार्टी को दलित पिछड़ा विरोधी कहा जाए तो आरएसएस-बीजेपी के समर्थक यह तत्काल गिनाने लगते हैं कि उन्होंने दलित राष्ट्रपति, ओबीसी प्रधानमंत्री और ओबीसी उपराष्ट्रपति बनाया है।
और जब आरएसएस-बीजेपी समर्थकों से यह पूछा जाता है कि केंद्र सरकार के सचिवालयों व प्रधानमंत्री कार्यालय से ओबीसी-एससी-एसटी क्यों ग़ायब हैं तो वे चुप्पी साध लेते हैं।
वहीं ऐसे तमाम आँकड़े आते रहे हैं कि विश्वविद्यालयों से लेकर तमाम संस्थानों और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में शीर्ष पदों पर ओबीसी-एससी-एसटी नदारद हैं। उच्च और उच्चतम न्यायालयों में ओबीसी-एससी-एसटी नाम मात्र के हैं, हालाँकि वहाँ आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं है।
एनआरसी और सीएए का नाटक क्यों?
ऐसे में यह संदेह होना लाज़मी है कि जनगणना क़रीब आते ही सरकार ने नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) और नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) का नाटक क्यों शुरू कर दिया है? देश में वोटर आईडी अपने आप में नागरिकता है। भारत के संविधान में मतदान करने का हक उसी को है, जो भारत का नागरिक है। अगर सरकार को नागरिकता चेक करनी है तो वोटर आईडी ही पर्याप्त होना चाहिए था। असम में 1979 से ग़ैर असमियों को राज्य से बाहर करने का अभियान चला। अभियान चलाने वाला ग्रुप प्रफुल्ल कुमार मोहंता के नेतृत्व में 2 बार सरकार में आया। उसे समझ में ही न आया कि कैसे पहचान की जाए कि कौन असमी है और कौन ग़ैर-असमी। आंदोलनकारियों की कवायद, कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद एनआरसी लागू हुआ। राज्य में क़रीब 52,000 कर्मचारियों में दिन रात 3 साल तक ऊर्जा ख़र्च करके एनआरसी तैयार किया।
देश भर के सरकारी कर्मचारी एनआरसी लागू होने के 3-4 साल तक एनआरसी सूची तैयार करेंगे। देश की सवा अरब आबादी भागदौड़ कर आँकड़े जुटाएगी कि वह अपने आपको भारत का नागरिक कैसे साबित करे। और जो लोग नागरिकता साबित नहीं कर पाएँगे, उन्हें डिटेंशन कैंप में रखा जाएगा।
सरकार वंचित तबक़े को मुख्य धारा में नहीं लाना चाहती। शायद इसीलिए वह अफ़रा-तफ़री पैदा करने की कवायद में है। एक अनुमान यह भी है कि छोटे-छोटे उद्योगों व असंगठित क्षेत्र में बहुत मामूली वेतन पर और ख़राब परिस्थितियों में काम करने वाले ज़्यादातर ओबीसी-एसटी-एससी वर्ग के लोग होते हैं। वह आँकड़े सार्वजनिक नहीं करना चाहती कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण कितने लाख लोग बेरोज़गार होकर सड़क पर आ गए हैं। अगर सरकार को नागरिकता जाँच करनी है तो वह जनगणना के दौरान भी ऐसा कर सकती है, वोटर लिस्ट तैयार करते समय भी कर सकती है। अलग से देश की सवा अरब से ऊपर आबादी से भारत का नागरिक होने का साक्ष्य माँगने की तैयारी कर रही सरकार दरअसल जातीय जनगणना कराने की माँग से डरी हुई है।
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