पहले सोनिया गांधी की ईडी के सामने पेशी। फिर मनीष सिसोदिया के ख़िलाफ़ सीबीआई की जाँच और पार्थ चटर्जी की गिरफ़्तारी। तीन अलग-अलग दलों के नेताओं के ख़िलाफ़ जाँच एजेंसियों का शिकंजा। वो भी एक हफ़्ते में। फिर विपक्षी दलों की नींद न टूटे तो क्या कहा जाये! क्या इन्हें अभी भी इस बात का अंदाजा नहीं है कि मोदी सरकार एक-एक कर सबको ख़त्म करने की योजना पर काम कर रही है और वो दिन दूर नहीं है जब देश में विपक्ष नाम की कोई चिड़िया नहीं बचेगी? इन दलों का कोई नाम लेवा भी नहीं होगा? इसके बावजूद विपक्ष को कोई जुंबिश नहीं है कि आख़िर इस विपत्ति का सामना कैसे किया जाये? न कोई सोच दिखाई पड़ती है और न ही कोई रणनीति। दिखाई पड़ते हैं तो आपसी झगड़े, एक दूसरे को निपटा देने की गीदड़ भभकियाँ। ऐसा लगता है कि संपूर्ण विपक्ष सामूहिक आत्महत्या करने की तैयारी कर रहा है।

जो विपक्षी दल एक दूसरे को फूटी आंख नहीं देख सकते वो कैसे लड़ेंगे? विचार शून्य, आत्ममुग्ध, असुरक्षाभाव से ग्रसित विपक्ष से कोई लोहिया या जेपी बनने की उम्मीद न लगाये। यहाँ सब के अपने घोंसले हैं, ये घोंसला बचा रहे बस यही चिंता है।
अभी राष्ट्रपति के चुनाव में विपक्षी एकता की कलई खुली है। ममता कहती हैं कि अगर उन्हें पता होता कि द्रौपदी मुर्मू सरकार की तरफ़ से उम्मीदवार होने वाली हैं तो वो कभी भी सिन्हा का नाम आगे नहीं बढ़ातीं। उपराष्ट्रपति के नाम पर मार्ग्रेट अल्वा का नाम इसलिये पसंद नहीं है कि उनसे इस बारे में कोई सलाह नहीं ली गई। इसका मतलब साफ़ है कि ममता की कोई विचारधारा नहीं है।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।