गुजरात में इस साल 15 अगस्त को सामूहिक बलात्कार और हत्या के दोषी 11 लोगों की जेल से रिहाई के बाद अब उन सभी बलात्कारियों और हत्यारों के लिए मुक्ति का द्वार खुल गया है जो 20 साल पहले हुए गुजरात दंगों में इन अपराधों के दोषी पाए गए थे। शर्त बस यह है कि उनकी सज़ा का फ़ैसला 2014 से पहले हुआ हो ताकि उनको 1992 की उस नीति का फ़ायदा मिल जाए जिसमें बलात्कारियों-हत्यारों तक को सज़ा में छूट का अधिकार प्राप्त था।
2014 और 1992। दो ऐसे साल जो भाजपा और संघ परिवार के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ था और 2014 में नरेंद्र मोदी पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने थे। नीचे हम देखेंगे कि कैसे ये दोनों साल - 1992 और 2014 - गुजरात दंगों के अपराधियों के लिए राहत बनकर आ रहे हैं।
दरअसल, 2002 के गुजरात दंगों के दौरान हत्या या बलात्कार करने वाला कोई उम्रक़ैदी आज की तारीख़ में जेल से बाहर आएगा या नहीं, तय करने में यह साल - 2014 - बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। अगर दो लोग हैं जिनको हत्या या बलात्कार के अपराध में उम्रक़ैद की सज़ा मिली है और दोनों ने 14 साल क़ैद में गुज़ार लिए हैं तो जिसको सज़ा 2014 से पहले मिली है, वह रिहा हो सकता है और जिसको सज़ा 2014 या उसके बाद हुई है, उसे रिहाई नहीं मिलेगी।
ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि उम्रक़ैद की सज़ा पाए लोगों को छूट देने के बारे में जो नीति गुजरात में 1992 से चल रही थी, उसमें बलात्कारियों और हत्यारों तक को 14 साल के बाद रिहा करने का प्रावधान था लेकिन 2014 के बाद जो नीति बनी, उसमें ऐसे क़ैदियों की सज़ा में छूट देने का प्रावधान हटा दिया गया।
लेकिन यहीं एक बड़ा प्रश्न खड़ा हो जाता है कि हत्या या बलात्कार की सज़ा भुगत रहा कोई व्यक्ति अगर आज अपनी सज़ा में छूट चाहता है तो उसकी सज़ा में छूट का फ़ैसला आज की तारीख़ में लागू नीति के अनुसार होगा या 2014 से पहले लागू नीति के अनुसार।
यह एक बहुत बड़ा सवाल है। बिल्किस बानो मामले के दोषियों की तरफ़ से कहा गया था कि उनको सज़ा में छूट का फ़ैसला 2014 से पहले लागू नीति (यानी 1992 की नीति) के अनुसार हो क्योंकि जिस साल (2008) उन्हें सज़ा दी गई, उस समय 1992 की ही नीति लागू थी।
सुप्रीम कोर्ट ने मई 2022 में उनकी बात मान ली और राज्य सरकार से कहा कि इनको छूट देने के बारे में फ़ैसला 1992 की नीति के अनुसार हो क्योंकि इनकी सज़ा की घोषणा 2008 में हुई थी जब 1992 की ही नीति लागू थी।
और जैसा कि हमने ऊपर बताया, 1992 की नीति के अनुसार किसी भी उम्रक़ैदी को 14 साल की क़ैद के बाद रिहा किया जा सकता है भले ही वह हत्या और सामूहिक बलात्कार जैसे घिनौने अपराधों का दोषी हो। इसी का फ़ायदा इन 11 क़ैदियों ने उठाया। अगर उनको सज़ा 2014 के बाद दी गई होती तो आज भी वे जेल में होते क्योंकि उसके तहत ऐसे अपराधियों को सज़ा में छूट नहीं दी जा सकती।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि 2014 से पहले जिन लोगों को उम्रक़ैद की सज़ा हुई है, उन सभी को 14 साल के बाद रिहा किया जा सकता है। अगर ऐसा होता तो फिर उम्रक़ैद को उम्रक़ैद क्यों कहा जाता? उसे 14 साल ही सज़ा क्यों न कहा जाता?
उम्रक़ैद पाए हर व्यक्ति को 14 साल बाद अपने-आप रिहा न कर दिया जाए, इसको ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कुछ पैमाने तय किए हैं जिसके आधार पर तय किया जाना चाहिए कि किसे सज़ा में छूट दी जाए और किसे नहीं।
ये पैमाने हैं -
- क्या किया गया अपराध एक ऐसा वैयक्तिक कृत्य है जिससे समाज प्रभावित नहीं होता?
- क्या इसकी संभावना है कि दोषी फिर से वही अपराध नहीं करेगा?
- क्या अपराधी वैसा ही अपराध करने की अपनी क्षमता खो चुका है?
- क्या दोषी को क़ैद में रखने से कोई प्रयोजन सिद्ध होता है?
- दोषियों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति कैसी है?
इन पैमानों को ध्यान में रखा जाए तो पहले ही बिंदु के आधार पर बिल्किस बानो मामले के 11 दोषियों को छूट नामंज़ूर हो जानी चाहिए क्योंकि उनका अपराध देश और समाज को बुरी तरह प्रभावित करता है और उनके बाहर आने से न सिर्फ़ पीड़ित परिवार को बल्कि पूरे देश में यह संदेश जाता है कि एक ऐसा जघन्य अपराध जिसमें एक ख़ास समूह को टार्गेट करते हुए एक गर्भवती युवती से सामूहिक बलात्कार किया जाता है, तीन साल की बच्ची को ज़मीन पर पटककर मारा जाता है और छह अन्य लोगों की हत्या कर दी जाती, वह भी माफ़ी और छूट के दायरे में आ सकता है।
बिल्किस बानो मामले में दोषियों को जिस तरह छूट दी गई, अगर वैसी ही छूट दूसरे लोगों को भी मिले तो आश्चर्य नहीं कि जल्दी ही बाबू बजरंगी, जो अभी ज़मानत पर है, बाक़ायदा छूटकर बाहर आ जाए क्योंकि उसको भी 2012 में (यानी 2014 से पहले) उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई थी।
याद करें, यह वही बाबू बजरंगी है जिसने तहलका के रिपोर्टर को कहा था - “मेरी एक आख़िरी इच्छा है… मुझे मौत की सज़ा दे दी जाए… मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि मुझे फाँसी दे दी जाए… बस मुझे फाँसी से दो दिन पहले खुला छोड़ दिया जाए और मुझे जूहापुरा जाने दिया जाए जहाँ ये 7 से 8 लाख लोग रहते हैं… मैं उन सबको ख़त्म कर दूँगा… और भी कई जानें जानी चाहिए… कम-से-कम 25 से 50 हज़ार लोगों को मरना चाहिए।”
किसी भी अपराधी की सज़ा में छूट देने का निर्णय करते समय जिस बात पर सबसे ज़्यादा ग़ौर करना चाहिए, वह यह कि क्या क़ैदी को अपने अपराध के लिए वास्तविक पछतावा है। बिल्किस बानो के मामले में जिन 11 क़ैदियों को गुजरात सरकार की 'कृपा’ से रिहाई मिली है, उनमें से किसी ने पछतावा ज़ाहिर नहीं किया है। वे या उनके परिजन यह मानते ही नहीं हैं कि उन्होंने कोई गुनाह किया है और आज भी कह रहे हैं कि उनको फँसाया गया है। उनके परिजन उनको माला पहना रहे हैं जैसे वे कोई महान कार्य करके लौटे हों।
इन 11 हत्यारों-बलात्कारियों को या भविष्य में बाबू बजरंगी जैसे वहशियों को इस तकनीकी आधार पर क़ैद से रिहा कर देना कि उनकी सज़ा 2014 से पहले हुई थी, भारतीय न्याय के प्रति लोगों का जो भी बचा-खुचा विश्वास है, उसे भी ख़त्म कर देगा।
क्या जिस सुप्रीम कोर्ट ने इन 11 लोगों के मामले में 'विचार' करने का निर्देश दिया था और जिसका लाभ उठाते हुए इन 11 लोगों को रिहाई मिली है, वही सुप्रीम कोर्ट अब यह भी देखेगा कि किस तरह छूट के बारे में उसी के द्वारा तय पैमानों का इस मामले में घोर उल्लंघन किया गया है?
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