भारतीय जनता पार्टी पूरी कोशिश कर रही है कि किसी तरह से ‘लालू यादव के जंगल राज’ का मुद्दा चला कर अपने और नीतीश कुमार के जनाधार के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से को महागठबंधन की तरफ खिसकने से रोक लिया जाए। यह अलग बात है कि चुनावी मुहिम की शुरुआत से ही अपनायी जा रही यह रणनीति पहले चरण के मतदान तक 50 फ़ीसदी तो नाकाम हो ही चुकी है।
ध्यान रहे कि राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़) ने पहले ‘उनके 15 साल बनाम हमारे 15 साल’ का फिकरा उछाला था, ताकि ‘लालू के जंगल राज’ के मु़काबले ‘सुशासन बाबू’ की हुक़ूमत को पेश किया जा सके। लेकिन जल्दी ही इस रणनीति की हवा निकल गई।
15 साल का कथित सुशासन जैसे ही आर्थिक विकास, पूँजी निवेश और रोज़गार के अवसरों की कसौटी पर कसा गया, वैसे ही पता चल गया कि प्रदेश का विकास अगर लालू के राज में नहीं हुआ था, तो नीतीश के राज में भी नहीं हुआ है।
नीतीश के साथ रही बीजेपी
दरअसल, स्थिति उत्तरोत्तर ख़राब हुई है और इसमें जितनी भूमिका नीतीश के मुख्यमंत्रित्व की है, उससे कम बीजेपी की नहीं है। आखिर ढाई साल छोड़ कर बीजेपी लगातार नीतीश के साथ जोड़ी बना कर बिहार पर राज करती रही है। इसलिए, अब प्रधानमंत्री भी अपने भाषणों में नीतिश राज की खूबियाँ नहीं बताते। केवल लालू राज की बुराई करते हैं। नतीजा यह हुआ है कि आधी रह जाने के कारण यह रणनीति वोटरों को प्रभावित नहीं कर पा रही है।मुसलिम-यादव
पर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का साथ छोड़ कर दोबारा बीजेपी का दामन थामने के कारण पसमांदा मुसलमान उनसे पूरी तरह से फिरंट हो चुके हैं। ऊपर से उन्हें डर यह है कि कहीं ग़ैर-यादव ओबीसी और ईसीबी का एक बड़ा हिस्सा सरकार विरोधी भावनाओं (जो नीतीश राज के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर हैं) के चलते राजद को वोट देने का मन न बना ले।बीजेपी को अंदेशा यह है कि जहाँ उसके अपने उम्मीदवार नहीं हैं, या जहाँ नीतीश के उम्मीदवार लड़ रहे हैं वहाँ ऊँची जातियाँ जनता दल (युनाइटेड) को वोट न दे कर महागठबंधन का दामन थाम सकती हैं।
रणनीति बैठेगी उल्टी?
चूँकि ‘जंगल राज’ के आरोप के मुक़ाबले रखने के लिए ‘सुशासन बाबू का विकास’ है ही नहीं, इसलिए यह भी हो सकता है कि बार-बार लालूराज का ज़िक्र करने से पिछड़ी और दलित जातियों को कथित जंगल राज के बजाय लालू का वह सामाजिक न्याय न याद आ जाए जिसके तहत कमज़ोर जातियों को रंग-रुतबे वाले तबकों के मुक़ाबले मिलने वाली ‘इज्ज़त की राजनीति’ का पहला मनोवैज्ञानिक उछाल मिला था। यानी बीजेपी की यह आधी रणनीति भी उसके ख़िलाफ़ उल्टी बैठ सकती है।अगर दुर्बल समुदायों के दिमाग में लालू राज के इस ऐतिहासिक योगदान की वापसी हो गई, तो नीतीश की राजनीति तो ख़ात्मे के कगार पर पहुँच ही जाएगी, बीजेपी की अभी तक की सभी कोशिशें मटियामेट हो जाएँगी।
'बाबू साहेब' वाला बयान
तेजस्वी ने अपने एक भाषण में अपने पिता के शासन के इसी पहलू को लोकप्रिय ढंग से सामने रखने की कोशिश की है। बीजेपी की तरफ से प्रचार यह किया जा रहा है कि उनके ‘बाबू साहेब’ वाले वक्तव्य के कारण ऊँची जातियों के बीच महागठबंधन की बनती हुई साख को बहुत धक्का लगा है। दरअसल, अगर ऊँची जातियाँ महागठबंधन को वोट देंगी तो उसका कारण नीतीश के विरोध में संचित सरकार विरोधी भावनाओं से ज़्यादा जुड़ा होगा।बेरोज़गारी
नीतीश-बीजेपी की समस्या केवल यहीं तक नहीं है। तेजस्वी यादव ने चुनाव के विमर्श को हिंदू-मुसलमान, पाकिस्तान-हिंदुस्तान जैसे साम्प्रदायिक मुद्दों से हटा कर रोज़गार जैसे आर्थिक प्रश्न के साथ सफलतापूर्वक जोड़ दिया है। पहली नज़र में ऐसा लगने लगा है कि बिहार का चुनाव आर्थिक प्रश्नों के इर्दगिर्द होने जा रहा है। अगर ऐसा हुआ तो यह हमारी लोकतांत्रिक राजनीति के लिए मोटे तौर पर एक नयी बात होगी।सुशासन को वोट!
दूसरी तरफ होता यह है कि आर्थिक प्रश्न को सुशासन या कुशासन का मुद्दा दबा देता है। क़ानून-व्यवस्था की समस्या लोगों की ज़िंदगी को असुरक्षा से भर देती है, और जैसे ही कोई पार्टी, नेता या सरकार द्वारा सख़्ती बरतते हुए इस मोर्चे पर सुधार किया जाता है, वैसे ही जनता बदले में जम कर समर्थन देने पर उतर आती है। लेकिन, अपने जीवन को सुरक्षित बनाने का फौरी लक्ष्य वेधने के चक्कर में वोटर प्रदेश की आर्थिक दुर्गति की अनदेखी करते रह जाते हैं। कथित ‘सुशासन’ करने वाला नेता बार-बार अपनी प्रशासनिक कुशलता के कारण जीतता रहता है।आर्थिक समृद्धि की दौड़ में बिहार के पिछड़ेपन की हक़ीक़त से शायद ही कोई असहमत हो, लेकिन इसके बावजूद पिछले 15 साल से एक ऐसा नेता चुनाव जीत रहा है जिसकी छवि ‘सुशासन बाबू’ की है।
युवा वोटर
प्रदेश के चुनाव में यह मोड़ मुख्य तौर से वोटरों के विन्यास में हुए एक परिवर्तन से आया है। इस समय बिहार के कुल वोटरों का तक़रीबन 51 फ़ीसदी 18 से 39 साल की उम्र तक का है (7.18 करोड़ में से 3.66 करोड़)। इसका मतलब यह हुआ कि 1995 में जब लालू यादव ने पहली बार पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था, उस समय इनमें से बहुतों का जन्म भी नहीं हुआ था, और जो लोग आज तीस-चालीस साल के हैं वे उस समय ज़्यादा से ज़्यादा पाँच से दस साल के रहे होंगे।सरकार से सवाल
जवानी की इसी बहार ने चुनावी मुद्दों में वह परिवर्तन किया है, जिसे मैं आर्थिक प्रश्न पर चुनाव होना कह रहा हूँ। चूँकि ज़्यादातर वोटर युवा हैं, इसलिए अचानक बेरोज़गारी का सवाल प्रचार मुहिम के केंद्र में आ गया है। यह सवाल पूछा जा रहा है कि 15 से 29 साल की काम करने में समर्थ श्रमशक्ति बेरोज़गार क्यों है?इन आँकड़ों की रोशनी में पूछा जा सकता है कि अगर लालू यादव का कार्यकाल विकास-विरोधी था, तो नीतीश कुमार के कार्यकाल को क्या कहा जाएगा?
मनरेगा में भी नाकामी
नीतीश की सरकार महात्मा गाँधी ग्रामीण रोज़गार योजना का बेहतर इस्तेमाल करने में भी नाकाम रही। यह देख कर ताज्जुब होता है कि इस सरकार के तहत 2019-20 में केवल 20,445 परिवारों को ही 100 दिन का काम मिल सका। आबादी के मु़क़ाबले यह प्रतिशत 0.5 है, जबकि इसका राष्ट्रीय प्रतिशत 7.0 बताया जाता है।बढ़ती हुई बेरोज़गारी, विपन्नता और असहायता की इस समस्या को जैसे ही युवा वोटरों की बड़ी संख्या के मद्देनज़र देखा जाता है, तसवीर बदल जाती है। इस बात को बीजेपी से भी पहले तेजस्वी यादव ने समझा।
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