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बिहार में ‘साइलेंट’ और स्त्री वोटरों के मतदान का राज़

स्त्रियों के कुल वोटों का अंदाज़ा लगाया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कुल 38 फीसदी महिला वोटरों ने एनडीए के चुनाव चिह्नों के बटन दबाए, जबकि महागठबंधन के चुनाव चिह्नों के बटन दबाने वाली स्त्रियों का प्रतिशत 37 फीसदी रहा। केवल एक फीसदी का अंतर कहीं से यह साबित नहीं करता कि एनडीए की सरकार माताओं-बहनों ने बनायी है।
अभय कुमार दुबे

बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने उस समझ के कई पहलुओं पर गम्भीर सवालिया निशान लगा दिया है जो चुनाव प्रचार के दौरान बनाई जा रही थी या जिसका प्रचार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (एनडीए) की तरफ़ से किया जा रहा है। ये पहलू इस प्रकार हैं- 

 (1) नीतीश कुमार का कद छोटा हो गया है। अब गठजोड़ में उनकी हैसियत नम्बर दो की हो गई है, और बीजेपी उन्हें जैसे चाहे चला सकती है। 

(2) एनडीए की सरकार बिहार की माता-बहनों और ‘साइलेंट’ वोटरों ने बना दी है। 

(3) पहले दौर के बाद जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मैदान में कूदे और अपनी रैलियों में जंगल राज की वापसी का खतरा दरपेश किया, वैसे ही हवा बदलनी शुरू हो गई। 

(4) बिहार का चुनाव इस बार नीतीश कुमार के चेहरे पर नहीं बल्कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता की दम पर जीता गया है। बिहार की जनता नीतीश से नाराज़ और प्रधानमंत्री से बहुत खुश थी। 

(5) अगर बीजेपी नीतीश कुमार से गठजोड़ किये बिना चुनाव में उतरती तो अकेले ही बहुमत प्राप्त कर सकती थी। 

बीजेपी के समर्थक पत्रकारों, समीक्षकों और पार्टी प्रवक्ताओं द्वारा किये जाने वाले ये दावे तथ्यों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।

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सीएसडीएस-लोकनीति द्वारा किये गए मतदान-उपरांत सर्वेक्षण के आँकड़ों पर नज़र डालने से यह स्पष्ट हो जाता है। ध्यान रहे कि यह सर्वे कोई ‘एग्जिट पोल’ नहीं था। यह ‘पोस्ट-पोल’ था जिसमें मतदान करके आ रहे वोटर से न केवल यह पूछा जाता है कि उसने किसे वोट दिया, बल्कि उसकी प्राथमिकता के आधारभूत कारणों के बारे में भी पूछताछ की जाती है। न केवल यह, बल्कि उसकी सामाजिक स्थिति (धर्म, जाति, समुदाय, आय वर्ग, शहरी-ग्रामीण, जेंडर, रोज़गारशुदा या बेरोज़गार आदि) के मुताबिक उसे श्रेणीबद्ध भी किया जाता है। 
पोस्ट-पोल सर्वेक्षण किसी भी चुनाव नतीजे की असलियत पता लगाने का सबसे अच्छा साधन है। इस पोस्ट पोल सर्वे का बाद में वास्तविक चुनाव नतीजों से मिलान भी किया जाता है। इस प्रकार यह सबसे अधिक भरोसेमंद सर्वेक्षण बन कर सामने आता है।

बीजेपी के केंद्रीय द़फ्तर से प्रधानमंत्री ने स्वयं अपने भाषण में दावा किया कि बिहार में माताओं-बहनों ने एनडीए की सरकार बना दी। प्रधानमंत्री ने स्त्रियों को भी खामोश वोटरों की श्रेणी में डाल दिया। साथ ही बिना कहे यह श्रेय भी ले लिया कि शराबबंदी करने और कुछ स्त्री-विकास योजनाएँ चलाने के कारण स्त्री वोटरों की एनडीए सरकार के प्रति विशेष हमदर्दी थी। 

चुनाव आयोग के इन आँकड़ों से भी का़फी सनसनी फैली कि दूसरे और तीसरे चरण में स्त्रियों ने पुरुषों के मुक़ाबले खासे ज़्यादा वोट दिये। ये बात पूरी तरह से ग़लत नहीं थी लेकिन पूरी तरह से सही भी नहीं साबित हुई। 

बीजेपी के झूठे दावे

बिहार के पिछले तीन चुनावों से स्त्रियाँ पुरुषों से ज़्यादा वोट कर रही हैं। इस बार ऐसा होना कोई नयी बात नहीं थी। इसीलिए जैसे ही स्त्रियों के भीतर के समाजशास्त्र पर गौर किया जाता है, उनके खास तौर से एनडीए समर्थक होने की पोलपट्टी खुल जाती है। मसलन, यादव स्त्रियों के 82 प्रतिशत वोट महागठबंधन को मिले, जो बहुत बड़ी संख्या है। मुसलमान स्त्रियों के 74 फीसदी वोट भी महागठबंधन को मिले। 

एनडीए को उन्हीं स्त्रियों के वोट ज़्यादा मिले जो जातिगत रूप से उसकी समर्थक रही हैं। जैसे, पचपनिया (अतिपिछड़ी जातियाँ) स्त्री वोटरों का 63 फीसदी एनडीए में गया। ऊँची जातियों की स्त्रियों का अधिकतम वोट भी एनडीए को मिला। 

महज एक फीसदी का अंतर 

दलित स्त्रियों का 33 फीसदी वोट भी एनडीए के हिस्से में आया क्योंकि मुसहरों की पार्टी एनडीए के साथ थी, लेकिन दलितों का 24 फीसदी वोट महागठबंधन को भी मिला। अगर स्त्रियों के कुल वोटों का तखमीना (अंदाज़ा) लगाया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि कुल 38 फीसदी महिला वोटरों ने एनडीए के चुनाव चिह्नों के बटन दबाए, जबकि महागठबंधन के चुनाव चिह्नों के बटन दबाने वाली स्त्रियों का प्रतिशत 37 फीसदी रहा। केवल एक फीसदी का अंतर कहीं से साबित नहीं करता कि एनडीए की सरकार माताओं-बहनों ने बनायी है।

जहाँ तक नीतीश कुमार का कद छोटा होने का सवाल है तो यह सर्वेक्षण बताता है कि नीतीश कुमार को सीटें ज़रूर कम मिलीं, पर उनके सामाजिक आधार ने उनका साथ नहीं छोड़ा।

नीतीश के ख़िलाफ़ एंटी इनकम्बेंसी 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने विशेष अंदाज़ में यह भी बताया कि कहीं कोई ‘साइलेंट वोटर’ है जो बीजेपी को समर्थन देता है। दरअसल, नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ एंटी इनकम्बेंसी (सरकार विरोधी भावनाएँ) का जो माहौल था, वह मुख्य रूप से बिहार की मज़बूत जातियों द्वारा खड़ा किया गया था। इस माहौल के मुख्य स्वर शक्तिशाली और बहुसंख्यक यादव जाति (जो महागठबंधन की पैरोकार है) और ऊँची जातियों (जो बीजेपी की पैरोकार हैं) की तरफ से आ रहे थे। 

एंटी इनकम्बेंसी की इस आवाज़ में अति पिछड़ी जातियों के स्वर शामिल नहीं थे। इन छोटी-छोटी जातियों की संख्या बहुत है। दलित और महादलित भी इस एंटी इनकम्बेंसी के साथ खड़े नहीं दिख रहे थे। इन्हीं लोगों को खामोश या चुप्पा वोटरों की संज्ञा दी जा सकती है। 

उल्लेखनीय यह है कि यह समर्थन एनडीए को नीतीश कुमार के माध्यम से पहुँचा, क्योंकि ये मतदाता नीतीश के साथ पारम्परिक रूप से जुडे़ हुए हैं। 

देखिए, बिहार के चुनाव नतीजों पर चर्चा- 

कुर्मी वोट नीतीश को 

लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वेक्षण के अनुसार 58 फीसदी अतिपिछड़े या पचपनिया वोट एनडीए के खाते में पड़े। महागठबंधन को इनका केवल 16 फीसदी हिस्सा ही मिल पाया। इसी तरह से नीतीश की अपनी कुर्मी बिरादरी ने अस्सी प्रतिशत से अधिक वोट अपने स्थापित नेता को दिये। क्षेत्रों से आ रही रपटें बता रही हैं कि जो कुछ थोड़े-बहुत मुसलमान वोट एनडीए के खाते में दिखते हैं, वे मुख्य तौर पर उन पसमांदा मुसलमानों के हैं, जो एक ज़माने से नीतीश के साथ हमदर्दी रखते रहे हैं। 

चूँकि नीतीश का सामाजिक आधार विपरीत परिस्थितियों में भी पूरी ता़कत से उनके साथ खड़ा रहा इसलिए बीजेपी उन्हें नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठा सकती।

बीजेपी को भी पता है और सर्वेक्षण भी बताता है कि उसके अपने जनाधार ने जनता दल (यूनाइटेड) का पूरी तरह से साथ नहीं दिया। 

राज्यपाल बनेंगे नीतीश! 

नीतीश के नाराज़ होते ही उनके जनाधार को खा जाने का बीजेपी का सपना धूलधूसरित हो जाएगा। बीजेपी इस जनाधार को तभी प्राप्त कर सकती है जब नीतीश स्वयं योजनापूर्वक मुख्यमंत्रित्व से रिटायर हो जाएँ। उसके लिए बीजेपी को उन्हें साल-डेढ़ साल बाद उनके रुतबे के मुताबिक़ पद की पेशकश करनी होगी। यह पद किसी बड़े राज्य के राज्यपाल से लेकर उपराष्ट्रपति तक का हो सकता है। जहाँ तक नीतीश को ‘छोटे भाई’ की भाँति अपनी मंज़ूरी पर चलाने का सवाल है, बीजेपी उनकी मंजूरी बिना चिराग पासवान को केंद्र में मंत्रिपद देने की हिम्मत भी दिखाने की स्थिति में नहीं है। 

NDA in bihar election 2020 - Satya Hindi
अब जंगल राज से जुड़े दावे पर बात। तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने जिस जोशो-खरोश के साथ चुनावी मुहिम चलाई और बीजेपी को हार की कगार पर खड़ा कर दिया, क्या यह बताता है कि वोटरों पर जंगल राज की मुहिम का कोई असर था? आरजेडी सबसे बड़ा दल बन कर उभरा है। 
बीजेपी अपने 26 हेलिकॉप्टरों और पाँच सितारा चुनाव-प्रचार के बावजूद मुहिम शुरू होने से पहले की अपनी बढ़त बचाने में नाकामयाब रही। अगर कांग्रेस पार्टी ने दस प्रतिशत भी बेहतर प्रदर्शन किया होता, तो महागठबंधन आगे निकल गया होता।

चुनाव में बहुत वोट बिखरे 

ओवैसी-कुशवाहा-बीएसपी के महामोर्चे ने कुछ वोट खींचे, तो अन्य की श्रेणी में आने वाले उम्मीदवारों ने करीब 25 प्रतिशत वोट प्राप्त करके एनडीए और महागठबंधन के बीच वोटों का पूरा ध्रुवीकरण नहीं होने दिया। कहा जा सकता है कि अगर एलजेपी ने नीतीश के उम्मीदवारों के वोट न काटे होते, तो एनडीए के परिणाम और अच्छे हो सकते थे। लेकिन, अगर महामोर्चा ने सीमांचल की कुछ सीटों पर 11 फीसदी मुसलमान वोट न काट लिये होते, तो महागठबंधन भी बहुमत के करीब पहुँच सकता था। 

आखिरी प्रश्न यह है कि क्या इन वोटों को नियोजित रूप से बिखेरा गया? क्या ओवैसी के महामोर्चे के पीछे कुछ ऐसी अदृश्य शक्तियाँ थीं जो महागठबंधन को हो सकने वाले लाभों में कटौती करवाना चाहती थीं? 

NDA in bihar election 2020 - Satya Hindi
क्या एलजेपी का एनडीए के बाहर जा कर नीतीश का कद छोटा करने की घोषित रणनीति के पीछे एनडीए की भीतरी राजनीति थी? क्या बीजेपी नीतीश को छोटा भाई बनाने पर तुली थी और इस चक्कर में उसने चुनाव तक हारने का खतरा मोल ले लिया था? ये सवाल एक अरसे तक जवाबों की उम्मीद करते रहेंगे। 
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नीतीश का साथ ज़रूरी

क्या बीजेपी यह चुनाव अकेले जीत सकती थी? इसका जवाब चुनाव नतीजों ने दे ही दिया है। न तो बीजेपी को यह विश्वास था कि उसे पचपनिया वोट अपने दम पर मिल सकते हैं, क्योंकि बिहार में वह आज भी ब्राह्मण-राजपूत-बनिया-भूमिहार-कायस्थ की पार्टी है। कमज़ोर जातियों के वोट उसे नीतीश के ज़रिये ही मिलते हैं। इस चुनाव में भी वही हुआ है। 

साथ ही यह भी दिखा है कि बीजेपी के पास ऊँची जाति के इन वोटों को ‘ट्रांसफ़र’ करने की क्षमता भी पूरी तरह से नहीं है। अगर ऐसा न होता, तो दूसरे और तीसरे दौर में ज़मीन पर फैले हुए भ्रम को दूर करके एनडीए में एकता दिखाने की उसकी कोशिश के तहत ऊँची जातियों ने नीतीश के उम्मीदवारों को पूरे वोट दिये होते। 

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