ज़रा कल्पना कीजिए कि देश का एक शीर्ष नेता किसी ऐसे पत्रकार या सम्पादक से मिल रहा है जिसे उसका घोषित रूप से आलोचक माना जाता है। यह मुलाक़ात दोनों पक्षों के लिए असहज हो सकती है। ज़ाहिर है कि दोनों ही अपनी-अपनी तऱफ से शिष्टता की स्थापित आचार-संहिताओं का पालन करके उस भेंट की औपचारिकताओं को निबाहने की कोशिश करेंगे। लेकिन, हमारी यह कल्पना आज के जमाने में राजनीति और मीडिया के संबंधों पर फिट नहीं बैठती। आज के ज़माने में तो भरी प्रेस कांफ़्रेंस में अमेरिका के राष्ट्रपति सीएनएन (जो उनके आलोचक के तौर पर जाना जाता है) के नुमाइंदे के सवाल के जवाब में कहते हैं : ‘नो, यू आर फ़ेक न्यूज़।’
नेता के सामने क्यों नतमस्तक है भारतीय मीडिया?
- विचार
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- 3 Apr, 2019

दिल्ली में 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद राजनीतिक विमर्श का पूरी तरह से ध्रुवीकरण हो गया। इस प्रक्रिया में कई टीवी चैनल पूँजीगत और विचारधारात्मक कारणों से खुल कर मोदी-मोदी की रट लगाने लगे। न केवल उन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी को बेहिचक समर्थन देना शुरू किया, बल्कि उनके एंकर विपक्षी दलों और उनकी राजनीति पर शत्रुतापूर्ण प्रहार करने लगे। समझा जाने लगा कि इन एंकरों को उनके मालिकों ने विपक्ष की ‘सुपारी’ दे दी है।