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शहादत दिवस : भगत सिंह-नेताजी शहीद हो गए, सावरकर ने अँग्रेज़ों से माँगी थी माफ़ी

भगत सिंह भी अँग्रेज़ों की जेल में रहे। उन्हें फाँसी की सजा हुई। उनके पिता ने अंग्रेज़ों से जब सज़ा कम करने की ख़ातिर चिट्ठी लिखी और इस बात की जानकारी भगत सिंह को मिली तो वह काफ़ी नाराज़ हुए। उन्होंने अपने पिता सरदार किशन सिंह को नाराज़गी भरा ख़त लिखा कि आपके इस काम ने मेरे दिमाग का संतुलन बिगाड़ दिया है।... ये सब को पता चले कि आपकी ट्रिब्यूनल को लिखी चिट्ठी में मेरी सहमति नहीं हैं।’ बाद में भगत सिंह ने अदालत में अपना बचाव भी करने से मना कर दिया था। भगत सिंह के शहादत दिवस पर सत्य हिन्दी की ख़ास पेशकश। 
शमसुल इसलाम

एक अत्यधिक परेशान करने वाले घटनाक्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय में 20 अगस्त 2019 की रात शहीद भगत सिंह और नेताजी की मूर्तियों को वी डी सावरकर की मूर्ति के साथ एक ही पीठिका पर रखकर अनावरण करने का दुस्साहस किया गया। भगत सिंह और नेताजी जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों ने देश की आज़ादी के लिए प्राण तक न्यौछावर कर दिए थे। देश और दुनिया अभी इस सचाई को भूली नहीं है कि भगत सिंह और नेताजी ने एक ऐसे आज़ाद समावेशी भारत के लिए जान दी जो लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष होना था। एक ऐसा देश जहाँ धर्म-जाति का बोलबाला नहीं बल्कि समानता और न्याय फले-फूलें। इन शहीदों ने 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' और 'जय हिन्द' जैसे नारों की ललकार से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ देश की जनता को लामबंद किया था।

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भगत सिंह ने दूसरे इंक़लाबी साथियों के साथ मिलकर' हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन' गठित की थी और सशस्त्र क्रांति के ज़रिए विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने की जद्दोजहद करते हुए अपनी जान क़ुर्बान की थी। नेताजी भी इस सच से भलीभाँति वाक़िफ़ थे कि अँग्रेज़ शासन एक साम्राज्यवादी गिरोह है जिसके चुंगल से शांतिपूर्वक आंदोलन द्वारा मुक्ति संभव नहीं हो सकती। उन्होंने एक बड़ा जोखिम भरा क़दम उठाते हुए देश से 1940 में पलायन किया और विदेशों में रहकर आज़ाद हिंद फ़ौज (आईएनए) का गठन किया और उस की कमान संभाली। इस सेना में सभी धर्मों और जातियों के लोग, पुरुष और महिलाएँ थे। इसी महान लड़ाई का नेतृत्व करते हुए वह आज के ताईवान क्षेत्र में एक जहाज़ दुर्घटना में 1945 में शहीद हो गए। इन दोनों ने अँग्रेज़ शासकों के सामने कभी समर्पण नहीं किया, कभी माफ़ी नहीं माँगी और शहीद होने वाले दिन तक विदेशी शासन के ख़िलाफ़ लोहा लेते रहे।

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इन शहीदों के विपरीत सावरकर ने राजनैतिक जीवन के प्रारंभिक सालों को छोड़ कर (जब उन्होंने 1857 पर नायाब किताब लिखी) जब वे काला पानी जेल (सेलुलर जेल) में बंदी बनाए गए तो उन्होंने देश में चल रही आज़ादी की लड़ाई के विपरीत अँग्रेज़ शासकों का दामन थाम लिया। वह अँग्रेज़ हुक्मरानों की बाँटो और राज करो नीति को लागू करने का एक बड़ा मोहरा बन गए। वह ‘दो राष्ट्र’ सिद्धांत के प्रवक्ता बन गए।

'वीर' सावरकर ने अँग्रेज़ शासकों की सेवा में 5 माफ़ीनामे पेश किए और 50 साल की कुल सज़ा में से 35+ साल की छूट पाई।

सावरकर 4 जुलाई 1911 से 2 मई 1921 तक सेलुलर जेल में बंदी थे। 9 साल 10 महीनों के इस काल में उन्होंने अँग्रेज़ शासकों की सेवा में पाँच दया याचिकाएँ 1911, 1913, 1914, 1918 और 1920 में पेश की थीं।

ये याचिकाएँ किसी राजनैतिक क़ैदी की ओर से लिखे गए ऐसे प्रार्थना पत्र नहीं थे जो जेल क़ानून के तहत सुविधाओं की माँग करते हों बल्कि सीधे बिना शर्त माफ़ीनामे थे। अभिलेखागारों में उपलब्ध इसके 2 नमूने यहाँ प्रस्तुत हैं।

1913 का माफ़ीनामा इन शब्दों के साथ ख़त्म हुआ - 

‘इसलिए, सरकार अगर अपने विविध उपकार और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं और कुछ नहीं हो सकता बल्कि मैं संवैधानिक प्रगति और अँग्रेज़ सरकार के प्रति वफ़ादारी का, जो कि उस प्रगति के लिए पहली शर्त है, सबसे प्रबल पैरोकार बनूँगा… इसके अलावा, मेरे संवैधानिक रास्ते के पक्ष में मन परिवर्तन से भारत और यूरोप के वे सभी भटके हुए नौजवान जो मुझे अपना पथप्रदर्शक मानते थे वापस आ जाएँगे। सरकार, जिस हैसियत में चाहे मैं उसकी सेवा करने को तैयार हूँ, क्योंकि मेरा मत परिवर्तन अंतःकरण से है और मैं आशा करता हूँ कि आगे भी मेरा आचरण वैसा ही होगा। मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि रिहा करने में उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा। ताक़तवर ही क्षमाशील होने का सामर्थ्य रखते हैं और इसलिए एक बिगड़ा हुआ बेटा सरकार के अभिभावकीय दरवाज़े के सिवाय और कहाँ लौट सकता है? आशा करता हूँ कि मान्यवर इन बिन्दुओं पर कृपा करके विचार करेंगे।’

1920 का माफ़ीनामा भी कुछ कम शर्मसार करने वाला नहीं था। इस का अंत इन शब्दों के साथ हुआ- 

‘...मुझे विश्वास है कि सरकार ग़ौर करेगी कि मैं तयशुदा उचित प्रतिबंधों को मानने के लिए तैयार हूँ, सरकार द्वारा घोषित वर्तमान और भावी सुधारों से सहमत व प्रतिबद्घ हूँ, उत्तर की ओर से तुर्क-अफ़ग़ान कट्टरपंथियों का ख़तरा दोनों देशों के समक्ष समान रूप से उपस्थित है, इन परिस्थितियों ने मुझे ब्रिटिश सरकार का ईमानदार सहयोगी, वफ़ादार और पक्षधर बना दिया है। इसलिये सरकार मुझे रिहा करती है तो मैं व्यक्तिगत रूप से कृतज्ञ रहूँगा। मेरा प्रारंभिक जीवन शानदार संभावनाओं से परिपूर्ण था, लेकिन मैंने अत्यधिक आवेश में आकर सब बर्बाद कर दिया, मेरी ज़िंदगी का यह बेहद ख़ेदजनक और पीड़ादायक दौर रहा है। मेरी रिहाई मेरे लिए नया जन्म होगा। सरकार की यह संवेदनशीलता, दयालुता, मेरे दिल और भावनाओं को गहरायी तक प्रभावित करेगी, मैं निजी तौर पर सदा के लिए आपका हो जाऊँगा, भविष्य में राजनीतिक तौर पर उपयोगी रहूँगा। अक्सर जहाँ ताक़त नाकामयाब रहती है उदारता कामयाब हो जाती है।’
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अपने पिता पर भड़क गए थे भगत सिंह

भगत सिंह भी अँग्रेज़ों की जेल में रहे। उन्हें फाँसी की सजा हुई। उनके पिता ने अंग्रेज़ों से जब सज़ा कम करने की ख़ातिर चिट्ठी लिखी और इस बात की जानकारी भगत सिंह को मिली तो वह काफ़ी नाराज़ हुए। उन्होंने अपने पिता सरदार किशन सिंह को नाराज़गी भरा ख़त लिखा। उनके पिता ने लिखा था कि उनका बेटा बेक़सूर है और सांडर्स की हत्या में उसका हाथ नहीं है। भगत सिंह ने 4 अक्टूबर 1930 को लिखा कि आपके इस काम ने मेरे दिमाग का संतुलन बिगाड़ दिया है। आप फ़ेल हो गये हैं। मैं जानता हूँ आप देशभक्त हैं। और देश की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी है और लड़ रहे हैं। लेकिन इस मौक़े पर आपने कमज़ोरी दिखाई। ये सब को पता चले कि आपकी ट्रिब्यूनल को लिखी चिट्ठी में मेरी सहमति नहीं हैं।’

भगत सिंह ने अदालत में अपना बचाव भी करने से मना कर दिया था। 

ऐसे में क्या सावरकर की तुलना अमर शहीद भगत सिंह से हो सकती है? एक तरफ़ भगत सिंह हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर झूल गये तो दूसरी तरफ़ सावरकर अंग्रेज़ों से माफ़ी माँग कर बाहर आए। भगत सिंह इतिहास का वो पन्ना है जिस पर उसे हमेशा नाज़ रहेगा।

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