इंसान अभी तक ज़िंदा है,
ज़िंदा होने पर शर्मिंदा है।
सांप्रदायिक हिंसा पर पाकिस्तानी नागरिक समाज की चुप्पी पर शाहिद नदीम की पंक्तियाँ। ये पंक्तियाँ जिस गीत में हैं, उसको लिखने और गाने के जुर्म में नदीम को पाकिस्तान की कठमुल्लावादी ज़िया सरकार ने चालीस कोड़े लगवाए थे।
2014 तक राजसत्ता के पाखंड का ब्यौरा
1984 नवम्बर के आरम्भ में हत्यारी टोलियों को खुली छूट देने के बाद, देश में राज कर रही राजीव गाँधी की कांग्रेसी सरकार को, इस क़त्लेआम के ज़िम्मेदार आतंकियों के ख़िलाफ़ क़दम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा था। दंगों' की जाँच के लिए एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी वेद मरवाह के तहत जाँच आयोग 1984 के अंत में नियुक्त किया गया। जब मरवाह आयोग अपनी ‘विस्फोटक’ रपट लगभग तैयार कर चुका था, इसे 1985 के मध्य बर्ख़ास्त कर दिया गया। अब सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड वरिष्ठ न्यायधीश, रंगनाथ मिश्र के अध्यक्षता में '1984 दंगों' पर एक नया आयोग बनाया गया। मिश्र आयोग ने 1987 में अपनी रपट पेश कर दी। इसका सबसे शर्मनाक पहलू यह था कि सरकारी समझ के अनुकूल, आयोग ने जिस सच्चाई (या सच्चाई को दबाने) की खोज की उसके अनुसार, ‘ये दंगे सहज रूप से शुरू हुए लेकिन बाद में इसका नेतृत्व गुंडों के हाथों में आ गया।’ न्यायाधीश मिश्र को बाद में कांग्रेसी सरकार ने 6 साल के लिए राज्यसभा में मनोनीत किया था।
अब तक 11 जाँच आयोग बिठाए जा चुके हैं और यह सिलसिला ख़त्म होने की कोई उम्मीद नहीं है। भारतीय राज्य के लिए यह एक रिवाज बन गया है कि पंजाब और दिल्ली (जहाँ सिख मतदाताओं की बड़ी तादाद है) में जब भी चुनाव होने वाले हों तो एक नए आयोग की घोषणा कर दी जाये या मारे गए लोगों के परिवारों को कुछ और मुआवज़ा देने का ऐलान कर दिया जाए। मशहूर वकील, एच एस फूलका जिन्होंने 1984 के जनसंहार के ज़िम्मेदार तत्वों को सज़ा दिलाने के लिए बेमिसाल काम किया है, बहुत दुःख के साथ बताते हैं कि इस क़त्लेआम में शामिल बहुत सारे नेता किसी सज़ा के भागी होने के बजाए शासक बन बैठे।
यह शर्मनाक खेल किस तरह लगातार खेला जा रहा है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अगस्त 16, 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2 भूतपूर्व न्यायधीशों वाली समिति गठित की थी जिसे 1984 की हिंसा के 241 मामलों के बंद किये जाने पर 3 महीने के भीतर जाँच करके रपट देनी थी। नवम्बर 2022 आ पहुँचा है, लेकिन 3 महीने ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं।
हाँ, इस क़त्ले-आम की हर बरसी के नज़दीक आते भारतीय राज्य कुछ इस तरह का शोर ज़रूर मचाता है जैसे कि वह क़ातिलों को सज़ा दिलाने के काम में ज़ोर-शोर से लगा है। 37वीं बरसी से पहले 2021 में सरकार की तरफ़ से दो सूचनायें दी गयीं। राष्ट्रीय अल्पसंखयक आयोग ने अक्टूबर 30, 2021 को बताया कि उसने दिल्ली, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश से इस बात का ब्यौरा माँगा है कि पीड़ित सिख परिवारों को कितना हर्जाना दिया गया है और क़ातिलों को खोजने और सजा दिलाने के लिए क्या क़दम उठाए गए हैं। इससे पहले जनवरी 2021 में उत्तर प्रदेश सरकार से यह जानकारी मिली थी कि कानपुर में जिस एक घर में 1984 में सिखों को क़त्ल किया गया था उसे खोलकर सबूत इकठ्ठा किये गए हैं। यह सब करने में केवल 37 साल लग गये!
भाजपा/आरएसएस का दावा है कि वे हिन्दू-सिख एकता के झंडाबरदार हैं। हालाँकि वे यह बताने से भी नहीं थकते कि सिख धर्म स्वतंत्र धर्म नहीं होकर हिंदू धर्म का ही हिस्सा है।
जब कांग्रेस का राज था तब वे 1984 के ज़िम्मेदार अपराधियों को सज़ा नहीं दिला पाने के लिए कांग्रेस को दोषी मानते रहे हैं। 2014 के संसदीय चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान मोदी ने झाँसी की एक सभा में (अक्तूबर 25, 2013) कांग्रेस से सवाल पूछा था कि वह यह बताए कि वे कौन लोग थे जिन्होंने ‘1984 में हज़ारों सिखों का क़त्ल किया’ और ‘क्या किसी एक को भी सिखों के जनसंहार के लिए सजा मिली है?’ भाजपा/आरएसएस के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी मोदी ने 2014 के चुनावों के दौरान पंजाब और इसके बाहर लगातार 1984 में ‘सिखों के क़त्लेआम’ का मुद्दा उठाया, जो बहुत जाएज़ था। मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद भी (अक्तूबर 31, 2014) इस सच्चाई को माना कि इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद घटी सिख विरोधी हिंसा एक तरह का ‘एक ख़ंजर था जो भारत देश के सीने में घोंप दिया गया। हमारे अपने लोगों के क़त्ल हुए, यह हमला किसी एक संप्रदाय पर नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र पर था।’
हिंदुत्व की प्रतिमा और आरएसएस के विचारक, प्रधानमंत्री मोदी इस बात पर दुःख जताते रहे हैं कि 1984 के जनसंहार के मुजरिमों की तलाश और सज़ा देने का काम कांग्रेस के सरकारों ने नहीं किया। लेकिन मोदी इस सच्चाई को छुपा गए कि 1984 के बाद सत्तासीन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार, जिसने 1998 से 2004 तक देश पर राज किया, ने भी चुप्पी ही साधे रखी। मोदी इस सच को भी छुपा गए कि उनके राजनैतिक गुरु एल के अडवाणी ने अपनी आत्मकथा में (पृष्ठ 430) इस बात का गुणगान किया है कि कैसे भाजपा ने इंदिरा गाँधी को 'ऑपरेशन ब्लुस्टार' (1 से 8 जून 1984) करने के लिए प्रेरित किया। याद रहे कि इस बदनाम सैनिक अभियान में सैंकड़ो सिख स्वर्ण मंदिर, अमृतसर में मारे गए और इसी का एक दुखद परिणाम प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या थी। प्रसिद्ध पत्रकार, मनोज मिट्टा ने इस त्रासदी पर लिखी दिल-दहला देने वाली पुस्तक (When a Tree Shook Delhi: The 1984 Carnage and Its Aftermath) में साफ़ लिखा कि,
‘भाजपा की हकूमत के बावजूद ऐसी कोई भी इच्छा-शक्ति देखने को नहीं मिलती जिससे यह ज़ाहिर हो कि जो क़त्लेआम कांग्रेस के राज में हुआ था उसके ज़िम्मेदार लोगों को सजा दिलानी है। ऐसा लगता है मानो 1984 और 2002 (गुजरात में मुसलमानों का क़त्लेआम) के आयोजकों के बीच एक मौन सहमति हो’।
आरएसएस के नाना देशमुख ने 1984 में सिखों के क़त्ले-आम को जायज़ ठराया था।
ऐसा मत केवल आरएसएस के आलोचकों का ही नहीं है, बल्कि आरएसएस के अभिलेखागार में उस काल के दस्तावेज़ों के अध्ययन से यह सच उभर कर सामने आता है कि आरएसएस ने इस क़त्लेआम को एक स्वाभाविक घटना के रूप में लिया, इंदिरा गाँधी की महानता के गुणगान किए और नए प्रधानमंत्री के तौर पर राजीव गाँधी को पूरा समर्थन देने का वायदा किया। मौजूद दस्तावेज़ों से ये पता चलता है कि नाना देशमुख ने बड़े क़रीने से सिख समुदाय के जनसंहार को उचित ठहराने का प्रयास किया है। उन्होंने लिखा था कि-
1. सिखों का जनसंहार किसी ग्रुप या समाज-विरोधी तत्वों का काम नहीं था बल्कि वह क्रोध एवं रोष की सच्ची भावना का परिणाम था।
2. नाना देशमुख श्रीमती इंदिरा गांधी के दो सुरक्षा कर्मियों, जो सिख थे, की कार्रवाई को पूरे सिख समुदाय से अलग नहीं करते हैं। उनके दस्तावेज़ से यह बात सामने आती है कि इंदिरा गांधी के हत्यारे अपने समुदाय के किसी निर्देश के तहत काम कर रहे थे। इसलिए सिखों पर हमला उचित था।
3. सिखों ने स्वयं इन हमलों को न्यौता दिया, इस तरह सिखों के जनसंहार को उचित ठहराने के कांग्रेस के सिद्धांत को आगे बढ़ाया।
4. उन्होंने ‘ऑपरेशन ब्लू-स्टार’ को महिमामंडित किया और किसी तरह के उसके विरोध को राष्ट्र-विरोधी बताया है। जब हज़ारों की संख्या में सिख मारे जा रहे थे तब वे सिख उग्रवाद के बारे में देश को चेतावनी दे रहे थे, इस तरह इन हत्याओं का सैद्धांतिक रूप से बचाव करते हैं।
5. उनके अनुसार समग्र रूप से सिख समुदाय ही पंजाब में हिंसा के लिये ज़िम्मेदार है।
6. सिखों को आत्म-रक्षा में कुछ भी नहीं करना चाहिए बल्कि हत्यारी भीड़ के ख़िलाफ़ धैर्य एवं सहिष्णुता दिखानी चाहिए।
7. हत्यारी भीड़ नहीं, बल्कि सिख बुद्धिजीवी जनसंहार के लिए ज़िम्मेदार हैं। उन्होंने लिखा कि इन लोगों ने सिखों को खाड़कू समुदाय बना दिया है, हिन्दू पहचान से अलग कर दिया है और राष्ट्रवाद विरोधी बना दिया है।
8. वे इन्दिरा गांधी को एकमात्र ऐसी नेता मानते हैं जो देश को एक रख सकीं और एक ऐसी महान नेता की हत्या पर ऐसे क़त्लेआम को टाला नहीं जा सकता था।
9. राजीव गांधी, जो श्रीमती इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी एवं भारत के प्रधानमंत्री बने और यह कहकर सिखों की हत्याओं को उचित ठहराया कि ‘‘जब एक बड़ा वृक्ष गिरता है तो हमेशा कम्पन महसूस किया जाता है।’’ नाना दस्तावेज़ के अंत में इस बयान की सराहना करते हैं और उसे अपना आशीर्वाद देते हैं।
10. यह दुखद है कि सिखों के जनसंहार की तुलना गांधी जी की हत्या के बाद आरएसएस पर हुए हमले से की जाती है और हम यह पाते हैं कि नाना सिखों को चुपचाप सब कुछ सहने की सलाह देते हैं।
11. नाना ने केन्द्र में कांग्रेस सरकार से अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ हिंसा को नियंत्रित करने के उपायों की मांग करते हुए एक भी वाक्य नहीं लिखा। ध्यान दें कि नाना ने 8 नवंबर 1984 को यह दस्तावेज़ प्रसारित किया।
नाना देशमुख द्वारा प्रसारित मूल दस्तावेज़ यहाँ प्रस्तुत है। यह दस्तावेज़ समाजवादी नेता और पूर्व रक्षामंत्री जार्ज फ़र्नांडीज़ को मिला था और उन्होंने इसे अपनी हिंदी पत्रिका 'प्रतिपक्ष' में तभी 'इंका-आरएसएस गठजोड़' शीर्षक से छापा था।
नाना द को 'भारत रत्न' से नवाज़ा गया
पिछले गणतंत्र दिवस (2019) के मौक़े पर देशमुख को मरणोपरांत भारत का सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' प्रदान करने की घोषणा की गयी। प्रधानमंत्री मोदी ने उनकी तारीफ़ के पुल बांधते हुए कहा, ‘वे दीनता, दया और दबे-कुचले लोगों की सेवा के मूर्तिमान थे।’
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