दुनिया का सबसे बड़ा ‘हिंदू’संगठन, आरएसएस के ऊपर ये आरोप लगता है कि वो एक ऐसे विशिष्ट गुरुकुल के रूप में भी कार्य करता है जहां हिंदुत्व कैडरों को सही शिक्षा नहीं दी जाती है, उल्टे इतिहास को तोड़मरोड़ कर पेश किया जाता है। आलोचक ये आरोप लगाते हैं कि यह आरएसएस की कार्यप्रणाली की पहचान भी है। इसके प्रमाण आरएसएस के सबसे प्रमुख विचारक, गुरु एमएस गोलवलकर के विचार में मिलते हैं जो गाय के नाम पर भारतीय मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं। गौ-हत्या के इतिहास पर विचार करते हुए उन्होंने बताया था कि-
“यह हमारे देश में विदेशी आक्रमणकारियों [मुसलमानों] के आने के साथ शुरू हुआ। लोगों [हिंदुओं] को ग़ुलामी के लिये तैयार करने के लिये उन्होंने सोचा कि हिंदुओं के स्वाभिमान के हर चीज़ का निरादर करो ...उसी सोच के चलते गौहत्या भी शुरू की गई।”
[एमएस गोलवलकर, स्पॉटलाइट, बैंगलोर, साहित्य सिंधु (आरएसएस प्रकाशन गृह), 1974, पृ. 98]
गौहत्या के आरंभ के बारे में इससे बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता क्योंकि वैदिककाल ग्रंथ ब्राह्मणों, देवताओं और ऋषियों के लिए भव्य भोज आयोजित करते समय बड़े पैमाने पर गौहत्या के संदर्भों से भरे हुए हैं। स्वामी विवेकानन्द को आरएसएस द्वारा हिंदुत्व का दार्शनिक माना जाता है, उन्होंने शेक्सपियर क्लब, पासाडेना, कैलिफोर्निया, अमेरिका में एक बैठक को संबोधित करते हुए (2 फरवरी, 1900) घोषणा की:
‘’आप आश्चर्यचकित रह जायेंगे अगर प्राचीन वर्णनों के आधार पर मैं कहूँ कि वह अच्छा हिंदू नहीं है जो गोमांस नहीं खाता। विशेष अवसरों पर उसे आवश्यक रूप से बैल की बलि देनी होगी और उसे खाना होगा।”
[विवेकानंद, स्वामी विवेकानन्द के संपूर्ण कार्य, खंड 3, अद्वैत आश्रम, कलकत्ता, 1997, पृ. 536.]
मदुरै (अब तमिलनाडु में) में ब्राह्मणों की एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने फिर कहा:
“इसी भारत में एक समय था जब गोमांस खाए बिना कोई भी ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं रह पाता था; तुम वेद पढ़ कर देखो कि किस तरह जब एक संन्यासी या एक राजा घर में आता था, तो सबसे पुष्ट बैल को मारा जाता था…” [उक्त, पृ. 174.]
इसी तरह से महिलाओं के बारे में भी भ्रांति फैलाई गई। 3 सितंबर, 2023 को दिल्ली विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह (महासचिव से मिलता जुलता पद) कृष्ण गोपाल ने ‘नारी शक्ति संगम’ के तत्वावधान में महिला सशक्तिकरण पर एक सभा को संबोधित किया। भारतीय इतिहास में महिलाओं [उनका मतलब हिंदू महिलाओं से था] की पराधीनता का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि-
“12वीं शताब्दी से पहले, महिलाएं काफ़ी हद तक स्वतंत्र थीं, लेकिन मध्य-युग [मुसलमान शासन] की शुरुआत के साथ बहुत कठिन समय शुरू हुआ। पूरा देश पराधीनता से जूझ रहा था। मंदिर तोड़े गये, विश्वविद्यालय नष्ट किये गये और महिलाएँ ख़तरे में थीं। लाखों महिलाओं का अपहरण कर उन्हें अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में बेच दिया गया। (अहमद शाह) अब्दाली, (मोहम्मद) ग़ौरी और (महमूद) ग़ज़नी सभी ने यहां से महिलाओं को ले जाकर बेच दिया था। वह अत्यंत अपमान का युग था। इसलिए, हमारी महिलाओं की सुरक्षा के लिए, हमारे अपने समाज ने उन पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए।”
उन्होंने सभा में उपस्थित महिलाओं को समझाते हुए कहा कि,
“यह सुनिश्चित करने के लिए कि हमारी बच्चियाँ सुरक्षित रहें, बाल विवाह शुरू हो गए। हमारे देश में सतीप्रथा नहीं थी। कुछ उदाहरण हो सकते हैं...लेकिन (इस्लामी आक्रमणकारियों के आगमन के बाद), बड़ी संख्या में महिलाओं ने ‘जौहर, ‘सती’ करना शुरू कर दिया… विधवा पुनर्विवाह पर भी कोई प्रतिबंध नहीं था।“ [वही]
दिलचस्प बात यह है कि इस महिला सम्मेलन में मुख्य भाषण देने के लिए आरएसएस की कोई महिला विचारक नहीं आयीं। सती प्रथा, बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह के विरोध जैसी बुराइयों के लिए ‘इस्लामी आक्रमणकारियों’ को दोषी ठहराने के अलावा, उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सम्मेलन में उपस्थित हिंदू महिलाओं को चेतावनी दी कि वे पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण न करें और कहा कि “रसोईघर वैज्ञानिक बनने जितना ही महत्वपूर्ण है। बेशक, आरएसएस के किसी भी विचारक द्वारा हिंदू पुरुषों को ऐसी कोई सलाह जारी नहीं की गई है।
कृष्ण गोपाल ने इस सच्चाई को छुपाया कि ‘मुस्लिम’शासन के सैकड़ों साल बाद भी, आरएसएस से जुड़े और संबद्ध संगठन सती प्रथा का जोरदार समर्थन, विधवा पुनर्विवाह और हिंदू महिलाओं को मानवाधिकार दिए जाने का विरोध करते रहे हैं। महाकाव्य महाभारत, जिसे आरएसएस वास्तविक इतिहास मानता है, सती की कई घटनाओं को दर्ज करता है; जब कुलपिता पांडु की मृत्यु हुई तो उनकी पत्नी माद्री अपने पति की चिता पर चढ़ गईं और सती हो गईं। इसी तरह, जब वासुदेव (श्रीकृष्ण के पिता) की मृत्यु हुई तो उनकी 4 पत्नियों ने उनके साथ आत्मदाह कर लिया।
गीता प्रेस, गोरखपुर ने जिसे हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली आरएसएस-बीजेपी सरकार द्वारा गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, हनुमान प्रसाद पोद्दार द्वारा रचित ‘नारी शिक्षा’, स्वामी रामसुखदास द्वारा लिखित ‘ग्रहस्थ में कैसे रहें’ और स्त्रियों के लिए कर्तव्य शिक्षा तथा जय दयाल गोइंदका द्वारा नारी धर्म जैसी पुस्तकें लाखों की तादाद में हिन्दी, अंग्रेज़ी और देश की लगभग हर भाषा में छाप कर वितरित की हैं। गीता प्रेस ने अपनी पत्रिका ‘कल्याण’ का एक विशेष अंक सती के समर्थन में भी प्रकाशित किया है जो खुले-आम बेचा जाता है।
ये लेखक बड़े पैमाने पर शिव पुराण और मनुस्मृति जैसे प्राचीन ग्रंथों का हवाला देते हैं। उदाहरण के लिए, ‘गृहस्थ में कैसे रहें’ नामक पुस्तक में, जो प्रश्न-उत्तर शैली में है, हिन्दू औरत के बारे में स्वामी रामसुखदास सनातन बताते हैं:
“कोई जोश में आकर भले ही यह न स्वीकार करे परंतु होश में आकर तो यह मानना ही पड़ेगा कि नारी देह के क्षेत्र में कभी पूर्णतः स्वाधीन नहीं हो सकती। प्रकृति ने उसके मन, प्राण और अवयवों की रचना ही ऐसी की है। जगत के अन्य क्षेत्रों में जो नारी का स्थान संकुचित या सीमित दीख पड़ता है, उसका कारण यही है कि, नारी बहु क्षेत्र व्यापी कुशल पुरूष का उत्पादन और निर्माण करने के लिए अपने एक विशिष्ट क्षेत्र में रह कर ही प्रकारांतर से सारे जगत की सेवा करती रहती है। यदि नारी अपनी इस विशिष्टता को भूल जाये तो जगत का विनाश बहुत शीघ्र होने लगे। आज यही हो रहा है।”
हनुमान पोद्दार ‘नारी शिक्षा’में इसी पहलू को आगे इस तरह रेखांकित करते हैं,
“स्त्री को बाल, युवा और वृद्धावस्था में जो स्वतंत्र न रहने के लिए कहा गया है, वह इसी दृष्टि से कि उसके शरीर का नैसर्गिक संघटन ही ऐसा है कि उसे सदा एक सावधान पहरेदार की जरूरत है। यह उसका पद-गौरव है न कि पारतन्त्रय।”
क्या स्त्री को नौकरी करनी चाहिए? बिल्कुल नहीं!
“स्त्री का हृदय कोमल होता है, अतः वह नौकरी का कष्ट, प्रताड़ना, तिरस्कार आदि नहीं सह सकती। थोड़ी ही विपरीत बात आते ही उसके आँसू आ जाते हैं। अतः नौकरी, खेती, व्यापार आदि का काम पुरुषों के जिम्मे है और घर का काम स्त्रियों के ज़िम्मे।”
क्या बेटी को पिता की सम्पति में हिस्सा मिलना चाहिए? सवाल-जवाब के रूप में छापी गयी पुस्तिका ‘गृहस्थ में कैसे रहें’ के लेखक स्वामी रामसुख दास का जवाब इस बारें में दो टूक है,
“हिस्सा मांगने से भाई-बहनों में लड़ाई हो सकती है, मनमुटाव होना तो मामूली बात है। वह जब अपना हिस्सा मांगेगी तो भाई-बहन में खटपट हो जाये इसमें कहना ही क्या है। अतः इसमें बहनों को हमारी पुराने रिवाज पिता की सम्पत्ति में हिस्सा नहीं ही लेना चाहिए, जो कि, धार्मिक और शुद्ध है। धन आदि पदार्थ कोई महत्व की वस्तुए नहीं हैं। ये तो केवल व्यवहार के लिए ही हैं। व्यवहार भी प्रेम को महत्व देने से ही अच्छा होगा, धन को महत्व देने से नहीं। धन आदि पदार्थों का महत्त्व वर्तमान में कलह करानेवाला है और परिणाम में नर्कों में ले जानेवाला है। इसमें मनुष्यता नहीं है।”
क्या लड़के-लड़कियों को एक साथ पढ़ने की इजाजत दी जा सकती है? उत्तर है नहीं, क्योंकि,
“दोनों की शरीर की रचना ही कुछ ऐसी है कि उनमें एक-दूसरे को आकर्षित करने की विलक्षण शक्ति मौजूद है। नित्य समीप रह कर संयम रखना असम्भव सा है।”
इन्हीं कारणों से स्त्रियों को साधु-संन्यासी बनने से रोका गया है –
“स्त्री का साधु-संन्यासी बनना उचित नहीं है। उसे तो घर में रह कर ही अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। वे घर में ही त्यागपूर्वक संयमपूर्वक रहें। इसी में उसकी उनकी महिमा है।”
दहेज जैसी सामाजिक बुराई का समर्थन भी बहुत रोचक तरीके से किया गया है। क्या दहेज़ लेना पाप है? उत्तर है, “शास्त्रों में केवल दहेज़ देने का विधान है, लेने का नहीं है।”
बात अभी पूरी नहीं हुई है। “अगर पति मारपीट करे, दुःख दे, तो पत्नी को क्या करना चाहिए?” जवाब बहुत साफ़ है,
“पत्नी को तो यही समझना चाहिए कि मेरे पूर्व जन्म को कोई बदला है, ऋण है जो इस रूप में चुकाया जा रहा है, अतः मेरे पाप ही कट रहे हैं और मैं शुद्ध हो रही हूँ। पीहर वालों को पता लगने पर वे उसे अपने घर ले जा सकते हैं, क्योंकि उन्होंने मारपीट के लिए अपनी कन्या थोड़े ही दी थी।”
अगर पीहर वाले ख़ामोश रहें, तो वह क्या करे?
“फिर तो उसे अपने पुराने कर्मों का फल भोग लेना चाहिए, इसके सिवाय बेचारी क्या कर सकती है। उसे पति की मारपीट धैर्यपूर्वक सह लेनी चाहिए। सहने से पाप कट जायेंगे और आगे सम्भव है कि पति स्नेह भी करने लगे।”
लड़की को एक और बात का भी ध्यान रखना चाहिए,
“वह अपने दुःख की बात किसी से भी न करे नहीं तो उसकी अपनी ही बेइज्जती होगी, उस पर ही आफ़त आयेगी, जहाँ उसे रात-दिन रहना है वहीं अशांति हो जायेगी।”
अगर इस सबके बाद भी पति त्याग कर दे तो?
“वह स्त्री अपने पिता के घर पर रहे। पिता के घर पर रहना न हो सके तो ससुराल अथवा पीहरवालों के नजदीक किराये का कमरा लेकर रहे और मर्यादा, संयम, ब्रह्मचर्यपूर्वक अपने धर्म का पालन करे, भगवान का भजन-स्मरण करे।”
अगर किसी का पति मांस-मदिरा सेवन करने से बाज न आये तो पत्नी क्या करे?
“पति को समझाना चाहिए...अगर पति न माने तो लाचारी है पत्नी को तो अपना खान-पान शुद्ध ही रखना चाहिए।”
अगर हालात बहुत खराब हो जाये तो क्या स्त्री पुनर्विवाह कर सकती है?
“माता-पिता ने कन्यादान कर दिया, तो उसकी अब कन्या संज्ञा ही नहीं रही, अतः उसका पुनः दान कैसे हो सकता है? अब उसका विवाह करना तो पशुधर्म ही है।”
पर पुरुष के दूसरे विवाह करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है,
“अगर पहली स्त्री से संतान न हो तो पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए केवल संतान उत्पत्ति के लिए पुरुष शास्त्र की आज्ञानुसार दूसरा विवाह कर सकता है। और स्त्री को भी चाहिए कि वह पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए पुनर्विवाह की आज्ञा दे दे।”
स्त्री के पुनर्विवाह की इसलिए इजाजत नहीं है क्योंकि,
“स्त्री पर पितृ ऋण आदि कोई ऋण नहीं है। शारीरिक दृष्टि से देखा जाये तो स्त्री में कामशक्ति को रोकने की ताकत है, एक मनोबल है अतः स्त्री जाति को चाहिए कि वह पुनर्विवाह न करे। ब्रह्मचर्य का पालन करे, संयम पूर्वक रहे।”
बलात्कार की शिकार महिलाओं को जो धर्म-उपदेश इस साहित्य में दिया गया है वह रोंगटे खड़े कर देने वाला और बलात्कारियों को बचाने जैसा है। इस सवाल के जवाब में कि यदि कोई विवाहित स्त्री से बलात्कार करे और गर्भ रह जाये तो क्या किया जाये, स्वामी रामसुखदास फ़रमाते हैं,
“जहाँ तक बने स्त्री के लिए चुप रहना ही बढ़िया है। पति को पता लग जाये तो उसको भी चुप रहना चाहिए।”
सती प्रथा का भी इस साहित्य में जबरदस्त गुणगान है। सती की महिमा को लेकर अध्याय पर अध्याय हैं। सती क्या है, इस बारे में इन पुस्तकों के लेखकों को ज़रा-सा भी मुग़ालता नहीं है,
“जो सत्य का पालन करती है, जिसका पति के साथ दृढ़ संबंध रहता है, जो पति के मरने पर उसके साथ सती हो जाती है, वह सती है।”
अगर बात पूरी तरह समझ न आयी हो, तो यह लीजिए,
“हिंदू शास्त्र के अनुसार सतीत्व परम पुण्य है इसलिए आज इस गये-गुजरे जमाने में भी स्वेच्छापूर्वक पति के शव को गोद में रख कर सानंद प्राण त्यागनेवाली सतियाँ हिंदू समाज में मिलती हैं। भारतवर्ष की स्त्री जाति का गौरव उसके सतीत्व और मातृत्व में ही है। स्त्री जाति का यह गौरव भारत का गौरव है। अतः प्रत्येक भारतीय नर-नारी को इसकी रक्षा प्राणपण से करनी चाहिए।”
सती के महत्त्व का बयान करते हुए कहा गया है,
“जो नारी अपने मृत पति का अनुसरण करती हुई शमशान की ओर प्रसन्नता से जाती है, वह पद-पद पर अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त करती है...सती स्त्री अपने पति को यमदूत के हाथ से छीनकर स्वर्गलोक में जाती है। उस पतिव्रता देवी को देख कर यमदूत स्वयं भाग जाते हैं।”
यह न केवल नारी शिक्षा पुस्तक है जो ‘सती महात्म्य’ (सती की महानता) शीर्षक वाले अध्याय से शुरू होती है, बल्कि गीता प्रेस ने अपनी हिंदी पत्रिका कल्याण का एक विशेष अंक भी प्रकाशित किया है जिसमें सती करने वाली 250 महिलाओं की कहानियों का महिमामंडन किया गया है और हिंदू महिलाओं को इन पूजनीय सती माताओं का अनुकरण करने का आदेश दिया गया है। स्वामी रामसुखदास ने ‘गृहस्थ में कैसे रहें’ में सती को हिन्दू धर्म की रीढ़ की हड्डी बताया है।
यह कितना शर्मनाक है कि स्वतंत्र भारत में हिंदू महिलाओं को जानवर से भी बदतर मानने वाले ऐसे धार्मिक आदेशों का प्रचार खुलेआम किया जा रहा है। क्या कृष्ण गोपाल जैसे हिंदुत्ववादी यह भी तर्क देंगे कि ‘मुस्लिम’शासन अभी भी जारी है! वास्तविकता तो यह है कि आरएसएस पुरुषवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है; ‘मुस्लिम’शासन होता या न होता इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।!
हिंदू महिलाओं को अपमानित करने वाले कुछ प्रमुख गीता प्रेस शीर्षक:
गोएन्दका, जयदयाल, नारी धर्म, गीता प्रेस, गोरखपुर। पहली बार 1938 में प्रकाशित और 2000 तक इसके 54 संस्करण निकले, जिनमें 11,20,250 प्रतियां छपीं।
गोएन्दका, जयदयाल, स्त्रियों के लिए कर्तव्य शिक्षा, गीता प्रेस, गोरखपुर। पहली बार 1954 में प्रकाशित और 2018 तक इसके 75 संस्करण हो चुके थे और 13,71,000 प्रतियां छप चुकी थीं।
नारी अंक, कल्याण, गीता प्रेस, गोरखपुर, 1948.
पोद्दार, हनुमानप्रसाद (सं.), भक्त नारी, गीता प्रेस, गोरखपुर, 2002। पहली बार 1931 में प्रकाशित और 2002 तक इसके 39 संस्करण हो चुके थे, जिनकी 4,62,000 प्रतियां छप चुकी थीं।
पोद्दार, हनुमानप्रसाद, दांपत्य जीवन का आदर्श, गीता प्रेस, गोरखपुर, पहली बार 1991 में प्रकाशित और 2002 तक इसके 17 संस्करण थे, जिनकी 1,81,000 प्रतियां छपी थीं।
पोद्दार, हनुमानप्रसाद, नारी शिक्षा, गीता प्रेस, गोरखपुर। पहली बार 1953 में प्रकाशित और 2018 तक इसके 11,75,000 के साथ 72 संस्करण हो गए।
रामसुखदास, स्वामी, गृहस्थ में कैसे रहें, गीता प्रेस, गोरखपुर। पहली बार 1990 में प्रकाशित, 2018 तक इसके 76 संस्करण हो चुके थे और 18,00,000 प्रतियां छप चुकी थीं।
अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद: ब्रह्म प्रकाश
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