वह 17 अगस्त, 2011 की दोपहरी थी। मौसम में गुनगुनापन था। हल्की-फुल्की फुहार झड़ रही थी। इंतज़ार था अन्ना हज़ारे के तिहाड़ जेल से निकलने का। जेल के बाहर भारी भीड़। वह बाहर आते हैं। ‘भारत माता की जय’ के नारों से माहौल गूँज उठता है। फिर उनका कारवाँ चल निकलता है। पूरे रास्ते लहराता तिरंगा, सड़क के दोनों तरफ़ ज़बर्दस्त भीड़। लोगों का हाथ हिलाकर अन्ना हज़ारे को अभिवादन करना। ऐसा दृश्य मैंने नहीं देखा था। लोकतंत्र में इससे बेहतर तसवीर नहीं हो सकती थी। लग रहा था देश में कुछ बदल रहा था। कारवाँ रामलीला मैदान पहुँचता है। उसके बाद अन्ना के आमरण अनशन की औपचारिक शुरुआत। अगले दस दिन तक पूरे देश की नज़र का रामलीला मैदान पर लगे रहना। टीवी पर वाल टू वाल कवरेज।

17 अगस्त, 2011 को अन्ना हज़ारे तिहाड़ जेल से निकलने के बाद रामलीला मैदान में आमरण अनशन पर बैठे थे। अन्ना आंदोलन ने पूरे देश को झकझोर दिया था। अन्ना के आंदोलन ने उम्मीद जगायी थी। आज वह उम्मीद मर चुकी है। और जब उम्मीद मरती है या सपने टूटते हैं तो विखंडन होता है, सिनिसिजम पैदा होता, और समाज अतिजीवी हो जाता है। वह एक्सट्रीम्स में डूबता उतराता है...
आज जब उस दृश्य के बारे में सोचता हूँ तो ख़ुद से पूछता हूँ- वो अन्ना हज़ारे कहाँ हैं? वो अरविंद केजरीवाल अब क्यों नहीं मिलते? वो सपनों की दुनिया कहाँ गुम हो गयी? वो क्रांति का जज़्बा क्यों ग़ायब हो गया? क्यों चारों तरफ़ अंधेरा दिखायी देता है? कौन है जिसने लोकतंत्र की उस अभिलाषा का अपहरण कर लिया? किन लोगों ने लोगों के अरमानों का ख़ून कर दिया और ऐसे घाव दे दिये जिनको भरने में शायद सदियों लग जाएँ?
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।