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सीमा के आरपार आती-जाती अंजू-सीमा क्या बताती हैं?

गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ की वृद्ध नायिका एक दिन अपनी बीमारी और बेहोशी से उठती है और तय करती है कि वह पाकिस्तान जाएगी। उसकी इस सनक भरी ज़िद में उसकी बेटी उसका साथ देती है। दोनों पाकिस्तान पहुंच जाते हैं। वृद्धा के भीतर बंटवारे से पहले की यादें हैं जिन्होंने उसे बिल्कुल एक अलग शख़्स बना डाला है। वह वीज़ा की शर्तें तोड़ खैबर पख़्तूनवा तक चली जाती है। लेकिन पाकिस्तान की एजेंसियां डरी हुई हैं कि यह कोई जासूस न हो। उसे गिरफ़्तार कर लिया जाता है। वहां भी वह जवानों को फटकारती है और उनसे फूल-पौधे लगवाने का काम करती है।

यह लगभग एक यूटोपियाई कहानी है जिसे ‘रेत समाधि’ में गीतांजलि श्री ने अपनी विशिष्ट शैली में रचा है। लेकिन बीते कुछ दिनों में अजीब ढंग से यह यूटोपिया हमारे समय में घटित होता नज़र आ रहा है। सबसे पहले सीमा हैदर नाम की एक महिला की कहानी सामने आई जो विदेश में रह रहे अपने शौहर को छोड़ कर अपने चार बच्चों सहित नेपाल के रास्ते भारत आ गई और यहां उसने सचिन नाम के एक लड़के के साथ घर बसा लिया। जब वह पचास दिन रह गई तब सुरक्षा एजेंसियों को मालूम हुआ कि यहां तो एक विदेशिनी आकर गृहस्थी संभाले बैठी है। इसके बाद उसे गिरफ़्तार किया गया, फिर उसे एक रहमदिल जज से ज़मानत मिल गई, लेकिन सुरक्षा एजेंसियां उससे पूछताछ में लगी हैं कि वह जासूस तो नहीं है।

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यह कहानी ख़त्म नहीं हुई थी कि अंजू की दास्तान सामने आ गई। अंजू अपने दो बच्चों को छोड़ कर अटारी सरहद के रास्ते पाकिस्तान पहुंची और वहां उसने एक मुस्लिम शख़्स से निकाह कर लिया। अब भारत में बैठे उसके पति की मांग है कि अंजू को वापस लाया जाए क्योंकि उसने बिना तलाक़ लिए सरहद पार कर निकाह किया है जो वैध नहीं है। इन दो कहानियों के बीच आप अख़बार पलटेंगे तो एक तीसरी कहानी चीन की एक लड़की की भी मिलेगी जो पाकिस्तान आकर घर बसा रही है।

आखिर ये सिरफिरी लड़कियां कौन हैं जो प्यार के नाम पर सारी समझदारी को विदा देते हुए, सरहदों को बेमानी बताते हुए, सेना-पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को ठेंगा दिखाते हुए, अपनी पूरी ज़िंदगी दांव पर लगाकर अनजान मुल्कों में चली आई हैं? मृदुला गर्ग ने अपनी आत्मकथात्मक कृति ‘वे नायाब औरतें’ में अपने शब्दों में कुछ ‘खिसकी हुई औरतों’ की दास्तान लिखी है। लेकिन ये तो कुछ ज़्यादा ही ‘खिसकी हुई’ औरतें हैं जिन्हें न अपने छूटते घर-परिवार की फ़िक्र है, न अपनी बदनामी की, न अपने वर्तमान की और न भविष्य की। कोई नहीं जानता कि आने वाले कल को इनकी कहानी क्या मोड़ लेगी। अनुभव यही बताता है कि जीवन में लगाई गई ऐसी दुस्साहसी छलांगें कई बार जानलेवा साबित होती हैं और अक्सर छलांग लगाने वालों को बुरी तरह ज़ख़्मी छोड़ जाती हैं।

लेकिन यह शायद ज़िंदगी की ही खूबसूरती या उसका ख़तरा है कि कुछ लोग ऐसी छलांग लगाने को फिर भी तैयार रहते हैं। इसे नादानी भी कह सकते हैं कि अक्सर ऐसी छलांग लगाने में लड़कियां अव्वल रहती हैं। शायद उनके भीतर कोई बटन होता है जो एक सीमा के बाद उन्हें बिल्कुल जीवन की कक्षा के बाहर अपनी ज़िद के आसमान में प्रक्षेपित कर देता है जहां न कोई तर्क चलता है न विवेक, बस एक आवेग से पैदा ऊर्जा होती है जो उन्हें अपने साथ लिए चलती है।
लेकिन इस टिप्पणी का मक़सद इन लड़कियों की तारीफ़ करना नहीं है, इस बात की ओर ध्यान खींचना है कि दरअसल हमने जो सरहदें बना रखी हैं, वे एक हद के बाद बेमानी हो जाती हैं। सरहदें खींचने वाले लोग बौखलाए घूमते हैं।

पाकिस्तान में सीमा हैदर की फ़रारी का बदला कुछ लोग वहां के हिंदुओं से लेना चाहते थे। भारत में अंजू का मामला अभी उतना बड़ा नहीं बना है वरना यहां भी कई संगठन सड़कों पर नारे लगाने लगें।

सरहदों के बेमानी होने की यह दास्तान नई नहीं है। नूरजहां और लता मंगेशकर की आवाज़ें सरहदों को बेमानी बनाती रही हैं, मेहदी हसन और जगजीत सिंह की ग़ज़लें इनके पार जाती रही हैं, मज़ाज और सरदार अली जाफ़री के अशआर अपनी सीमाहीन दुनिया बनाते रहे हैं और फिल्मों और सीरियलों की एक चोरी-छुपे चलने वाली दुनिया है जहां दोनों देशों के मुरीद अपने-अपने सितारों पर आह-वाह करते देखे जाते हैं।

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कह सकते हैं- यह भावुकता है। देश और राष्ट्र बहुत ठोस सच्चाइयां हैं जिनसे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। लेकिन दुनिया का नक़्शा ठीक से देखिए तो पाएंगे कि बीसवीं सदी में ही न जाने कितने देश हमेशा-हमेशा के लिए मिट गए और कई नई रेखाएं निकल आईं। यानी राष्ट्र भी इंसान की बनाई हुई संरचनाएं ही हैं, उनके नाम पर जुनून और उन्माद पैदा करना सियासत को रास आता है तहजीब को नहीं, सेना और सुरक्षा एजेंसियों को रास आता है, संगीतकारों और कलाकारों को नहीं, कूटनीति के विशेषज्ञों को रास आता है लेखकों को नहीं। 

कुंवर नारायण की एक कहानी है जिसमें दो देशों के बीच की सरहद खो जाती है। अब सरकार, मंत्री, संतरी, सेना सब परेशान हैं कि सरहद कहां चली गई, इसके बिना तो पूरी व्यवस्था बेकार हो जाएगी। सब सरहद को खोजने में लगे हैं। कुंवर नारायण के भीतर विडंबना की जो बहुत हल्की अनुगूंज रहती है, वह इस कहानी में बहुत मुखर होकर दिखाई पड़ती है। कहानी में बस बेफ़िक्र बच्चे खेलते दिखाई पड़ते हैं।

निश्चय ही यह मामला इतना सरल नहीं है। विवेक कहता है कि हर किसी को अपनी सीमा में रहना चाहिए। लेकिन यह सीमा कौन तय करता है? जो सीमा में रहते हैं, वे नई लकीरें नहीं खींचते, जो सीमा तोड़ते हैं, वे नए रास्ते बनाते हैं, नई राह दिखाते हैं।

सीमा हैदर या अंजू शर्मा का क्या होगा, कहना मुश्किल है। लेकिन गीतांजलि श्री की नायिका अंत में मारी जाती है। उसे पता था कि वह मारी जाएगी और वह अभ्यास कर रही थी कि जब ऐसी घड़ी आए तो वह ज़मीन पर सीधी गिरे। हर कोई अपने अंजाम के लिए किसी न किसी ढंग से तैयार होता है। और जब वह फ़ैसला कर लेता है तो फिर उसके लिए सारी सरहदें बेमानी हो जाती हैं।

जहां तक सीमा की रखवाली और देश की सुरक्षा के नाम पर खड़े किए जाने वाले फौजी तामझाम और सुरक्षा के विराट-अमानवीय तंत्र का सवाल है, उसकी खिल्ली उड़ाने वाली रचनाएं हमारे पास न जाने कितनी हैं। ग्राहम ग्रीन का उपन्यास ‘आवर मैन इन हवाना’ तत्काल याद आता है। मुख्यधारा की कई फिल्में भी इस सिलसिले में याद की जा सकती हैं। मगर असली बात यही है- कोई हद इंसान से बड़ी नहीं, मुल्कों की सरहद भी नहीं। काश, इस मुद्दे को कुछ मानवीय ढंग से हम समझें तो देशों के बीच नामालूम और नक़ली तनाव कुछ कम हों, ज़िंदगी में राहतें बढ़ें और मोहब्बतें कुछ और आसान हों। लेकिन यह सरल दुनिया चाहिए किसको?

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प्रियदर्शन
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