यह 2015 का साल था जब नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी जैसे लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्या से दुखी, इन घटनाओं पर साहित्य अकादमी की चुप्पी से नाराज़ और गोरक्षा के नाम पर शुरू हुई मॉब लिंचिंग की प्रवृत्ति के साथ-साथ उसको मिल रहे सरकारी संरक्षण से स्तब्ध लेखकों ने अपने प्रतिरोध के तौर पर अपने पुरस्कार वापस करने शुरू किए। शुरुआत उदय प्रकाश ने की, फिर नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी ने पुरस्कार लौटाए और इसके बाद पुरस्कार वापस करने वालों का तांता लग गया। सरकार ने इसे अपनी किरकिरी की तरह देखा और तत्काल बीजेपी सरकार से जुड़े मंत्री और नेता ही नहीं, सरकार समर्थक लेखक-कलाकार भी इन लेखकों को ‘अवार्ड वापसी गैंग’ बताने लगे।
अब हमारा सत्ता-प्रतिष्ठान इस इंतज़ाम में लग गया है कि पुरस्कार वापसी का यह सिलसिला दुबारा कभी शुरू न हो सके। परिवहन, पर्यटन और संस्कृति मामलों की संसदीय कमेटी ने सिफारिश की है कि आगे से किसी लेखक-कलाकार या अन्य शख्सियत को कोई सम्मान देने से पहले उससे यह लिखित गारंटी ले ली जाए कि वह अपना पुरस्कार किसी भी सूरत में वापस नहीं करेगा। सिफारिश में इस बात को भी याद किया गया है कि 2015 के दौरान 39 साहित्यकारों ने अपने साहित्य अकादेमी सम्मान वापस किए। कहा गया है कि इस तरह की सम्मान वापसी से सम्मान का भी अपमान होता है, दूसरे लेखकों का भी और देश का भी। इंडियन एक्सप्रेस में छपी इस खबर के मुताबिक संसदीय समिति के लगभग 20 सदस्यों में बस एक ने इस प्रस्ताव पर अपनी असहमति दर्ज कराई।
यह सिफ़ारिश दरअसल बताती है कि लेखकों-संस्कृतिकर्मियों या अन्य क्षेत्रों में विशिष्ट योगदान देने वालों को सत्ता प्रतिष्ठान किस तरह देखता है। वह जैसे मान लेता है कि किसी लेखक या विशिष्ट व्यक्तित्व को पुरस्कार देकर वह उसे उपकृत कर रहा है। वह इसलिए पुरस्कार दे रहा है कि पुरस्कृत व्यक्ति सरकार के प्रति कृतज्ञ हो और इतना वफादार बना रहे कि उसके किसी अपकृत्य का मनचाहा विरोध भी न कर सके।
दरअसल, पुरस्कार लेने-देने को लेकर यह मामला बस सरकार का नहीं लेखकों का भी है। वाक़ई ऐसे लेखक-कलाकार हमारे बीच होते हैं जो पुरस्कारों से न सिर्फ खुद को उपकृत महसूस करते हैं बल्कि इसके लिए जुगाड़ में भी लगे रहते हैं। ज़रूरत पड़ने पर वे सरकार के पक्ष में बयान भी जारी करते हैं। याद कर सकते हैं कि 2015 के दौरान जब लेखकों ने पुरस्कार वापसी के साथ-साथ साहित्य अकादमी तक एक प्रतिरोध-जुलूस निकाला तो उसके प्रत्युत्तर में सरकार-समर्थक लेखकों-कलाकारों का भी एक जुलूस निकल पड़ा। इस जुलूस में नरेंद्र कोहली जैसे सम्मानित माने जाने वाले लेखक तक शामिल थे। यह बात तो समझ में आती है कि अगर लेखक सरकार के किसी कृत्य को सही मानें और लेखकों के विरोध को ग़लत- तो उन्हें भी अपनी बात रखने का हक़ है, लेकिन वे लेखकों के प्रदर्शन के विरुद्ध प्रदर्शन करने पर उतर आएँ तो इसे लेखकीय गरिमा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवमानना के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है।
क़ायदे से लेखक या कलाकार को सम्मान देते हुए सत्ता को विनीत होना चाहिए। क्योंकि राजकीय सम्मान की इस परंपरा का वास्ता इस खयाल से है कि लेखक या कलाकार अपने समाज को सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ते हैं, उसे कुछ ऐसा देते हैं जो उसके लिए रोशनी का काम करता है और इसलिए समाज को अपने लेखक-कलाकार को कुछ लौटाना चाहिए।
फिर एक सवाल यह भी उठता है कि लेखक अगर सरकारों द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कारों को अनुचित मानता है तो क्या निजी पूंजी द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार लेना उचित है? सरकारी पूंजी कम से कम जनता की होती है, सरकारें बदलती रहती हैं, संस्थाओं के निर्णायक मंडल और उनकी समितियों में बदलाव होते रहते हैं। निजी पूंजी के तो स्रोत का भी कई बार पता नहीं होता और उससे सम्मानित लेखकों को बाद में पता चलता है कि जो पैसा उन्हें सम्मानित करने के लिए लगाया गया, वह किसी खनन घोटाले या दूसरे भ्रष्टाचार या दलाली से आया था।
बहरहाल, यह बहस पुरानी है कि लेखक कौन से सम्मान ले और कौन से नहीं ले। वह सरकारी पुरस्कार ले या निजी पूंजी से सम्मानित हो। डाइनाइट के आविष्कार अल्फ़्रेड नोबेल द्वारा कमाए गए पैसे से दुनिया के सर्वाधिक चर्चित नोबेल सम्मान साहित्य, विज्ञान और शांति तक के लिए दिए जाते हैं। जो रॉकफेलर फ़ाउंडेशन इन दिनों दुनिया भर में तरह-तरह के बौद्धिक विमर्शों को प्रायोजित करने के लिए जाना जाता है, उसका पैसा उन्नीसवीं सदी के दूसरे दशक में किन छल-प्रपंचों से आया- इसकी दिलचस्प दास्तान तेल की खोज का इतिहास लिखने वाले डेनियर अर्गिन की बहुत मोटी किताब ‘द प्राइज़’ में मिलती है। एशिया का नोबेल कहे जाने वाले मैगसेसे सम्मान के स्रोत पर भी सवाल उठते रहे हैं। इन सबके बावजूद कई सम्मानों ने अपना सम्मान बचाए रखा है और लेखकों की पहचान में उनका एक महत्वपूर्ण अवदान रहा है।
लेकिन इस बहस से दूर संसदीय समिति की सिफ़ारिश जो नया काम कर रही है, वह पहले से लेखकों और पुरस्कृत शख्सियतों की हैसियत तय करने का है। उसकी सिफ़ारिश मान ली जाए तो सम्मान बाद में मिलेगा, शर्त पहले आएगी।
यह पुरस्कृत व्यक्ति का सम्मान नहीं अपमान है। दूसरी बात यह कि अगर कोई लेखक या संस्कृतिकर्मी राजनीतिक सत्ता के किसी निर्णय से क्षुब्ध होकर या किसी अन्य प्रवृत्ति की वजह से अपना पुरस्कार वापस करता है तो यह उसकी लोकतांत्रिक आजादी और अभिव्यक्ति का ही हिस्सा है, यह उसके असंतोष प्रदर्शन का एक वैध ढंग है। इसे दूसरे लेखकों का अपमान बताना दरअसल कुछ ऐसा है जैसे किसी एक मुद्दे पर किन्हीं नागरिक संगठनों के प्रतिरोध को उन दूसरे नागरिकों का अपमान बताना जो उस प्रतिरोध में शामिल नहीं हैं।
लेकिन इस सिफ़ारिश का वास्ता बस पुरस्कार से होता तो कोई बड़ी बात नहीं होती। असली बात यह है कि इससे अभिव्यक्ति के नियंत्रण की सत्ता की मंशा उजागर होती है। उसे किसी तरह का असंतोष मंज़ूर नहीं।
यह सच है कि 2015 के प्रतिरोध के बावजूद किसी सरकार को कोई फ़र्क नहीं पड़ा- नरेंद्र मोदी बहुत भारी बहुमत से 2019 में जीत कर लौटे। बेशक, 2015 में ही बिहार में हुए चुनावों में अपने गठबंधन की जीत के पीछे नीतीश कुमार लेखकों के प्रतिरोध-अभियान की भी एक भूमिका देखते रहे, लेकिन यह सच है कि आरजेडी के साथ उनका गठबंधन न होता तो उनकी जीत आसान न होती।
तो मामला पुरस्कार का नहीं, लेखकों के सम्मान का भी नहीं है। वह हमारे समाज में वैसे भी काफ़ी कम हो चुका है। हम बेईमान कारोबारियों को आदर्श मानते हैं, सफल धंधेबाजों की तरह बनना चाहते हैं, लेखक-कलाकार इस नई सभ्यता में बिल्कुल उपेक्षा के कगार पर खड़े लोग हैं। तो असली बात लेखक-कलाकार की नहीं, उस लोकतांत्रिक आज़ादी की है जिसे लगातार सीमित करने की कोशिश चल रही है।
कल्पना करें कि अगर अंग्रेज़ों के समय ऐसा कोई क़ानून होता तो गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर जालियांवाला बाग के बाद ‘सर’ की उपाधि लौटा नहीं पाते क्योंकि उन्होंने अंडरटेकिंग दे रखी होती कि वे इसे कभी वापस नहीं करेंगे। लेकिन इस कल्पना में हम यह क्यों नहीं जोड़ सकते कि गुरुदेव ने ऐसी अंडरटेकिंग दी ही नहीं होती, क्योंकि उन्हें ऐसी शर्त मंज़ूर न होती। हमारे समय में यह बात निश्चय पूर्वक नहीं कही जा सकती। हमारे यहां अंडरटेकिंग देकर पुरस्कार ग्रहण करने वाली शख्सियतें मिल जाएंगी। इसका मतलब बस यह है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी सुनिश्चित करना बस सरकार का काम नहीं है, नागरिकों का भी है जिन्हें अपनी आज़ादी के लिए बार-बार खड़ा होना चाहिए, और उन लेखकों का भी जो खुद को नागरिकों का प्रतिनिधि भी मानते हैं।
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