loader

हैदराबाद: ओवैसी की सफलता से ध्रुवीकरण बढ़ेगा?

ओवैसी राष्ट्रीय राजनीति में हिंदू-मुसलिम ध्रुवीकरण के बड़े फैक्टर बन चुके हैं। इसमें सच्चाई हो या न हो, मगर वे हिंदू विरोध के एक प्रतीक के रूप में स्थापित कर दिए गए हैं। हालाँकि अपने विचारों से ओवैसी ने कभी भी हिंदू विरोधी या देश विरोधी नज़रिया ज़ाहिर नहीं किया है, न ही इसलामी सियासत की वकालत करते हुए वे कभी नज़र आए, मगर हिंदुओं का एक हिस्सा उनके नाम से ही बिदकता है और गोदी मीडिया भी उन्हें इसी रूप में पेश करता है।
मुकेश कुमार

ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम के चुनाव नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि बीजेपी की हिंदुत्ववादी ध्रुवीकरण की राजनीति उसे किस पैमाने पर कामयाबी दिला सकती है। राष्ट्रवाद की आड़ में मुसलिम विरोध का कार्ड चलकर वह एक ही झटके में न केवल अपनी सफलता को कई गुना बढ़ा सकती है बल्कि स्थापित दलों में भय का संचार भी कर सकती है। अब वह तेलंगाना जीतने का ही दावा नहीं कर रही है, बल्कि पूरे दक्षिण भारत में अपनी पैठ बढ़ाने का ख़्वाब भी सँजोने लगी है। 

लेकिन हैदराबाद के चुनाव नतीजों को केवल स्थानीय या क्षेत्रीय संदर्भों में देखना सही नहीं होगा, इसके प्रभाव राष्ट्रीय स्तर पर देखने को मिल सकते हैं। ये नतीजे ध्रुवीकरण की राजनीति के लिए नई ख़ुराक़ का काम करेंगे। नतीजों ने बीजेपी को ओवैसी फैक्टर का और भी ज़्यादा इस्तेमाल करने का मौक़ा मुहैया करवा दिया है।   

हैदराबाद के चुनाव को स्थानीय निकाय का चुनाव मानकर दरकिनार करना ख़तरनाक़ होगा क्योंकि बीजेपी ने इसे स्थानीय चुनाव की तरह लड़ा ही नहीं था। उसने भले ही शहर को चमकाने के बड़े-बड़े वायदे किए थे, मगर मूल मुद्दा हिंदू-मुसलमान को ही बनाया था।

ध्रुवीकरण की पुरजोर कोशिश

चाहे पुराने हैदराबाद में कथित तौर पर रह रहे पाकिस्तानियों और रोंहिग्या मुसलमानों के ख़िलाफ़ सर्जिकल स्ट्राइक करने की बात हो या शहर का नाम बदलकर भाग्यनगर करने और निज़ामशाही को ख़त्म करने की, हर मामले में बीजेपी की उस राजनीति की छाप देखी जा सकती है, जिसे वह राष्ट्रीय स्तर पर कर रही है। 

यही नहीं, बीजेपी का चुनाव अभियान भी राष्ट्रीय स्तर के नेताओं द्वारा संचालित था। कई बड़े केंद्रीय मंत्रियों को इसीलिए उतारा गया था। गृह मंत्री अमित शाह का रोड शो करना हो या योगी आदित्यनाथ जैसे नेता का घनघोर सांप्रदायिक बयान देना बता रहा था कि वे हैदराबाद के चुनाव को किस तरह से जीतना चाहते हैं। 

ताज़ा ख़बरें

दरअसल, हैदराबाद में पहले से ही बीजेपी की हिंदू-मुसलमान राजनीति के लिए बहुत उर्वर ज़मीन बनने की गुंज़ाइश रही है। अव्वल तो शहर की आबादी में हिंदुओं और मुसलमानों का मिश्रण इस तरह का है और फिर इसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि सांप्रदायिक ताक़तों के लिए ध्रुवीकरण का रास्ता आसान कर देती है। लेकिन उससे भी बड़ा फैक्टर ये है कि हैदराबाद कट्टरपंथी मुसलिम राजनीति करने वाले एआईएमआईएम के नेता असदउद्दीन ओवैसी का घर है, गढ़ है। 

aimim in ghmc election 2020 - Satya Hindi

हिंदू विरोध के प्रतीक बने ओवैसी

ओवैसी राष्ट्रीय राजनीति में हिंदू-मुसलिम ध्रुवीकरण के बड़े फैक्टर बन चुके हैं। इसमें सच्चाई हो या न हो, मगर वे हिंदू विरोध के एक प्रतीक के रूप में स्थापित कर दिए गए हैं। हालाँकि अपने विचारों से ओवैसी ने कभी भी हिंदू विरोधी या देश विरोधी नज़रिया ज़ाहिर नहीं किया है, न ही इसलामी सियासत की वकालत करते हुए वे कभी नज़र आए, मगर हिंदुओं का एक हिस्सा उनके नाम से ही बिदकता है और गोदी मीडिया भी उन्हें इसी रूप में पेश करता है। 

aimim in ghmc election 2020 - Satya Hindi

चुनाव में बताया जिन्ना

बीजेपी उनकी इस खलनायक वाली छवि को लगातार मज़बूत भी करती है और भुनाती भी रहती है। हैदराबाद चुनाव के दौरान उसने उन्हें जिन्ना बताया और उनके गढ़ यानी पुराने हैदराबाद को पाकिस्तान के रूप में चित्रित किया। बीजेपी के लिए ऐसा कर पाना बहुत आसान है क्योंकि इस समय उसके पास हर तरह की ताक़त है, ख़ास तौर पर प्रोपेगेंडा की। गोदी मीडिया उसके द्वारा बनाए गए हर नरैटिव को स्थापित करने के लिए दिन-रात सक्रिय है। 

ग्रेटर हैदराबाद के नतीजों पर देखिए चर्चा- 

मुसलमानों के नेता हैं ओवैसी

लेकिन इसमें भी संदेह नहीं होना चाहिए कि ओवैसी की राजनीति अंतत: मुसलिम समुदाय की गोलबंदी पर आधारित है। वे भले ही पिछड़ों और दलितों को जोड़ने की बात करते हों मगर उनके तमाम सियासी मुद्दे मुसलमानों से जुड़े होते हैं, एक समुदाय की धार्मिक पहचान से जुड़े होते हैं। यही वज़ह है कि उन्हें मुसलमानों का नेता माना जाता है और उनकी पार्टी को मुसलमानों की पार्टी। उनकी पार्टी के नाम में मुसलमीन होने को भी इसी रूप में देखा जाता है। 

अपनी इस पहचान और राजनीति की वज़ह से ओवैसी राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित होने में कामयाब हो गए हैं और जहाँ कहीं भी मुसलिम मतदाता अच्छी संख्या में हैं, वहाँ वे मध्यमार्गी एवं वामपंथी दलों के लिए ख़तरा भी बन गए हैं। लेकिन उनकी इस भूमिका से बीजेपी को फ़ायदा होता है।

हमने महाराष्ट्र और बिहार के चुनाव में इसे भली-भाँति देख लिया है। बिहार में उन्होंने न केवल पाँच सीटें छीन लीं, बल्कि कम से कम 11 सीटों पर वह महागठबंधन की हार का कारण भी बने। उनकी इस भूमिका की वज़ह से बीजेपी फिर से सत्ता पर काबिज़ होने में सफल रही। 

यूपी-बंगाल में लड़ेंगे ओवैसी 

अब यही भूमिका वे पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश के चुनाव में निभाना चाहते हैं। चुनावी मैदान में उतरकर वे अपना कितना लाभ कर पाएंगे ये दीग़र बात है मगर चुनाव में ध्रुवीकरण का एक कारक  बनकर वे धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को नुक़सान ज़रूर पहुँचाएंगे। ये भी ग़ौरतलब है कि वे असम और केरल में चुनाव नहीं लड़ने जा रहे हैं और इस फ़ैसले से भी यही संकेत दे रहे हैं कि जहाँ मुसलमानों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियाँ हैं, वहाँ वे नहीं जाएंगे। 

विचार से और ख़बरें
असम में एआईडीयूएफ और केरल में इंडियन यूनियन मुसलिम लीग़ इसके लिए मौजूद हैं। यानी ओवैसी धर्म के आधार पर राजनीतिक भाईचारा दिखा रहे हैं और इसी से उनका राजनीतिक एजेंडा बेनकाब हो जाता है। उनकी इस रणनीति से वोटों का बँटवारा होता है जिससे बीजेपी विरोधी राजनीति को नुकसान होता है और बीजेपी फ़ायदे में रहती है।  
ओवैसी की इसी भूमिका की वजह से एआईएमआईएम को बीजेपी की बी टीम बताया जाता है और यहाँ तक आरोप लगाए जाते हैं कि बीजेपी उन्हें पैसा देती है। बीजेपी और एआईएमआईएम के मुक़ाबले को भी नूरा कुश्ती के तौर पर ही प्रस्तुत किया जाता है।

बीजेपी को सियासी फ़ायदा 

कहने का मतलब ये है कि ओवैसी भले ही कुछ कहें और उनकी राजनीति विशुद्ध रूप से सांप्रदायिक न भी हो तो भी वह बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति को ज़बरदस्त ख़ुराक़ देती है। बीजेपी ओवैसी के बहाने भारत के विभाजन और मुसलिमों के वर्चस्व का हौवा खड़ा करती है और डरे हुए हिंदुओं को अपने पाले में ले आती है। हैदराबाद में बीजेपी की बड़ी जीत की एक महत्वपूर्ण वज़ह उनकी छवि और यही राजनीति रही है।   

ग्रेटर हैदराबाद के चुनाव में ओवैसी की पार्टी को कोई नुक़सान नहीं हुआ है। यानी उसका अपना वोटबैंक हिला नहीं है। उसकी जीत भी पुराने हैदराबाद के मुसलिम बहुल इलाक़ों में ही हुई है। ओवैसी इस बात पर राहत महसूस कर सकते हैं, लेकिन बीजेपी इस बात को भी ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल करेगी। वह कहेगी कि देखो मुसलमान तो संगठित हैं, अब आपको भी होना पड़ेगा।  

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
मुकेश कुमार
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें