भारत के चीन से चल रहे विवाद के बीच पहली बार रूस ने ऐसी टिप्पणी की है, जिसने एक साथ कई सवाल खड़े कर दिए हैं। इनमें सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या पुराने और आज़माए हुए मित्र रूस के साथ भी भारत के संबंध ख़राब हो रहे हैं? क्या दोनों के बीच दूरियाँ इतनी बढ़ गई हैं कि रूस के विदेश मंत्री सेर्गेई लावरोव को सार्वजनिक रूप से इस बारे में टिप्पणी करनी पड़ी और अगर ऐसा है तो इसकी वज़हें क्या हैं?
रूस ने पहली बार भारत और चीन के झगड़े पर इस तरह की टिप्पणी की है और यह बताती है कि मास्को की नीतियों में बदलाव आ रहा है। अभी तक तटस्थ था, उसने न तो भारत का पक्ष लिया और न ही चीन का। उसकी कोशिश यही रही कि दोनों के बीच मतभेद ख़त्म हों। इसमें मदद के उद्देश्य से वह बीच-बचाव भी करता रहा है, मगर परदे के पीछे से।
कुछ महीने पहले ही उसने मास्को में भारत और चीन के विदेश मंत्रियों के बीच एक मुलाक़ात भी इसी मक़सद से आयोजित करवाई थी और उसके कुछ सकारात्मक परिणाम भी निकले थे। लेकिन रूस की इंटरनेशनल अफ़ेयर्स कौंसिल की बैठक में लावरोव की टिप्पणियाँ बताती हैं कि पुतिन सरकार का रवैया बदल रहा है। वह अब भारत को उस भूमिका में नहीं देख रहा है जो अभी तक देखता था।
लावरोव ने अपने वक्तव्य में कई चिंताएँ ज़ाहिर की हैं। पहली चिंता तो यह है कि भारत अमेरिका और यूरोप के चीन विरोधी अभियान का मोहरा बन रहा है। इसका मतलब यह निकलता है कि चीन की तरह रूस भी अब यह मानने लगा है कि भारत अगर चीन से भिड़ने पर आमादा है तो इसीलिए कि उसे अमेरिका और उसके सहयोगी देश उकसा रहे हैं, उसका इस्तेमाल कर रहे हैं। चीन की यह शिकायत शुरू से रही है और उसके सख़्त रवैये के पीछे इसे एक बड़ी वज़ह माना जाता है। उसने बार-बार इसे ज़ाहिर भी किया है।
लावरोव ने भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका द्वारा खड़े किए जा रहे सामरिक गठबंधन क्वाड का हवाला भी दिया है।
क्वाड में अमेरिका के अलावा जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत हैं। चीन के साथ सीमा विवाद छिड़ने के बाद से क्वाड में भारत की सक्रियता एकदम से बढ़ी है और इसे चीन तथा रूस दोनों चिंता के साथ देख रहे हैं।
यह तो जगज़ाहिर तथ्य है कि अमेरिकी ब्लॉक चीन की आर्थिक तरक्की से घबराया हुआ है और उसे नियंत्रित करने के लिए उसने अभियान छेड़ा हुआ है। वह उसकी न केवल आर्थिक बल्कि सामरिक घेरेबंदी का भी सहारा ले रहा है। चीन के ख़िलाफ़ भारत को खड़ा करने की अमेरिका की रणनीति आज की नहीं है, मगर भारत-चीन सीमा विवाद के गहराने से उसे अच्छा मौक़ा मिल गया और वह जान-बूझकर ऐसे संकेत दे रहा है कि भारत तो उसके साथ है। चीन को यह अच्छा नहीं लग रहा।
लेकिन यह केवल चीन के ही अच्छे लगने की बात नहीं है। रूस को भी यह खटक रहा है क्योंकि अमेरिका केवल चीन को ही नहीं, रूस को भी निशाना बना रहा है। वह उसे वैश्विक अर्थव्यवस्था में अलग-थलग करने में जुटा हुआ है और उसके ख़िलाफ़ उसने कड़े आर्थिक प्रतिबंध भी लगा रखे हैं। अमेरिका की इसी चाल का जवाब देने के लिए रूस ने चीन के साथ अपने रिश्ते काफ़ी बेहतर किए हैं। दोनों देशों ने सीमा विवाद सुलझा लिया है और अब आर्थिक संबंधों को सुदृढ़ करने में जुटे हैं। इसी वज़ह से वह भारत को भी साथ रखना चाहता है, मगर भारत की अमेरिकापरस्ती से उसे लग रहा है कि बात बिगड़ रही है।
सवाल उठता है कि क्या भारत सरकार रूस की इन चिंताओं से वाकिफ़ है और उसे अपने इस पुराने मित्र के दूर जाने से पैदा होने वाले ख़तरे का एहसास है? भारत सरकार के रुख़ से ऐसा लगता तो नहीं है। वह लगातार अमेरिका की तरफ़ झुकती जा रही है। सैन्य सहयोग के नाम पर अमेरिका भारत पर अपनी पकड़ मज़बूत करता जा रहा है। ट्रम्प-मोदी के शासनकाल में यह तेज़ी से बढ़ी है।
यह तो स्पष्ट दिख रहा है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़े देशों के बीच वर्चस्व की लड़ाई बढ़ती जा रही है। अमेरिका इस सचाई को देख रहा है कि उसका रुतबा दुनिया में घट रहा है और चीन सबसे बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित होता जा रहा है।
ट्रम्प की नीतियों की वज़ह से यह प्रक्रिया और तेज़ हुई है। इसका नतीजा यह निकला है कि पाँच-सात साल पहले तक जो दुनिया एकध्रुवीय दिखती थी अब वह बहुध्रुवीय दिखने लगी है। अमेरिका और चीन के अलावा रूस भी एक शक्ति के रूप में ख़ुद को प्रस्तुत कर रहा है।
ऐसे में भारत का किसी एक देश और ख़ास तौर पर उस देश के पक्ष में झुकते जाना जो कि उतार पर है, राष्ट्रीय हितों के लिए अहितकारी हो सकता है। उसे दो चीज़ें ध्यान में रखनी चाहिए। एक तो यह कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक हितों की रक्षा के मामले में रूस उसका साथ निभाता रहा है और उसे खोना उसके लिए नुक़सान का सौदा होगा।
दूसरे, हथियारों के मामले में भारतीय सेना की रूस पर अभी भी बहुत ज़्यादा निर्भरता है। न केवल टैंक, लड़ाकू विमान और कलपुर्ज़ों आदि की आपूर्ति रूस कर रहा है, बल्कि अत्याधुनिक एयर डिफेंस सिस्टम एस-400 भी वह उसी से ले रहा है। हालाँकि अमेरिका ने रूस पर तरह-तरह से प्रतिबंध लगा रखे हैं ताकि कोई देश उससे हथियार आदि न खरीद सकें, मगर भारत अपनी आवश्यकताओं को समझता है इसीलिए वह एस-400 का सौदा कर चुका है।
लावरोव की टिप्पणी पर भारत सरकार की ओर से कोई टिप्पणी नहीं आई है और अगर आई भी तो वह यही होगी कि रूस के साथ पुरानी मित्रता पर उसमें जोर दिया जाएगा। मगर विदेश विभाग यदि इसे रूस की चीन के साथ निकटता के संदर्भ में देखे तो हैरत नहीं होगी। उस पर अमेरिकापरस्ती इतनी हावी हो गई है कि वह रूस की दोस्ती को ख़तरे में डाल सकती है।
समझदारी इसी में है कि बहुध्रुवीय दुनिया को ध्यान में रखते हुए भारत अमेरिका या रूस किसी के पक्ष में न झुके। उसे रूस के साथ अपनी पुरानी दोस्ती को तो बचाना ही चाहिए, साथ ही उसकी मदद से चीन के साथ अपने विवाद भी सुलझाना चाहिए, भले ही इसके लिए क्वाड की बलि चढ़ानी पड़ जाए।
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